कुम्भ : परंपरा, इतिहास एंव वर्तमान

विकास सिंघल

कुम्भ शब्द का अर्थ ही होता है अमृत का घड़ा यानि ज्ञान का घड़ा और कुम्भ प्रथा से स्पष्ट अभिप्राय है , ज्ञान के घड़े का सदुपयोग. हमारा राष्ट्र भारत आदिकाल से ही संतो, ऋषियों और मुनियों की धरती रही है. इस देश की धरती ने कालिदास जैसे मूर्खो को भी ज्ञानी बनाया है. भारत राष्ट्र पूरे विशव को अज्ञानता रूपी अंधकार से ज्ञानरुपी प्रकाश की और ला रहा है . जिससे विश्व गुरू से भी यह राष्ट्र विभूषित हुआ है. जिस समय यूरोप के लोग जंगलो में निर्वस्त्र भ्रमण करते हुए कच्चा मास खाते थे. उस समय इस देश में गंगा सिन्धु के तटों पर बच्चे बच्चे वेद पुरानो को कंटस्थ करते थे. कुम्भ प्रथा भी इसी श्रृंखला की एक कड़ी है.

स्कंध पुराण और रुद्रयामल तंत्र और अन्य अनेक ग्रंथो में वर्णित है की किसी समय देश के 12 स्थानों पर कुम्भ का आयोजन होता था. वैदिक युग में सिमरिया (बिहार), गुवाहाटी (असम), कुरुक्षेत्र (हरियाणा), पूरी (ओडिशा), गंगा सागर (बंगाल), द्वारिका (गुजरात), कुम्भ्कोनाम (तमिलनाडु), रामेश्वरम (तमिलनाडु), हरिद्वार (उत्तराखंड), प्रयाग (उत्तर प्रदेश), उज्जैन (मध्य प्रदेश), नासिक (महाराष्ट्र) लेकिन दुःख के साथ ये कहना पड़ता है की नियति के चक्र, विदेशी कुचक्रो और इन सबसे ऊपर परंपरा के प्रति भारतीयों की उदासीनता के कारण देश के सबसे बड़े इन आयाजनो में से मात्र चार (हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन एंव नासिक) को ही हम बचा पाए और 8 स्थानों पर लगने वाले कुम्भ पर्वो का लोप हो गया.

वैसे मूल संकल्पना की बात करें तो ज्योतिश में कुम्भ एक योग है. जिसमे खगोलीय रूप से जब सूर्य, चंद्रमा और ब्रहस्पति एक राशी में आते है तो कुम्भ योग बनता है, दरअसल मानव जीवन पर इन दोनों ग्रहों और चंद्रमा का विशेष प्रभाव बन गया है. और इस विशेष खगोलीय अवशता में गंगा में स्नान का महत्व 12 साल के स्नान के बराबर मन गया है. इन्ही बातो के आधार पर प्रत्येक वर्ष के 12 मास में भारत की एकता और अखंडता को ध्यान में रखते हुए देश के 12 स्थानों पर नदियों के किनारे कुम्भ का संकल्प लिया गया. वर्ष के 12 मास में, 12 राशियाँ जिनमे से प्रत्येक 12 वर्ष पर ब्रहस्पति का शुभागमन होने से 12 -12 साल के बाद महाकुम्भ का आयोजन होने लगा. इस हिसाब से एक स्थान पर 12 साल के बाद महाकुम्भ का योग होने लगा और हर साल कहीं न कहीं महाकुम्भ का योग बनता रहा. 12 मास में एक कार्तिक मास भी है जिसमे तुला संक्रांति में ब्रहस्पति का योग होने से महाकुम्भ उद्घोषित हुआ.

भारत अगर आज कश्मीर से ले कर कन्याकुमारी और गुजरात से ले कर गुवाहाटी तक एक राष्ट्र है तो ये किसी राजनितिक एंव प्रशासनिक व्यवस्था के कारण नहीं बल्कि इस देश की धर्म प्राण संस्कृति के कारण है. इतिहास में भी सैकड़ो राजाओ के होते हुए भी ये एक ही राष्ट्र था. इस धर्म प्राण देश की तासीर को समझने वाले कहते है की कुम्भपर्व की परंपरा का लोप होना भारत की सबसे बड़ी हानी है. सिर्फ यही नहीं देश के अन्दर और बहार के प्रत्यक्ष और परोक्ष कई आघातों ने धर्म से जुड़े हमारे मूल्यों और परम्परो को प्रभावित करने की कोशिशे की और किसी रूप में ये आज भी जरी है. पर इतिहास साक्षी है की इस धर्म ध्वजा को उखाड़ने की कोशिशो को हर बार नाकामी ही मिली है .

समय चक्र के साथ बदलाव नियति का अभिन्न हिस्सा रहा है और परम्पराएं इससे अछूती नहीं रह सकती. कुम्भ पर्व के साथ भी ऐसा ही हुआ. कई कारणों से कालान्तर में सिर्फ चार स्थानों पर ही कुम्भपर्व बचा रह पाया और बाकि जगहों पर या तो इसका लोप हो गया या फिर परम्पराव में परिवर्तन हो गया .

वर्तमान में चार कुम्भो के बाद सबसे सटीक कुम्भ परंपरा कहीं पर बची है तो वो तमिलनाडु के कुम्भ्कोनम में विदमान है. जैसा की नाम से ही ज्ञान पड़ता है की कुम्भ के कारण ही इस जगह का नाम कुम्भ्कोनम पड़ा. कुम्भ्कोनम में आयोजित होने वाले कुम्भ को महामहम कहा जाता है. इसे दक्षिण भारत का कुम्भ भी कहा जाता है. अंतिम महामहम कुम्भ का आयोजन मार्च 2004 में हुआ था तथा अगले कुम्भ का आयोजन 2016 में होने वाला है.

महामहम कुम्भ का निर्धारण भी मुख्य चारो कुम्भो की तरह खगोलीय घटनाओ के आधार पर ही होता है. महामहम पर्व के दौरान लाखो हिन्दू कुम्भाकोनम में आते है. इस पर्व की शुरुआत पवित्र महामहम कुंड में नहाने से शुरू होती है. जिसके पश्चात् तीर्थयात्री पवित्र कावेरी के घाटों पर जा कर उसमे डुबकी लगाते है. इस पर्व के दौरान कुम्भाकोनम के प्राचीन मंदिरों से देवताओ की पालकियो को निकाला जाता है. एवं पूरी की रथयात्रा की तर्ज पर एक विशाल रथयात्रा यहाँ भी निकली जाती है. धार्मिक ग्रंथो में कुम्भाकोनम को काशी से भी पवित्र बताया गया है. स्थानीय लोक मान्यताओ के अनुसार का