परिवर्तन का संदेश देती मकर संक्राति

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विजय कुमार 

भारत एक उत्सवप्रिय देश है। शायद ही कोई दिन बीतता हो, जब किसी पंथ, सम्प्रदाय या क्षेत्र में उत्सव न हो। उत्सव न हों, तो जीने की इच्छा-आकांक्षा ही समाप्त हो जाये। अपने चारों ओर बिखरे संकटों, अव्यवस्थाओं और निराशाओं के बीच उत्सव हमें हंसाकर जीवन में फुलझड़ियां छोड़ देता है। ऐसा ही एक पर्व है मकर संक्रांति, जो केवल उल्लास ही नहीं, परिवर्तन का संदेश भी देता है।

क्रांति और संक्रांति

क्रांति की चर्चा समाज में बहुत होती है। युवक से लेकर वृद्ध तक, पुरुष से लेकर महिला तक, सब क्रांति करने को तत्पर दिखायी देते हैं; पर बिना इनका सही अर्थ समझे वे भ्रांति में फंस जाते हैं। क्रांति का अर्थ है परिवर्तन। जब किसी व्यक्ति, समाज या राष्ट्र के जीवन में कोई मूलभूत परिवर्तन होता है, तो उसे क्रांति कहते हैं। अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष करने वाले क्रांतिकारी कहलाते थे। जयप्रकाश नारायण ने 1974-75 में राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन के लिए जो आंदोलन चलाया था, उसका उद्देश्य वे ‘समग्र क्रांति’ ही बताते थे।

पर जब यही परिवर्तन किसी सार्थक दिशा में हो, तो उसे संक्रांति कहा जाता है। किसी ने जुए या शराब की आदत पकड़ ली और इस चक्कर में अपना घर-परिवार बरबाद कर डाला, तो यह भी क्रांति ही हुई; पर यदि उसने इन्हें छोड़ दिया, तो यह संक्रांति हुई। इसीलिए भारतीय मनीषा ने क्रांति के बदले संक्रांति की कल्पना की है।

भौगोलिक मान्यताएं

यों तो भारत में अनेकों संक्रांति पर्व आते हैं। जब भी पक्ष, राशि, अयन या ऋतु आदि बदलती हैं, तब वह संक्रांति ही है; पर सूर्यदेव के मकर राशि में प्रवेश करने वाली संक्रांति का विशेष महत्व है। भारत में कालगणना मुख्यतः चन्द्रमा की गति के आधार पर होती है; पर सूर्य का महत्व भी कम नहीं है। जबकि अंग्रेजी कालगणना का आधार सूर्य ही है। मकर संक्रांति सूर्याेपासना का पर्व है। इसलिए इसकी अंग्रेजी तिथि भी प्रायः 14 जनवरी ही रहती है। वैसे प्रति 50 वर्ष में एक दिन का अंतर इसमें भी आ जाता है। 12 जनवरी, 1863 को विवेकानंद के जन्म के समय मकर संक्रांति ही थी।

इस दिन से सूर्य का प्रकाश तीव्र एवं दिन बड़े होने लगते हैं। यद्यपि शीत का प्रकोप इसके बाद भी बना रहता है। ‘धन के पन्द्रह मकर पचीस, चिल्ला जाड़ा दिन चालीस’ वाली कहावत इसी ओर संकेत करती है। मकर संक्रांति से 15 दिन पूर्व और 25 दिन बाद तक ‘चिल्ला जाड़ा’ माना जाता है। कुछ विद्वानों के अनुसार ईसा का जन्म भी इसी दिन हुआ था; पर जब पोप ग्रेगरी ने अंग्रेजी कैलेंडर बनाया, तो इसे बीस दिन पीछे ले जाकर 25 दिसम्बर को घोषित कर दिया और फिर उसी को ‘बड़ा दिन’ कहने लगे।

ऐतिहासिक प्रसंग

मकर संक्रांति के साथ कुछ ऐतिहासिक घटनाएं जुड़ी हैं। पहली घटना महाभारत युद्ध से संबंधित है। भीष्म पितामह को इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था। वे दक्षिणायण के बदले उत्तरायण में शरीर छोड़ना चाहते थे। मकर संक्रांति पर जब सूर्य मकर राशि में आकर उत्तरायण हुआ, तब उन्होंने देहत्याग किया। इतने दिन तक वे गंगा तट पर शरशैया पर लेटे रहे, यह प्रसंग सर्वविदित ही है।

जब श्री गुरुगोविंद सिंह जी के प्रायः सभी साथियों ने हताश होकर उन्हें छोड़ दिया था, तब माईभागो नामक एक वीर महिला की प्रेरणा से उनमें से 40 ने महासिंह नामक सरदार के नेतृत्व में फिर उनके साथ चलने का संकल्प लिया। जब मुगल सेना ने अकेले गुरुजी को घेर लिया था, तब उस पर हमलाकर इन वीरों ने ही गुरुजी की प्राणरक्षा की थी। इस युद्ध में माईभागो सहित उन सबको वीरगति प्राप्त हुई। 1705 ई0 की मकर संक्रांति को ‘खिदराना के ढाब’ नामक स्थान पर हुए उस संग्राम का साक्षी वह तालाब आज भी ‘मुक्तसर’ कहलाता है। 1761 में इसी दिन पानीपत के तीसरे युद्ध में मराठा सेना की पराजय से भारत में हिन्दू राज्य का स्वप्न टूट गया।

भारत में अनेक पर्व क्षेत्र विशेष में मनाये जाते हैं; पर मकर संक्रांति पूरे देश में लोकप्रिय है। पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, हिमाचल आदि में इसे लोहड़ी; दक्षिण में पोंगल; कर्नाटक में सुग्गी, पूर्वोत्तर भारत में बिहू; महाराष्ट्र में तिलगुल; उड़ीसा में मकर चौला; बंगाल में पौष संक्रांति; गुजरात व उत्तराखंड में उत्तरायणी तथा बिहार, बुंदेलखंड और म0प्र0 में सकरात कहते हैं।

इस दिन खिचड़ी और तिल गुड़ से बनी सामग्री खायी जाती है। इनमें प्रयुक्त सामग्री उष्णता देने वाली होने के कारण इसका शीत ऋतु में विशेष महत्व भी है। खिचड़ी में प्रयुक्त दाल, चावल, घी तथा गजक या रेवड़ी में पड़े तिल, गुड़ आदि आपस में इतने मिल जाते हैं कि उन्हें अलग नहीं किया जा सकता है। इस नाते ये समरसता के भी संदेशवाहक हैं। गोरखपुर के गोरक्षनाथ मंदिर में तो श्रद्धालुजन इस दिन टनों कच्ची खिचड़ी भेंट करते हैं। बाद में वहां प्रसाद रूप में भी खिचड़ी ही वितरित की जाती है।

कैसा परिवर्तन

आज मकर संक्रांति का महत्व भौगोलिक एवं ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य से भी अधिक सामाजिक क्षेत्र में है। गत एक शताब्दी में भारतीय समाज में इतने दुर्गुण प्रविष्ट हो गये हैं कि उनसे हमारे अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगने लगा है।

हिन्दू समाज में सबसे बड़ा रोग जातिभेद है। जातिप्रथा के पक्षधर कुछ भी तर्क दें; उसे किसी समय समाज संरक्षण के लिए बनायी गयी व्यवस्था या वर्ण व्यवस्था का विकृत रूप कहें; गीता के उद्धरण देकर उसे जन्म के बदले कर्म के आधार पर बनी हुई बतायें; पर जमीनी सच तो यही है कि आज भी जाति की मान्यता जन्म के आधार पर ही है। बड़ी संख्या में लोग इसी आधार पर किसी को ऊंचा या नीचा मानते हैं। कुछ मूढ़ तो जाति की व्याख्या, जो जाती नहीं, यह कहकर करते हैं। हिन्दू समाज से मुसलमान या ईसाई बनने के लिए जहां निर्धनता, अज्ञानता, अंधविश्वास और विधर्मी षड्यन्त्र दोषी हैं; वहां जन्म के कारण किया जाने वाला भेदभाव इसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

अत्यधिक दिखावा

हिन्दू समाज को जिस एक अन्य दुर्गुण ने गत 15-20 साल में तेजी से घेरा है, वह है दिखावा। अपने परिवार में होने वाले विवाह, जन्मोत्सव, वर्षगांठ आदि ने संस्कारपूर्ण हिन्दू पद्धति को ही कटघरे में खड़ा कर दिया है। इनमें अब अंग्रेजियत, काली कमाई, बेहूदे फैशन, आभूषण और राजनीतिक शक्ति का नग्न प्रदर्शन होता है। गरीबों के हमदर्द बनने वाले राजनेताओं के यहां जब हजारों लोग दावत खाते हैं, तो उसके बजट की कल्पना करना ही भयावह लगता है। राजनीति और सामाजिक क्षेत्र के प्रतिष्ठित लोग इन आयोजनों में जाकर इस पाखंड को महिमामंडित करते हैं। यदि वे इनका बहिष्कार करें, तो समाज में अच्छा संदेश जा सकता है।

पर्यावरण का संकट

केवल भारत में ही नहीं, तो सम्पूर्ण विश्व में पर्यावरण संरक्षण के प्रति बहुत चिन्ता की जा रही है। एक ओर पेड़ों का विनाश, तो दूसरी ओर वाहनों, विद्युत उपकरणों, दूरदर्शन तथा ध्वनिवर्धक का अत्यधिक प्रयोग इसके प्रमुख कारण हैं। वातावरण में बढ़ रही विषैली गैसों के कारण जहां ओजोन की परत में छिद्र होने के समाचार आ रहे हैं, वहां गरमी बढ़ने और हिमनदों के पिघलने से जल का संकट भी मुंहबाये खड़ा है। जीवन में हर स्तर पर प्रकृति से बढ़ती दूरी इस रोग को कोढ़ में खाज की तरह बढ़ा रही है। इसके कारण छोटे बच्चों को भी उच्च रक्तदाब और मधुमेह जैसे रोग होने लगे हैं।

धार्मिक लोग इसे रोक सकते हैं; पर दुर्भाग्य से धार्मिक स्थल और जुलूस ही शोर के सबसे बड़े अखाड़े बन गये हैं। यदि पर्यावरण की उपेक्षा से प्रकृति का चक्र बदल गया, तो मानव जाति को लेने के देने पड़ जाएंगे। इस संदर्भ में यह कहना भी गलत नहीं है कि जहां ग्रामीण और अल्पशिक्षित लोग पर्यावरण संरक्षण के प्रति परम्परा से ही सजग हैं, वहां नगरीय और स्वयं को शिक्षित कहने वाले इसकी सर्वाधिक उपेक्षा करते हैं। बिजली, पानी और पेट्रोल का अपव्यय कर कुछ लोग स्वयं को शेष लोगों से बड़ा मान लेते हैं; पर सच में वे केवल बड़े मूर्ख हैं, और कुछ नहीं।

इसी प्रकार नारी समाज के प्रति भी दृष्टि बदलनी होगी। किसी समय मुस्लिम आक्रमणकारियों के भय से उन्हें घर में रहने की सलाह दी गयी होगी; पर अब समय बदला है। अब उन्हें भी हर स्तर पर शिक्षित करने की आवश्यकता है। बाल विवाह, पर्दा प्रथा, परिवार नियोजन, अन्तरजातीय एवं विधवा विवाह, बलिप्रथा, मृतक भोज आदि के प्रति भी सार्थक एवं समयानुकूल दृष्टिकोण अपनाना होगा।

मानसिकता में परिवर्तन

सच तो यह है कि ऐसी सब सामाजिक बीमारियों का निदान कानून से नहीं, अपितु मानसिकता में परिवर्तन से होगा। इसके लिए समाज के प्रभावी लोगों को आगे आकर अपने आचरण से समाज के सम्मुख आदर्श प्रस्तुत करना होगा। कहावत है ‘महाजनो येन गतः, स पन्था:’। अर्थात महान लोग जिस मार्ग पर चलते हैं, शेष समाज भी उसी का अनुसरण करता है।

मकर संक्रांति का पर्व हमें अपने मानस में व्यापक परिवर्तन कर सही दिशा में जाने की प्रेरणा देता है। अपने मौहल्ले, गांव या बस्ती के हर घर से खिचड़ी एकत्र कर किसी मंदिर या सार्वजनिक स्थल पर बड़ा खिचड़ी भोज करें। हर जाति, वर्ग, आयु तथा हर प्रकार का कार्य करने वाले पुरुष, महिलाएं, बच्चे, बड़े वहां आयें। सब मिलकर बनायें, बांटे और खायें। सामाजिक एवं राष्ट्रीय समरसता के पर्व मकर संक्रांति का यही पावन संदेश है।

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