मुरारी गुप्ता
भारत सरकार ने स्वामी विवेकानंद की एक सौ पचासवीं जयंती को राष्ट्रीय स्तर पर मनाने का फैसला किया है। विवेकानंद की जयंती का अर्थ महज आयोजन या उत्सव की औपचारिकता नहीं है। इसका अर्थ है युवाओं का उत्सव। युवाओं के सुप्त विचारों में अग्नि के तेज सी उत्तेजना पैदा करने का उत्सव। मानसिक दरिद्रता से छुटकारा पाने का उत्सव। राष्ट्र को विश्वगुरू यानी ताकतवर बनाने का संकल्प लेने का उत्सव। क्या हम भारतीय युवा स्वामीजी के उन बहुतेरे स्वप्नों में से कुछ स्वप्नों में अपनी चरित्र भूमिका निभा सकते हैं। क्या हम भारतीय युवा अपने जीवन की वास्तविक भूमिका निभाने के लिए तैयार हैं। हर सवाल अपना जबाव मांगता है।
इसमें कोई शक नहीं है कि युवाओं में अतुल बल है। उनके सोचने और विचारने की क्षमता असीमित है। और पिछले कई सालों से तो हिंदुस्तानी युवा ने पूरी दुनिया में अपनी क्षमता का लोहा मनवाया ही है। स्वामीजी युवाओं के मस्तिष्क को चारों दिशाओं में खुला रखने के पक्षधर थे, मगर किसी ऐसे विचार का संक्रमण जो हमारी मनःशक्ति को हीन कर दे, निश्चित रूप से उन्हें पसंद न था। इसकी वजह ये कि वे भारतीय मनीषा को दुर्बलता से कोसों दूर ले जाना चाहते थे। इन तथ्यों का उन्हें उस वक्त भी आभास था, जब पश्चिम की अपसंस्कृति का प्रचार-प्रसार करने के लिए आज की तरह प्रचार माध्यम नहीं थे। षढयंत्रकारियों के पास ज्यादा हथियार नहीं थे।
स्वामीजी पश्चिम के विरोधी थे, ऐसा तो बिलकुल नहीं है। वे उनकी उद्योगशीलता के कायल थे। मगर क्या आज के हालात में वे भारतीय युवाओं को पश्चिम की अपसंस्कृति के अंधानुकरण को उचित मानते। ये बड़ा सवाल है। हम स्वामीजी के युवा क्या पश्चिम से आयातित अपसंस्कृति के खिलाफ उठकर लड़ने का माद्दा नहीं रखते। पश्चिम के कथित प्रेम दिवस के पीछे का षड्यंत्र कहीं न कहीं भारत की पुरातन सामाजिक ढांचे को तोड़ने की एक गहरी साजिश जैसा प्रतीत होता है। डा. भीमराम अंबेडकर ने ईसाई मिशनरियों के मतांतरण के संदर्भ में कहा था कि मतांतरण का अर्थ सिर्फ एक धर्म से दूसरा धर्म अपनाना ही नहीं है, बल्कि यह राष्ट्रांतरण है। बिलकुल वैसे ही आयातित और विध्वंशकारी कथित आधुनिकता भारत के सामाजिक ताने-बाने में अपना जाल बुन सकती है। शुरुआत में भले ही ये हानीकारक प्रतीत नहीं हो, मगर समाज की रीढ़ के अवचेतन मन में धीरे-धीरे जमा इसके तत्व तो अपना प्रभाव छोड़ेंगे ही। आज नहीं तो कल।
फिलहाल भले ही समाज के कथित बुद्धिजीवी ये कहकर इन बातों पर ज्यादा चर्चा नहीं करे कि हम किसी को रोक तो नहीं सकते, या फिर हर किसी को आजादी है या फिर इस तरह की दकियानूसी बातों का कोई मतलब नहीं। मगर जब वक्त बहुत बीत चुका होगा, आने वाली पीढ़ियां हमसे अपनी विरासत का हिसाब मांगेगी, तो उन्हें क्या कहकर संतुष्ट करिएगा।
व्यवसाय की होड़ ने मीडिया की नैतिकता का गला घोंट दिया है। उसकी आत्मा को लालच की जीभ ने लपेट रखा है। हालांकि उसकी स्याही अभी सूखी नहीं है। रंग जरूर फीका पड़ गया है। पत्रकारिता में काम कर रहा युवा खून चाहे तो हालात बदल सकता है। वे चाहे तो समृद्ध सनातन समाज के उन्नत नैतिक मूल्यों में अपनी स्याही की आहूति दे सकते हैं। जरूरत, नौका की दिशा बदलने की है, किनारे खुद-ब-खुद नजदीक आ जाएंगे।
कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां और कुछ अंतरराष्ट्रीय वित्त पोषित कथित सेवा संगठन अलग-अलग और शांत तरीकों से राष्ट्र के सामाजिक ढांचे को छिन्न-भिन्न करने में जुटे हैं। उन संगठनों पर अंगुली उठाना कोई आसान बात नहीं है। भ्रष्टाचार प्रशासनिक गलियों और कूंचों में गंदगी की तरह फैला-पसरा पड़ा है। राजनीति में नीति को संभालने के लिए कोई तैयार नहीं है। भारतीय समाज की धमनियों में धड़कते नैतिकता के रक्त की राहें पाश्चात्य की गंदगी ने रोक ली है। इन तमाम नकारात्मक तथ्यों के बावजूद भारतीय युवा का अग्नितेज अभी शांत नहीं हुआ है। उसके तेज में परशुराम के फरसे जैसी धार और योगेश्वर कृष्ण के सुदर्शन चक्र जैसी तीव्रता अभी जिंदा है। भले ही वक्त की रेत ने उसे ढांप दिया हो।
देश के बहुत से युवा और युवा संगठन इस दिशा में बहुत सकारात्मक ढंग से काम भी कर रहे हैं। गौरवमय अतीत की नींव पर वे वर्तमान और भविष्य के उन्नत भवन खड़ा करने में जुटे हैं। इसलिए निराश होने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। भारत जैसे सनातन राष्ट्र का जीवन कोई पचास-सौ वर्षों का होता नहीं है। यह सनातन राष्ट्र है। इसलिए किसी के लिए ये कल्पना करना कि कुछ षढयंत्रों या सांस्कृतिक प्रदूषण से इस राष्ट्र की आत्मा दूषित हो जाएगी, एकदम बेमानी है। हर युग की तरह इस युग में भी राष्ट्र के इस भार को युवाओं के कंधों की जरूरत है। स्वामीजी भी तो मजबूत स्नायु और लोहे जैसी मांसपेशियों वाले भारतीय युवा की कल्पना करते थे।
भारत को परम वैभव पर पहुंचाने के लिए विवेकानंद ने युवाओं के माध्यम से सपने देखे थे। क्या उनके सपनों को वर्तमान युवा के आंखों में बसाने और उन्हें साकार करने का वक्त नहीं आ गया है। कई शहरों, कस्बों, गांवों और स्कूल तथा महाविद्यालयों में विभिन्न युवा संघ किशोर और युवा पीढ़ी को सही दिशा देने के लिए विभिन्न रचनात्मक कार्य कर रहे हैं। क्या हम उन्हें अपना नैतिक, लैखिक, पारिश्रमिक और वैचारिक सहयोग नहीं दे सकते। विचार हमें करना है। क्योंकि आने वाली पीढ़ियों को जबाव भी हमें ही देना होगा।
(लेखक आकाशवाणी, ईटानगर में समाचार संपादक हैं)