प्रमोद भार्गव
भारतीय अर्थव्यवस्था के दो चेहरे सामने आए हैं। इनमें पूर्व वित्तमंत्री यशवंत सिन्हा द्वारा जो तस्वीर पेश की गई है, वह नरेद्र मोदी सरकार के पिछले 40 माह के दौरान अर्थव्यवस्था सुधारने की दृष्टि से जो निर्णय लिए गए हैं, उनके परिणामस्वरूप यह तस्वीर धंुधली है। सिन्हा ने आर्थिक सुधार के कथित हालातों की यह बानगी एक अंग्रेजी अखबार में लिखे लेख में प्रस्तुत की है। इसी तस्वीर का उज्ज्वल पक्ष उनके पुत्र एवं नागरिक विमानन राज्य मंत्री जयंत सिन्हा ने प्रस्तुत की है। जयंत मोदी सरकार में पहले वित्त राज्यमंत्री भी रह चुके हैं। इस कारण यह अंदाजा लगाना सहज है कि उन्हें वर्तमान अर्थव्यवस्था और उससे उपजे आर्थिक हालात का यथार्त ज्ञान होगा ही। हालांकि उन पर यह आरोप है कि उनसे यह लेख पार्टी ने दबाव डालकर लिखाया है। बहरहाल पिता-पुत्र के इस अंदरूनी द्वंद्व रूपी आग में घी डालने का काम पूर्व वित्तमंत्री पी. चिदंबरम, भाजपा सांसद शत्रुधन सिन्हा और शिवसेना ने कर दिया है। इनका दावा है कि यशवंत ने सरकार को आईना दिखाने का काम किया है, इसलिए सरकार को पार्टी के भीतर से ही उठी इस आवाज को संजीदगी से लेने की जरूरत है। इसके उलट वित्तमंत्री अरुण जेटली ने आज यशवंत सिन्हा की महत्वाकांक्षा पर कटाक्ष करते हुए कहा है कि ‘उन्हें 80 साल की उम्र में भी नौकरी चाहिए।‘ जेटली का यह बयान भाजपा मार्गदर्शन मंडल से जुड़े नेताओं को भड़काने का काम कर सकता है ? लिहाजा जेटली को नरमाई से पेश आना चाहिए।
इसमें कोई दो राय नहीं कि किसी भी पक्ष के दो पहलू होते हैं। इन्हें देखने का दृष्टिकोण भी भिन्न होता है। जेटली और जयंत कुछ भी दावें करें, किंतु यह ठोस हकीकत है कि आर्थिक सुधारों के बहाने जो नोटबंदी और डिजीटल पेमेंट के उपाय किए गए हैं, उनसे लघु और मध्यम उद्योग एवं निम्न व मध्यवर्गीय आय से जुड़े लोग प्रभावित हुए हैं। स्थानीय स्तर पर दैनिक रोजगारों में भी कमी आई है। हालांकि इन उपायों को एक साथ जिस सख्ती के साथ लागू किया गया है, उसके तहत जीडीपी में गिरावट लाजमी थी। इसी समय कालेधन और बेनामी संपत्ति पर अंकुश लगाने के जो नए कानून लागू हुए हैं, उनसे अवारा पूंजी बाधित हुई है। इस कारण भी बडी मात्रा में आर्थिक लेने-देने प्रभावित हुआ और बाजार आर्थिक सुस्ती की गिरफ्त में आ गए। आॅनलाइन जीएसटी लागू करने के जो उपाय किए गए हैं, उनको अमल में लाने में रोड़े आना स्वाभाविक है। तय है इस कारण भी आर्थिक और व्यापारिक गतिविधियां प्रभावित हुई है। इसलिए तय है कि बाजार को आर्थिक मंदी से उबरने में वक्त लगेगा। इस लिहाज से यशवंत सिन्हा को एक तो अपनी भड़ास निकालने की बजाए, इस मुद्द को पार्टी के मंच पर रखना चाहिए था। दूसरे उन्हें यह भी सोचने की जरूरत थी कि अटलबिहारी वाजपेइ सरकार में जब वे स्वयं वित्तमंत्री थे, तब भी ‘शाइनिंग इंडिया‘ का भ्रम रचा गया था, लेकिन 2004 के लोकसभा चुनाव में पार्टी हार गई थी। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता है कि सात मर्तबा आम बजट पेश करने वाले वित्तमंत्री यशवंत जो अनुभव कर रहे हैं, वही पत्थर की लकीर है।
बाबजूद केंद्र सरकार और वित्तमंत्री जेटली के लिए यशवंत द्वारा की गई आलोचना को एक सुझाव और चेतावनी के रूप में लेने की जरूरत है। क्योंकि सरकार स्वयं व्यापारियों को 30 हजार करोड़ का राहत पैकेज देने की तैयारी कर रही है। यदि बाजार में मंदी नहीं है तो फिर पैकेज देने की जरूरत क्यों महसूस हो रही है ? पिछली पांच तिमाही से लगातार जीडीपी दर क्यों घट रही है ? चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में विकास दर तीन साल के सबसे निचले स्तर 5.7 फीसदी पर आ गई है। यह स्थिति भी तब बन पाई है, जब सरकार ने विकास दर निकालने को पैमाना बदल दिया है। यदि इस पुराने तरीके से निकाला जाए तो यह 3.5 प्रतिशत पर ठहर जाएगी।े निजी निवेष घट गया है ? उद्योगों की क्रेडिट ग्रोथ नकारात्मक स्थिति में है। देश के उद्योगों में बिजली की मांग घट गई है। खर्च और राजस्व में अंतर के कारण राजकोषीय घाटा लक्ष्य से काफी अधिक चल रहा है। जुलाई 2017 तक यह बजट अनुमान के 92.4 फीसदी के स्तर पर पहुंच चुका है। इस अवधि में सरकार का राजकोषीय घाटा 5,46,532 करोड़ रुपए पर पहुंच गया, जबकि बीते वर्ष इसी अवधि तक है यह 5,04,896 करोड़ रुपए था। माना जा रहा है कि इस वक्त सार्वजनिक खर्च में वृद्धि का मतलब राजकोषीय घाटे के लक्ष्यों को खतरानाक स्तर पर लाना होगा।
इसी समय जापान की अर्तरराष्ट्रीय वित्तीय एजेंसी नोमुरा ने कहा है कि सरकार के राजस्व संग्रह की रफ्तार में तो कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन अर्थव्यवस्था की मौजूदा समस्याएं अत्याधिक सरकारी खर्च के कारण हैं। सरकारी कर्मचारियों को सातवां वेतन देने से भी सरकारी खर्च बढ़ा है। ऐसी स्थिति में यदि सरकार व्यापारियों को राहत पैकेज देती है तो राजकोषीय हालात और गंभीर होंगे। ऐसे में आय और व्यय में संतुलन बिठाना मुश्किल होगा। दरअसल वित्त वर्ष 2017-18 के दौरान किए गए सार्वजनिक खर्च को देखते हुए इस बात की गुंजाइष नहीं है कि इस और बढ़ाया जाए। सरकार के खर्च का आंकड़ा बता रहा है कि वह ऐतिहासिक औसत दर से 7.5 फीसदी ज्यादा है। सरकार अपने खर्च के बजट लक्ष्य का 37.7 फीसदी जुलाई तक खर्च कर चुकी है। यह 2008-09 को समान अवधि में खर्च की दर से भी ज्यादा है। उस वित्त वर्ष में मंदी के चलते सरकार ने अर्थव्यवस्था के लिए राहत पैकेज जारी किया था। पिछले वित्त वर्ष में भी इस अवधि में सरकार ने बजट अनुमान का 33.2 फीसदी ही खर्च किया था। इन आंकड़ों को देखते हुए जरूरी है कि सरकारी खर्चों में कटौती की जाए।
देश के सबसे बड़े बैंक स्टेट बैंक आॅफ इंडिया की एक रिपोर्ट में कहा है कि नोटबंदी के बाद भुगतान प्रणाली में किए गए डिजीटल जैसे बदलावों के कारण 3,800 करोड़ रुपए का घाटा हुआ है। नोटबंदी के बाद नगदीरहित भुगतान प्रणाली को बढ़ावा देने के लिए बड़ी तादाद में पीओएस मशीनें खरीदी गईं। जहां जनवरी 2016 में ऐसी मशीनें 13.8 लाख थी, वहीं इस साल जुलाई तक इनकी संख्या बढ़कर 28 लाख हो गई। रिपोर्ट के मुताबिक डेबिट-क्रेडिट कार्ड के जरिए लेने-देने तो बढ़ा है, लेकिन कम एमडीआर, कार्ड का कम प्रयोग होने और कमजोर दूर संचार व्यवस्था के कारण बैंकों को भारी घाटा हुआ है। वैसे भी हम जानते हैं कि बैंकों के 8 लाख करोड़ रुपए एनपीए में फंसे हैं और यह एनपीए कम होने की बजाय, सुरसा मुख की तरह बढ़ता जा रहा है। बाबजूद यदि प्रत्यक्ष विदेशी निवेष 2014 के 36 बिलियन डाॅलर की तुलना में 60 बिलियन डाॅलर हुआ है तो यह इसलिए, क्योंकि सरकार स्टार्टअप, स्टैंडअप, स्किल डवलपमेंट और डिजीटल लेने-देने को नीतिगत उपाय कर रही है और तकनीक के केवल इसी क्षेत्र में बहुराष्ट्रीय कंपनियां अधिकतम निवेश कर रही हैं। विकास का यह अजेंडा इकतरफा है, इसे समावेषी स्वरूप में बदलने की जरूरत है। इस हेतु सरकार को लघु व ग्रामीण उद्योगों को नीतिगत उपाय करके बढ़ावा देने की जरूरत है। खरीद नीति बदलकर स्पष्ट रूप से घरेलू निर्माताओं को प्राथमिकता दी जाए, जिससे 2 लाख करोड़ रुपए की सरकार जो सालाना खरीद करती है, वह धन लघु और मझोले उद्योगों में काम करने वाले लोगों की जेब में जाए। इससे वस्तुओं का लेने-देने बढ़ेगा और बाजार मंदी से उभरता चला जाएगा।