अंतिमजन के हितचिंतक पंडित दीनदयाल

0
148


-मनोज कुमार
एकात्म मानववाद के प्रणेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय सही अर्थों में अंतिमजन के हितचिंतक थे. उनका मानना था कि न्याय और समाजवाद तभी सार्थक हो सकता है जब अंतिम छोर पर बैठे आम आदमी को उसका बुनियादी अधिकार मिल सके. वे अंतिमजन को सुपात्र मानते थे और कहते थे कि उनके हिस्से की रोटी, कपड़ा और मकान जो सरकार दे सके, वही सरकार लोकतांत्रिक सरकार है. यही कारण है कि उनका पूरा जीवन एकदम साधारण व्यक्ति के रूप में गुजरा. ऐसा भी नहीं था कि उनके पास इस बात का अवसर नहीं था कि वे उच्च पदों पर आसीन नहीं हो सकते थे लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. उनकी चिंता हमेशा भारत के उन दबे-कुचले और अधिकारविहिन लोगों की तरफ था. राजनीति में उच्च से उच्चतर पद पाने के अनेक अवसर उनके समक्ष थे लेकिन उन्होंने हमेशा अपने को एक राष्ट्रसेवक के रूप में ही स्थापित किया. उन्होंने भारत के लिये चिंता की और कहा कि भारत की सांस्कृतिक विविधता ही उसकी असली ताकत है और इसी के बूते पर वह एक दिन विश्व मंच पर अगुवा राष्ट्र बन सकेगा. दशकों पहले उनके द्वारा स्थापित यह विचार आज मूर्तरूप ले रहा है. भारत की सांस्कृतिक विरासत पूरी दुनिया को प्रकाशमान कर रही है और शायद वह दिन दूर नहीं जब भारत विश्व मंच पर पूरी दुनिया को राह दिखाने वाला होगा.
एकात्म मानववाद के प्रणेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय का मानना था कि भारतवर्ष विश्व में सर्वप्रथम रहेगा तो अपनी सांस्कृतिक संस्कारों के कारण. उनके द्वारा स्थापित एकात्म मानववाद की परिभाषा वर्तमान परिप्रेक्ष्य में ज्यादा सामयिक है.  उन्होंने कहा था कि मनुष्य का शरीर,मन, बुद्धि और आत्मा ये चारों अंग ठीक रहेंगे तभी मनुष्य को चरम सुख और वैभव की प्राप्ति हो सकती है. जब किसी मनुष्य के शरीर के किसी अंग में कांटा चुभता है तो मन को कष्ट होता है , बुद्धि हाथ को निर्देशित करती है कि तब हाथ चुभे हुए स्थान पर पल भर में पहुँच जाता है और कांटें को निकालने की चेष्टा करता है. यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है. सामान्यत: मनुष्य शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा इन चारें की चिंता करता है. मानव की इसी स्वाभाविक प्रवृति को पं. दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानववाद की संज्ञा दी. उन्होंने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के सिद्धांत पर जोर दिया उन्होनें कहा कि संस्कृति-प्रधान जीवन की यह विशेषता है कि इसमें जीवन के मौलिक तत्वों पर तो जोर दिया जाता है पर शेष बाह्य बातों के संबंध में प्रत्येक को स्वतंत्रता रहती है. इसके अनुसार व्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रत्येक क्षेत्र में विकास होता है. संस्कृति किसी काल विशेष अथवा व्यक्ति विशेष के बन्धन से जकड़ी हुई नहीं है, अपितु यह तो स्वतंत्र एवं विकासशील जीवन की मौलिक प्रवृत्ति है. इस संस्कृति को ही हमारे देश में धर्म कहा गया है. जब हम कहतें है कि भारतवर्ष धर्म-प्रधान देश है तो इसका अर्थ मजहब, मत या रिलीजन नहीं, अपितु यह संस्कृति ही है. उनका मानना था कि भारत की आत्मा को समझना है तो उसे राजनीति अथवा अर्थ-नीति के चश्मे से न देखकर सांस्कृतिक दृष्टिकोण से ही देखना होगा. भारतीयता की अभिव्यक्ति राजनीति के द्वारा न होकर उसकी संस्कृति के द्वारा ही होगी।
समाज में जो लोग धर्म को बेहद संकुचित दृष्टि से देखते और समझते हैं तथा उसी के अनुकूूल व्यवहार करते हैं, उनके लिये पंडित दीनदयाल उपाध्याय की दृष्टि को समझना और भी जरूरी हो जाता है. वे कहते हैं कि विश्व को भी यदि हम कुछ सिखा सकते हैं तो उसे अपनी सांस्कृतिक सहिष्णुता एवं कर्तव्य-प्रधान जीवन की भावना की ही शिक्षा दे सकते हैं, राजनीति अथवा अर्थनीति की नहीं। उसमें तो शायद हमको उनसे ही उल्टे कुछ सीखना पड़े। अर्थ, काम और मोक्ष के विपरीत धर्म की प्रमुख भावना ने भोग के स्थान पर त्याग, अधिकार के स्थान पर कर्तव्य तथा संकुचित असहिष्णुता के स्थान पर विशाल एकात्मता प्रकट की है। इनके साथ ही हम विश्व में गौरव के साथ खड़े हो सकते हैं।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय का बाल्यकाल बेहद कष्टों में गुजरा. बहुत छोटी सी उम्र में पिता का साया सिर से उठ गया था. अपने प्रयासों से उन्होंने शिक्षा-दीक्षा हासिल की. बाद के समय में भारतीय विचारों से ओतप्रेत नेताओं का साथ मिला. यहीं से उनके जीवन में बदलाव आया लेकिन जो कष्ट उन्होंने बचपन में उठाये थे, उन कष्टों के चलते वे पूरी जिंदगी सादगी से जीते रहे. विद्यार्थियों के प्रति उनका विशेष अनुराग था. वे चाहते थे कि समाज में शिक्षा का अधिकाधिक प्रसार हो ताकि लोग अधिकारों के साथ कर्तव्यों के प्रति जागरूक हो सकें. उन्हें इस बात का रंज रहता था कि समाज में लोग अधिकारों के प्रति तो चौंकन्ने हैं लेकिन कर्तव्य पूर्ति की भावना नगण्य हैं. उनका मानना था कि कर्तव्यपूर्ति के साथ ही अधिकार स्वयं ही मिल जाता है. उन्होंने अपने जीवनकाल में एकात्म मानववाद का जो सिद्वांत प्रतिपादित किया, वह आज दशकों बाद भी सामयिक बना हुआ है.

Previous articleऋषि दयानन्द ने आर्यसमाज की स्थापना क्यों की?
Next articleगीता का कर्मयोग और आज का विश्व, भाग-55
मनोज कुमार
सन् उन्नीस सौ पैंसठ के अक्टूबर माह की सात तारीख को छत्तीसगढ़ के रायपुर में जन्म। शिक्षा रायपुर में। वर्ष 1981 में पत्रकारिता का आरंभ देशबन्धु से जहां वर्ष 1994 तक बने रहे। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से प्रकाशित हिन्दी दैनिक समवेत शिखर मंे सहायक संपादक 1996 तक। इसके बाद स्वतंत्र पत्रकार के रूप में कार्य। वर्ष 2005-06 में मध्यप्रदेश शासन के वन्या प्रकाशन में बच्चों की मासिक पत्रिका समझ झरोखा में मानसेवी संपादक, यहीं देश के पहले जनजातीय समुदाय पर एकाग्र पाक्षिक आलेख सेवा वन्या संदर्भ का संयोजन। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी पत्रकारिता विवि वर्धा के साथ ही अनेक स्थानों पर लगातार अतिथि व्याख्यान। पत्रकारिता में साक्षात्कार विधा पर साक्षात्कार शीर्षक से पहली किताब मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी द्वारा वर्ष 1995 में पहला संस्करण एवं 2006 में द्वितीय संस्करण। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय से हिन्दी पत्रकारिता शोध परियोजना के अन्तर्गत फेलोशिप और बाद मे पुस्तकाकार में प्रकाशन। हॉल ही में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा संचालित आठ सामुदायिक रेडियो के राज्य समन्यक पद से मुक्त.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here