आगमनी

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गंगानन्द झा

parvatiपूर्वी भारत में मान्यता है कि दुर्गापूजा के अवसर पर उमा एक साल बाद कैलास से अपने पिता गिरिराज हिमालय के घर चार दिनों के लिए आती हैँ। सप्तमी को उनका आगमन और दशमी को विदाई होती है। ये चार दिन आध्यात्मिक विभोरावस्था के साथ साथ भावनात्मक आत्मीयता के परिवेश के होते हैं।

         आगमनी गीतों में इस पूरी अवधि को समेटा गया है।

प्रान्तर में सफेद कास एवम् शिउली फूलों एवम् आसमान में सफेद मेघ से शरत काल के आगमन की सूचना होते ही कैलास में गिरिराज की पत्नी मयना का मन अपनी पुत्री उमा के लिए व्याकुल हो उठता है। वे  गिरिराज से निवेदन करती हैं, “ एक साल बीत गया। उमा को कोई समाचार नहीं है। श्मसान में भूत-प्रेत के बीच भिखमंगे महादेव के साथ मेरी बेटी किस तरह रह रही है, मन व्याकुल रहता है। तुम कैसे पिता हो? अभी कैलास जाकर उमा को लिवा लाओ। अब उमा आएगी तो उसे नहीं जाने दूँगी । शिव को घर जमाई बनाकर यहीं पर स्थापित कर लूँगी।“

गिरिराज के कैलास के लिए रवाना होने के बाद मयना की प्रतीक्षा प्रारम्भ होती है। वे नगरवासियों का आह्वान करती हैं, “ नगरवासियो, उमा आ रही है। तोरणद्वार सजाओ, मंगलघट  स्थापित करो। उमा आ रही है।“

फिर सप्तमी तिथि को उमा आती है, माँ बेटी को देखकर विह्वल हो जाती हैं। उमा को “ओमा, ओमा”  कहते कहते आनन्द विभोर होती रहती हैं। नगरवासी मिलकर मंगलगीत गाते हैं। पूरा नगर उत्सव में डूब जाता है।

अष्टमी तिथि उल्लास से भरी होती है. कहीं कोई अभाव नहीं है, कोई विषाद नहीं है।। मां आई है, सारा परिवेश उत्सव मुखरित है। गीत-संगीत वातावरण में गूँज रहे हैं।

अष्टमी की रात के बीतने की सूचना होते ही नवमी की दस्तक सुनाई पड़ती है। मयना आशंका से आतंकित हो जाती है, “ कल उमा चली जाएगी! काल देवता से प्रार्थना करती हैं, नवमी की रात तुम नहीं बीतना।”

फिर दशमी की ध्वनि सुनाई पड़ती है। मयना को दूर से आती हुई डमरु की आवाज सुनाई पड़ती है। प्रहरियों को पुकार कर कहने लगती हैं. “ गौरी को लिवा जाने के लिए भोलानाथ आ रहे हैं, डमरु की आवाज निकट से निकटतर होती जा रही है। जाओ, तुम लोग उन्हें रोक दो, मैं उमा को नहीं जाने दूँगी। तीन दिन तो रुकी है मेरे पास । अब वह मेरे ही पास रहेगी।  “

गौरी माँ को सँभालती है। कहती हैं, “बेटी को तो पतिगृ ह में ही रहना होता है। तुम अपनी ओर भी देखो। तुम भी तो किसीकी बेटी हो। मैं तो फिर भी  साल में एक बार आती हूँ , तीन दिन तुमलोगों के साथ रहती भी हूँ.। “

बेटी की बातें सुनकर माँ और नगरवासी अभिमान से भर उठते हैं, उसकी भर्त्सना करते हुए “दुर् गा, दुर् गा“ कहते हैं।  गिरिपत्नी कहती हैं, “ श्मसानवासी वैरागी शिवपत्नी होकर तुम भी वैरागी हो गई हो।“  गौरी जवाब देती है कि “ मैं पाषाण पुत्री पाषाणी हूँ, शिव को क्यों दोष देती हो।“

अन्ततोगत्वा मान अभिमान का दौर थमता है, बेटी फिर से उमा हो जाती है, “ओ मा ,उमा” से वातावरण मुखरित हो जाता है। नगरवासी मयना के साथ अश्रुपूरित नेत्रों से विदा करते हैं. “आसछे बछर आबार एशो।“

पुनश्चः  देवघर में वैवाहिक सम्बन्धों के स्थानीय रहने के कारण इस विम्ब का प्रतिफलन दशमी की सुबह  बेटियों के मायके आने और शाम को पतिगृह लौट जाने में दिखता है। दशमी को दामाद लोग ससुराल में निमंत्रित रहा करते हैं।

 

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