प्राचीन कालीन शैव अर्थात पाशुपत सम्प्रदाय

shaiv(जीव पशु एवं शिव हैं पति)

-अशोक “प्रवृद्ध”

प्राचीन काल में मूल शैव सम्प्रदाय पाशुपत सम्प्रदाय कहलाता था। वे शिव को ही कर्ता- धर्ता समझते थे। इस मत के मानने वाले शिव को पति मानते थे और जीव को पशु। शिवजी पशुओं के पति हैं ऐसा उनको विश्वास है। शिवजी ही उन्हें इस संसार के भयंकर बन्धनों से मुक्ति प्रदान करते हैं। जो उनकी कृपा से वंचित है, वह इस संसार के मोह से बंधा हुआ भटकता फिरता है। पाशुपत वैदिक, तांत्रिक और मिश्रित तीन प्रकार के होते हैं। महाभारत काल में शिव पूजा पाशुपत मत के नाम से प्रचलित था। योगाभ्यास और भस्म स्नान को आवश्यक एवं मोक्ष समझते मानते हैं। ये छः प्रकार की हास, गान, नर्तन,हुक्कार (बैल की भांति आवाज), साष्टांग प्रणिपात और जय किया करते हैं। शैवों के विश्वास के अनुसार जीवों के क्रमानुसार शिव फल देता है , पशु और क्षेत्रज्ञ जीव नित्य एवं अणु हैं। जब वह पापों से (माया के एक रूप से) छूट जाता है तो शिवरूप हो जाता है। कर्म और पाश माया ही हैं। जय और योग को पाशुपत मत वाले मानते हैं। इस सम्प्रदाय की दो शाखाएँ हैं- कापालिक और कालमुख। जो शिव अनुयायी भैरव एवं रूद्र की उपासना करते हैं, इनके छः चिह्न माला, भूषण , कुण्डल, रत्न, भस्म और उपवीत हैं। ये मनुष्य की खोपड़ी में खाते तथा श्मशान में भस्म अंग में लपेटते हैं। उसे ही खाते भी हैं। एक डंडा और शराब का प्याला पास में रखते हैं। और पात्र स्थित देवता की पूजा करते हैं। इन्हीं बातों को इस मत वाले पारलौकिक और एहलौकिक इच्छा- पूर्ति का साधन करते हैं।

पाशुपत मत में तप को विशेष स्थान प्राप्त है। इसके मानने वालों में कुछ वायु भक्षण कर जीवन निर्वाह करते थे, अन्य कुछ केवल जल पीकर रक्षा करते थे। कतिपय जप में ही लीन रहते थे तथा कोई योगाभ्यास में भगवत चिन्तन किया करते थे। इसके अतिरिक्त कुछ धूम्रपान किया करते थे , कोई उष्णता का सेवन करते थे , कोई दूध पीकर रहता था, कोई हाथों का उपयोग न कर कुता के समान मुंह से खाता –पीता था , कोई पत्थर पर अन्न कूटकर जीविका निर्वाह किया करता था। कोई सिर्फ चन्द्रकिरण पीकर संतुष्टि प्राप्त कर लेता था, कोई जल फेन खाकर, कोई पीपल के फल खाकर (आहार बनकर), अपना जीवन निर्वाह किया करता था। कोई पानी में पड़ा रहता था तो कोई एक पैर पर खड़ा रहकर और हाथ ऊपर उठाकर वेद पाठ किया करता था। पाशुपत मत के मामने वाले केवल शरीर को कठोर तप द्वारा साधकर मुक्ति प्राप्त करने में विश्वास रखते थे। इसलिए निम्न वर्ग के स्त्री- पुरूष बहुतायत की संख्या पाशुपत मत के अनुयायी बने। इस मत में सभी देवों में श्रेष्ठ और प्रमुख पशुपति माने जाते हैं क्योंकि वही सारी सृष्टि के रचयिता , पालनकर्ता और संहारकर्ता भी हैं। वेद- उपनिषदादि ग्रंथों मी परब्रह्म और रूद्र (शंकर) से तादात्म्य स्थापित करते हुए कहा गया है –

एको हि रुद्रो न द्वतीय तस्यु

अर्थात – यह जो अपनी स्वरूपभूत विविध शासन शक्तियों द्वारा इन सब लोकों पर शासन करता है वह रूद्र एक ही है।

फिर कहा है –

मायां तू प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तू महेश्वरम् ।

अर्थात- माया तो शक्तिरूपा प्रकृति को समझना चाहिए और शक्तिरूपा प्रकृति का अधिपति (मायापति) परब्रह्म परमात्मा महेश्वर को समझना चाहिए।

श्रीमद्भगवदगीता में रुद्राणां शंकरश्चास्मि कहा गया है। कालान्तर में जब शंकर की परमेश्वर के रूप में उपासना शुरू हुई तथा शंकर के इस स्वरुप का वैदिक रूद्र के साथ तादतम्य किया गया। यज्ञ सम्बन्धी वेद यजुर्वेद में रूद्र की विशेष स्तुति है। इसे क्षत्रियों का विशेष वेद कहा गया है। धनुर्वेद यजुर्वेद का उपांग है और श्वेताश्वेतर उपनिषद् कृष्ण यजुर्वेद है। प्राचीन क्षत्रिय युद्धादि क्रूर कर्म किया करते थे। कतिपय विद्वान् इससे अनुमान लगते हैं कि क्रूर देवता ही क्षत्रियों के अधिक प्रिय थे। इसी कारण यजुर्वेद में वर्णित रूद्र स्तुति के आधार पर लोगों में शंकर की भक्ति शुरू हुई। जिसे महाभारत में पाशुपत मत के नाम से उल्लेख किया गया है तथा जिसकी विष्णु से सम्बन्धित पांचरात्र मत के समान ही तत्व ज्ञान के लिए प्रधानता दी गई है।

महाभारत में सिर्फ एक शैव सम्प्रदाय – पाशुपत सम्प्रदाय का ही उल्लेख है। महाभारत शान्तिपर्व में पाशुपत मत के सन्दर्भ में कहा गया है कि दक्ष के यज्ञ में शंकर को हविर्भाग न मिलने के तथा सतीदाह की समाचार को सुनकर शंकर अत्यंत क्रोधित हुए। शंकर ने अपने क्रोध से वीरभद्र नामक गण की उत्पति की और उसके द्वारा दक्ष के यज्ञ का विध्वंस करा डाला। उसके बाद दक्ष के स्तुति से प्रसन्न होकर स्वयं शंकर जी अग्नि से प्रकट हुए तथा दक्ष ने उनकी स्तुति एक सौ आठ नामों से की। इसी अवसर पर प्रकट होकर शंकर ने दक्ष को पाशुपत व्रत बतलाया। यह पाशुपत मत सभी वर्णों तथा आश्रमों के लिए खुला है। यह मोक्षदायी भी है। वर्णाश्रम धर्मों से भी यह कुछ हद तक मिलता है। जो न्याय और नियम में प्रवीण हैं तथा चारों आश्रमों से परे हैं, उनके लिए भी यह लाभप्रद है और उन्हें यह मान्य होने योग्य है।

पाशुपत मत में पशुपति सभी देवों में प्रमुख हैं। वे सारी सृष्टि के उत्पन्नकर्ता हैं। इस मत में पशु का अर्थ है सारी सृष्टि। इसकी सगुण भक्ति के लिए कार्तिक स्वामी, पार्वती और नन्दीदेव भी सम्मिलित किये जाते हैं तथा उनकी भी पूजा विधिवत बतलाई गई है । शास्त्रों में शंकर की अष्टमूर्ति – पञ्चमहाभूत , सूर्य, चन्द्र और पुरूष कहा गया है। महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 14 में उपमन्यु के आख्यान में भी पाशुपत व्रत का विवरण अंकित है। वहाँ कहा है – भूलोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, महालोक, लोकालोक, मेरुपर्वत एवं अन्यत्र सभी स्थानों में शंकर ही व्याप्त हैं। यह देवता दिगम्बर, उर्ध्वरेता, मदन को जोतने वाला तथा श्मशान में क्रीड़ा करने वाला है। इसी से विद्या- अविद्या निकली और धर्म – अधर्म निकले। शंकर के भगलिंग से निर्गुण, चैतन्य और माया के सन्दर्भ में तथा इनके संयोग से सृष्टि की उत्पति की अनुमान लगाया जा सकता है। महादेव सारे जगत के आदिकारण हैं। सारा चराचर जगत उमा और शंकर के दोनों शरीरों में व्याप्त है। शंकर के स्वरुप का उपमन्यु को दर्शन होने पर शंकर के सगुण रूप का वर्णन करते हुए है, शुभ्र कैलाशाकर नन्दी पर शुभ्र देह सहित देदीप्यमान महादेव बैठे हैं। जिनके गले में जनेऊ, अठारह भुजाएँ तथा तीन नेत्र हैं। हाथ में पिनाक धनुष और पाशुपतास्त्र एवं त्रिशूल हैं तथा त्रिशूल में लिपटा हुआ सर्प है। एक हाथ में परशुराम का दिया हुआ परशु है। बायीं ओर गरुड़ पर शंख- चक्र गदाधारी नारायण विराजमान हैं। सामने मयूर पर हाथ में शक्ति एवं घंटी लिए स्कन्द बैठे हैं। महाभारत में शंकर के त्रिपुर दाह करने का विवरण भी अंकित है तथा उसके गुणों का बखान करते हुए कहा गया है कि, हे महादेव ! तेरे सात तत्वों यथा, महत् , अहंकार और पाँच तन्मात्राएँ और छः अंगों को यथार्थ जानकर तथा यह जानकार कि परमात्मा का अभिन्न स्वरुप सर्वत्र व्याप्त है, तेरा ध्यान करता है, वह तुझमें प्रविष्ट होकर सायुज्य मुक्ति को प्राप्त करता है।

महाभारत से स्पष्ट होता है कि पाशुपत शैव साधारण शैवों से भिन्न थे। साधारण शैवों के आचार- विचार ब्राह्मण धर्म के समान ही थे। महाभारत में पाशुपत सम्प्रदाय का उल्लेख हुआ है परन्तु इसके संस्थापक के विषय में उल्लेख मात्र भी नहीं है। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार एक लकुलिन अथवा नकुलिन ने लोगों को महेश्वर अथवा पाशुपत योग के बावत बतलाया था। पुराणों में इस लकुलिन को भगवान शिव का अवतार और श्रीकृष्ण का समकालीन कहा है। एक अभिलेख के अनुसार सर्वदर्शन संग्रह नामक ग्रन्थ में लकुलिन को पाशुपत सम्प्रदाय का संस्थापक माना गया है। सन् 971 ईस्वी के नागराज मन्दिर के शिलालेख तथा अन्य कई शिलालेखों से इसकी पुष्टि होती है। शिलालेख के अनुसार पहले भृगु को विष्णु ने शाप दिया। तब भृगु ने शिव की आराधना कर उन्हें प्रसन्न किया। इस पर शिव हाथ में लकुट (डंडा) लिए प्रकट हुए, इसी से वे लकुटिश कहलाये । इन्हीं को लकुलीश भी कहते हैं। वही इस सम्प्रदाय का मुख्य स्थान समझा जाता है। लकुलीश की कई मूर्तियाँ राजपूताना, गुजरात, काठियावाड़, दक्षिण (मैसूर तक), बंगाल, उड़ीसा में पाई जाती है। ये मूर्तियाँ द्विभुज होती हैं तथा इनके सिर पर जैन मूर्तियों के समान केश होते हैं। उनके दाहिने हाथ में बिजौरा और बायें हाथ में लकुट होता है। मूर्ति पद्मासन से बैठी होती है तथा उर्ध्वरेता होने का चिह्न स्वरूप उर्ध्व लिंग मूर्ति में बना रहता है। महाभारत में कापालिक वृति का भी उल्लेख हुआ है। कपाल रूप में शिव की पूजा रक्त और नरबली से की जाती थी। हुएनसांग ने भी एक सम्प्रदाय के अनुयायियों की संख्या काफी होने की बात कहते हुए उनके पाशुपत सन्यासी होने का जिक्र किया है। ये शिवमन्दिर में उपासना करते थे, मन्दिरों में निवास करते थे अथवा भ्रमण करते थे। ये अपने शरीर पर भस्म मले रहते थे। हुएनसांग ने इनको भस्मधारी कहा है। ये लिंग को अपने मस्तक पर धारण करते थे। कादम्बरी में अंकित है कि अमात्य शुकनाश से मिलने कुछ शैव मिलने आये थे और वे उस समय रक्तवर्ण के वस्त्र धारण किए हुए थे।

शिवपुराण वायवीय संहिता अध्याय 4-5 में वायुदेवता नैमिशारण्य ऋषियों को पशु एवं पशुपति के विवेचन करते हुए कहते हैं- वस्तु के विवेक का नाम ज्ञान है। वस्तु के तीन भेद – जड़ (प्रकृति), चेतन (जीव) और उन दोनों के नियन्ता परमेश्वर माने गये हैं। इन्हीं तीनों को क्रमशः पाश, पशु और पशुपति कहा जाता है। इन तीनों तत्वों को क्षर, अक्षर और उन दोनों से अतीत भी कहा गया है। अक्षर ही पशु कहा गया है। क्षर तत्व का नाम ही पाश है तथा  क्षर और अक्षर दोनों से परे जो परमात्व है, उसी को पति अथवा पशुपति कहते हैं। यहाँ प्रकृति को क्षर , पुरूष (जीव) को अक्षर और जो इन तत्वों को प्रेरित करता है, वह क्षर और अक्षर दोनों से भिन्न तत्व परमेश्वर कहा गया है। माया प्रकृति है, पुरुष (जीव) उस माया से आवृत है। मन एवं कर्म के द्वारा प्रकृति का पुरुष से सम्बन्ध होता है। शिव ही इन दोनों के प्रेरक ईश्वर हैं। माया को महेश्वर की शक्ति कहा गया है। चित्वस्वरुप जीव उस माया से आवृत है। चेतन जीव को आच्छादित करने वाला अज्ञानमाय पाश ही मल कहलाता है। उससे शुद्ध हो जाने पर जीव स्वतः शिव हो जाता है। वह विशुद्ध ही शिवतत्व है। इसी प्रकार शिवपुराण वायवीय संहिता अध्याय 33 में पाशुपत व्रत की महिमा , विधि तथा भस्म धारण की महता बतलाई गई है। वायवीय संहिता अध्याय 2 में धौम्य के बड़े भाई उपमन्यु द्वारा श्रीकृष्ण को पाशुपत मत का उपदेश दिया गया है। ब्रह्मा सहित संसार के समस्त चराचर प्राणी शिव के पशु कहलाते हैं और उनके पति होने के कारण देवेश्वर शिव को पशुपति कहा गया है। पशुपति अपने पशुओं को मल और मायादि से बांधते हैं तथा भक्तिपूर्वक उनके द्वारा आराधित होने पर वे स्वयं ही उनको पाशों से मुक्त कर देते हैं।

 

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अशोक “प्रवृद्ध”
बाल्यकाल से ही अवकाश के समय अपने पितामह और उनके विद्वान मित्रों को वाल्मीकिय रामायण , महाभारत, पुराण, इतिहासादि ग्रन्थों को पढ़ कर सुनाने के क्रम में पुरातन धार्मिक-आध्यात्मिक, ऐतिहासिक, राजनीतिक विषयों के अध्ययन- मनन के प्रति मन में लगी लगन वैदिक ग्रन्थों के अध्ययन-मनन-चिन्तन तक ले गई और इस लगन और ईच्छा की पूर्ति हेतु आज भी पुरातन ग्रन्थों, पुरातात्विक स्थलों का अध्ययन , अनुसन्धान व लेखन शौक और कार्य दोनों । शाश्वत्त सत्य अर्थात चिरन्तन सनातन सत्य के अध्ययन व अनुसंधान हेतु निरन्तर रत्त रहकर कई पत्र-पत्रिकाओं , इलेक्ट्रोनिक व अन्तर्जाल संचार माध्यमों के लिए संस्कृत, हिन्दी, नागपुरी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ में स्वतंत्र लेखन ।

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