क्या वृद्धाश्रम में हमारे बुजुर्ग खुश रहते हैं?

वृद्धाश्रम
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वृद्धाश्रम

जगदीश वर्मा ‘समन्दर’

पिछले बरस, अपने पैरों पर खड़ी एक नामी अभिनेत्री ने वृन्दावन के आश्रय सदनों में वृद्ध माताओं की भीड़ पर कहा था कि ‘ये घर छोड़कर यहाँ आती ही क्यूँ हैं ?’ उनके इस बयान पर काफी हो-हल्ला मचा । विपक्षी पार्टियों से लेकर आधुनिक समाजसेवी तबके तक से उनके विरोध में आवाजे आयीं । इन आवाजों के बीच उन बंगाली विधवाओं ने भी अपनी बात कही जिनके बारे में वो खुद और लोग कहते हैं कि भगवान की भक्ति के लिये वह वृन्दावन आकर आश्रय सदनों में रहती हैं । सबकी अपनी-अपनी कहानी है , बहुत सारी बातें हैं जिन्हें सोचकर सिवाय आॅंसुओं के उन्हें कुछ मिलता भी नहीं है । इसलिये सबकुछ भगवान के नाम छोड़कर भगवान के धाम में भक्ति का आश्रय ले रखा है । अकेली जान की गुजर बसर जैसे-तैसे हो ही जाती है । सरकार से मदद मिलती है तो समाजसेवी संस्थाओं से भी कुछ ना कुछ दान मिलता रहता है ।

इनमें से अधिकांश मातायें भजन-पूजा के बाद समूह में मथुरा-वृन्दावन की गलियों में भिक्षाटन के लिये निकलती हैं । 25-50 पैसे भले ही चलन से बाहर हो गये हों लेकिन आज भी ऐसी ‘माई’ के लिये दुकानों पर इन्हें बचाकर रखा जाता है । अगर दुकानदार ने एक रूपया देकर कह दिया कि तीनों आपस में बांट लेना तो बड़ी ईमानदारी से उस एक रूपये के तीन हिस्से हो जाते हैं । एक माई प्रसन्नता से कहती है कि शाम तक बीस-तीस रूपये हो जाते हैं । लोग जानते हैं कि इस तेज दुनियाँ में बीस-तीस रूपये का होना और ना होना एक बराबर है । एकबारगी लगता है कि इन्हें भीख मांगने की आवश्यकता भी क्यूँ है । जिन्दगी की जरूरतों का इन्तजाम बड़े आराम से तो हो जाता है । बुढ़ापे में और चाहिये भी क्या ? हालांकि इन माताओं के पास इसके अपने जवाब हैं । इनमें से एक जवाब था कि ‘समय काटने और शरीर चलते रहने के लिये भीख मांगने जाना जरूरी लगता है ।’ वैसे उन्हें इस बुढ़ापे में कुछ नहीं चाहिये ।

लेकिन क्या वास्तव में बुढ़ापे में और कुछ नहीं चाहिये । क्या वृद्धावस्था में रहने-खाने की जरूरतें पूरी होना ही बहुत है । क्या भगवान की भक्ति के लिये विधवा महिलायें और वृद्ध पुरूश अपने नाती-पोते, बेटा-बेटी और परिवार को छोड़कर घर से दूर रहने चले आते हैं? क्या वृन्दावन में सड़क किनारे मिलने वाले भिखारियों का कोई परिवार नहीं होता । होता होगा शायद! वृन्दावन की बात छोड़ दें, बड़े शहरों में रोज बन रहे वृद्धाश्रमों में सम्पन्न बुजुर्ग महिला और पुरूषों की भीड़ क्यूँ बढ़ती दिखती है । क्या वे भी प्रभु की भक्ति करने जाते हैं? क्या वास्तव में बुजुर्ग हो जाने पर व्यक्ति को परिवार की जरूरत नहीं रह जाती । या फिर वे राजाओं की तरह सन्यास आश्रम का पालन करने के लिये घर छोड़ देते हैं ।

लोग पूछते हैं, आप भी पूछ लीजियेगा, वैसे वो आसानी से बतायगें नहीं । पर सावधान रहियेगा, अगर उन्हें आपकी बातों में अपनेपन की गन्ध आ गयी या फिर आपके चेहरे पर उन बूढ़ी आखों को अपने बेटा या बेटी की परछांयी दिख गयी तो आप उस बूढ़ी काया के दर्द को सहन नहीं कर पायगें । सूख चुके आसुओं से चिपकी आखों में आपको उस अम्मा या बाबा का पूरा परिवार दिखायी देगा । वो बतायगें आपको कि उन्हें असली ‘कन्हैया’ उनके पोता या पोती में दिखता है जिसे वो रोज अपनी गोद में खिलाना चाहते हैं । उनका मन भक्ति से ज्यादा अपने बेटे की चिंता में लगता है । घर से दूर वे बिल्कुल खुश नहीं हैं । वो अपने पूरे परिवार को बहुत याद करते हैं । बस, परिवार ने उन्हें याद नहीं रखा है।

परिवार से दूर रहना कोई आसान काम नहीं है भाईसाहब, प्रत्येक व्यक्ति अपना आखिरी वक्त अपने परिवार को देखते हुये काटना चाहता है । वृन्दावन जैसे तीर्थस्थलों में अज्ञात भिखारियों की मृत्यु भगवान की गोद से ज्यादा इस बात को दशार्ती है कि उस वृद्ध या वृद्धा को उसके बेटे का कन्धा मयस्सर नहीं हुआ जिसके पालन-पोषण में उसने अपनी जवानी के दिन-रात एक कर दिये थे ।

जीवन के अन्तिम पढ़ाव में साथी छूटने का गम कितना बड़ा होता है इस बारे में वे लोग ही बता सकते हैं जो इस स्थिति में हैं । चाहे पति हो या पत्नि, एकांकी जीवन बहुत कठिन होता है । तब जीने का एकमात्र सहारा उसके बच्चे होते हैं । टूटे हुये इंसान के दिल पर क्या बीतती होगी जब उसके अपने खून के कतरे उसके साथ अन्जानों जैसा व्यवहार कर जाते हैं । अपने दिल की छोटी सी बात अपने जीवन साथी को बता देने वाला बुजुर्ग, उन बच्चों के तीखे तानों और गैरपन के अहसास को दिल के किस कोने में छुपाता है, कैसे छुपाता है यह वह खुद भी जान नहीं पाता । अपने बच्चों पर अपना अधिकार समझ डांट देने वाले माता-पिता को जब जवाब मिलना शुरू हो जाता है तब उसका स्वाभिमान क्षार-क्षार हो जाता हो जाता होगा । बूढ़ी मातायें यूं ही नहीं वृन्दावन जैसी जगहों पर चली आतीं, कोई बुलाता नहीं है यहाँ । आश्रय सदनों में रहकर भी वे इन्तजार करती रहती हैं कि उनके घर से कोई उनको ससम्मान बुलाने आ जाये कि उन्हें अपनी माँ की जरूरत है । पर दुखद है कि आज की औलाद ‘माँ-बाप’ की इज्जत तब तक ही करती है जब तक कि उनसे कुछ प्राप्ति होती रहे ।

 

दुनियाँ की दौड़ में आगे निकलने की होड़ लगा रहे युवा पता नहीं क्यूँ इतने पत्थरदिल हो जाते हैं कि वे उन्हें भूल जाते हैं जिन्होने उसे दो कदम चलने के काबिल बनाया था । किसी ने कहा था कि वृद्धाश्रम बनाये ही क्यूंॅ जाते हैं? हकीकत में वृद्धाश्रम का बनना उस समाज के मुंह पर तमाचा है जो इंसानियत और संस्कारों की जिम्मेदारी लेता है । ‘औल्ड एज होम्स’ में रहने वाले बुजुर्गों का भी परिवार होता है, उनके होनहार बेटे ऐसे वृद्धाश्रम के खर्चे तो उठा सकते हैं लेकिन उनसे अपने माँ-बाप का बुढ़ापा सहन नहीं होता । लोग भले ही बेटों को इस स्थिति के लिये दोष दें लेकिन हकीकत में बुजुर्गों की इस बेकदरी के लिये वो बेटियां भी कम दोषी नहीं जो उनके बेटों की हमसफर होती हैं ।

सवाल ये है कि हम किस दिशा में जा रहे हैं । क्या बड़े होते-होते हमारी मानवीय संवेदनाये इतनी गिर जाती हैं कि हम अपने माता-पिता के बुढ़ापे का सहारा भी नहीं बन सकते? उनकी खिन्नता, चिड़चिड़ाहट, कम सुनना, देर से समझना जैसी शारीरिक अक्षमतायें क्या वाकई हमें इतना क्रूर बना देती हैं कि हमें वे एक बोझ लगने लगते हैं ? क्या वास्तव में वृद्धाश्रमों में रहने वाले हमारे माता-पिता हमसे दूर रहकर ज्यादा खुश रहते हैं ? क्या हमारे बच्चों पर उनका अधिकार नहीं है, क्या हम पर उनका कोई अधिकार नहीं है? क्या वे हमें छोड़ना चाहते हैं, क्या हम बूढ़े ना होगें ?

नहीं, ऐसा नहीं है । यकीन मानिये हमारे माता-पिता चाहें कितने भी भगवान के बड़े भक्त हो जायें लेकिन फिर भी वे हमें छोड़कर जाना नहीं चाहते । उन्हें सबसे ज्यादा खुशी अपने बच्चों के साथ रहने में मिलती है । शरीर हमारा भी बदलेगा, आज चल रहा है, समय गुजरेगा तो वही सारी अक्षमतायें हमारें शरीर में भी आयगीं । यह निश्चित है, तब फिर क्यूँ ना हम उन्हें अपने सीने से लगाकर रखें । हमारे माता-पिता हमारा अभिमान होने चाहियें, उनकी डाॅंट में भी हमारा सम्मान है । उनकी खिसियाहट में भी हमारा भला है । उनके त्याग का इससे बड़ा सबूत और क्या होगा कि हमारी खुशी के लिये ही वे वृद्धाश्रम जैसी उस अन्जान जगह चले जाते हैं जिसके बारे में उन्होनें कभी सोचा भी ना था । फिर भी वृद्धाश्रम में रहने वाले फरिष्तों की पीड़ा ना समझ पाये हों तो बस इतना महसूस करके देख लीजियेगा कि आप अभी अपने बच्चों को इस स्वार्थी दुनियां में छोड़कर जाने में कितना खुश होगें ………………….

‘‘इस दिशा में यू.पी. की अखिलेष सरकार की एक नयी योजना बहुत लाभकारी हो सकती है । सरकार की योजना है कि आगे अनाथआश्रम और वृद्धाश्रम एक साथ बनायें जायेगें । जिससे कि अनाथ बालकों को बुजुर्गों से ममता-दुलार मिल सके और वृद्धों को कोई अपना मानने-कहने वाला मिल जाये । निश्चित ही इस पहल से निराश्रित वृद्धों के जीवन में भी कुछ खुशियाँ लौट सकेगीं ।’’

4 COMMENTS

  1. बहुत अच्छा लेख एवं अच्छा प्रयास ! जगदीश वर्मा जी ‘ समन्दर ‘से निवेदन है की आप अपना मोबाइल नम्बर और पोस्टल एड्रेस दीजिए । आपको अपनी संस्था की पत्रिका ‘ अश्वमेध यज्ञ वैचारिक आत्ममंथन क्रान्ति ‘ भेजूंगा भविष्य में समाज सेवा और देश सेवा के लिए मिलकर कार्य करेंगे । धन्यवाद ! ओम प्रकाश वर्मा मो 9761062366

    • thanks omprkash ji…. My mobile number is… 9319903380..
      Add. – Jagdish Verma, Metro Media, 2 Shivpuri, Maholi Road, Mathura. Pin 281001

  2. वृद्धाश्रम की संस्कृति हमारी संस्कृति नहीं है. यह तो पश्चिमी देन है. हमारी संस्कृति तो यह है की माता-पिटा दादा दादी हमारे साथ परिवार में रहे, सम्मानपूर्वक रहे. जो यह भूल रहे है उन्हें याद कराने की जरूरत है.

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