आलेख : संतन के मन रहत है…

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पिछले कुछ दिनों से कई साधु और संत विभिन्न कारणों से चर्चा में हैं। मीडिया के बारे में आदमी और कुत्ते की कहावत बहुत पुरानी है। अर्थात कुत्ता किसी आदमी को काट ले, तो यह खबर नहीं होती, क्योंकि यह उसका स्वभाव है; पर यदि आदमी ही कुत्ते को काट ले, तो यह मुखपृष्ठ की खबर बन जाती है। कुछ ऐसी ही बात साधु-संतों से सम्बन्धित समाचारों की है। साधु और संत एक ही राह के पथिक हैं। जो जनहित की साधना में लगा है, वह साधु है; और जिसकी साधना किसी निष्कर्ष पर पहुंच गयी, वह संत हो गया। इनके स्वभाव और व्यवहार पर प्रकाश डालने वाले सैकड़ों दोहे और छंद साहित्य में उपलब्ध हैं।  कबिरा संगत साधु की, हरे और की व्याधि संगत बुरी असाधु की, आठों पहर उपाधि।। साधु ऐसा चाहिए, जैसे सूप सुभाय सार-सार को गहि रहे, थोथा देय उड़ाय।। जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान मोल करो तलवार का, पड़ी रहन दो म्यान। संतन के मन रहत है, सबके हित की बात घट-घट देखें अलख को, पूछें जात न पात।। अर्थात साधु और संतों की मुख्य पहचान यह है कि वे अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए जीते हैं। उनके मन में किसी के लिए द्वेष नहीं होता। वे धन-सम्पदा के मोह से दूर रहते हैं। उनके लिए कोई विशेष वेषभूषा या खानपान जरूरी नहीं है। वे गृहस्थ हों या ब्रह्मचारी, वे घर में रहें या बाहर, वे धनी हों या निर्धन, उनकी जाति, भाषा या बोली कुछ भी हो; पर मुख्य बात उनका परहितकारी स्वभाव है। ऐसे संत स्वभाव के लोग हर गांव और नगर में होते हैं। ऐसा ही एक शब्द ‘संन्यासी’ है। सामान्यतः भगवा वेषधारियों को लोग संन्यासी कहते हैं; पर इसका वेष से कुछ सम्बन्ध नहीं है। हिन्दू धर्म की आश्रम व्यवस्था में चौथा और अंतिम पड़ाव ‘संन्यास’ है। 75 वर्ष के बाद व्यक्ति घर, परिवार और सामाजिक जिम्मेदारियों से दूर रहकर अपना अधिकतम समय ईश्वर की भक्ति में लगाता है, जिससे उसका अगला जन्म सुधर सके। यही संन्यास आश्रम है। पर कुछ लोग गृहस्थ के बंधन में न पड़कर अपना जीवन देश, धर्म और समाज की सेवा में समर्पित कर देते हैं। ऐसे गृहत्यागी लोग प्रायः भगवा वेष पहनते हैं। अतः उन्हें भी लोग संन्यासी ही कहते हैं। हिन्दू धर्म के अन्तर्गत सभी पंथों में यह व्यवस्था है। अखाड़े और मठों के माध्यम से इन्हें अनुशासित रखा जाता है।  साधु, संत और संन्यास की कल्पना हिन्दू धर्म और भारतवर्ष में ही है। यद्यपि इस स्वभाव के लोग अन्य देशों और मजहबों में भी हैं। भारत में लाखों संत देश भर में घूमते हुए जन-जागरण करते हैं। हजारों संत सेवा के प्रकल्प भी चलाते हैं। सच तो यह है कि सरकार सबके लिए भोजन, शिक्षा, संस्कार और चिकित्सा की व्यवस्था नहीं कर सकती। उसमें समाजसेवी संस्थाओं का योगदान आवश्यक है। संत और संन्यासी भी यही कर रहे हैं। पर कुछ साधु, संत और संन्यासी भगवा वेश पहन कर भी धन, वासना, सत्ता और भौतिक वैभव की लालसा से मुक्त नहीं हो पाते। वे सेवा और सत्संग की आड़ में कुछ और ही खेल करने लगते हैं। उन्हें संत या संन्यासी कहना गलत है। ऐसे कुछ लोगों की चर्चा पिछले दिनों मीडिया में खूब हुई है।  बुजुर्गाें ने जर, जोरू और जमीन को झगड़े की जड़ कहा है। विश्व के सभी पौराणिक और आधुनिक युद्ध इस कारण ही हुए हैं। संतों के पास बहुत अधिक सम्पदा होने पर वहां भी उत्तराधिकार का संघर्ष छिड़ जाता है। अधिकांश बड़े आश्रमों में कुछ न कुछ विवाद जरूर है। मैं एक आश्रम को जानता हूं, जहां के संत जी हर दूसरे-तीसरे महीने भंडारा कर या गरीबों में वस्त्र बांटकर कोष हल्का कर देते हैं। अतः वहां विवाद नहीं हैं; पर ऐसी भावना कितने संतों में होती है ? कथा, कहानी और फिल्मों के अनुसार वन में छात्रों के साथ यज्ञ करने वाले ही ‘ऋषि’ हैं, जबकि ऋषि वह है, जिसने सृष्टि में व्याप्त किसी रहस्य को आम जनता तक पहुंचाया हो। जैसे ऋषि विश्वामित्र गायत्री के द्रष्टा हैं। वेदों में ऐसे हजारों सूक्त और मंत्र हैं, जिनके द्रष्टा ऋषि हैं। इनमें वशिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भरद्वाज, अत्रि, वामदेव और शौनक प्रमुख हैं। ये ‘सप्तऋषि’ कहलाते हैं। ऋषि पुरुष भी हैं और स्त्री भी। ये ब्रह्मचारी भी हैं और गृहस्थ भी। ये एकपत्नी वाले हैं, तो बहुपत्नी वाले भी; पर मूल बात है कि उन्होंने अपनी खोज से जनता का हित किया। जैसे भाप में शक्ति तो पानी और अग्नि के जन्म के समय से ही थी; पर जेम्स वाट ने उससे भाप का इंजन बना दिया। आज दुनिया काफी आगे बढ़ चुकी है, फिर भी ऋषि जेम्स वाट का योगदान भुलाया नहीं जा सकता। जहां तक ‘सूफी’ की बात है, कुछ लोग भ्रमवश इन्हें भी संत समझते हैं। सूफी इस्लाम का ही एक पंथ है। यद्यपि इस्लाम में गीत, संगीत, नृत्य आदि मना है; पर सूफी इसका अपवाद हैं। ये लोग मुस्लिम हमलावरों के साथ उनके हरावल दस्ते के रूप में यहां आये। हिन्दुओं की उदारता का लाभ उठाकर ये राजाओं के महलों तक पहुंच बनाकर अंदर की सूचनाएं अपने आका को देते थे। फिर भी मूर्ख नेता और अभिनेता इन विदेशी हमलावरों की दरगाहों पर चादर चढ़ाते हैं। यद्यपि कुछ सूफी हिन्दुत्व से प्रभावित हो गये; पर ऐसे लोगों को मुसलमानों ने ही ठुकरा दिया। बुल्लेशाह को बहुत पीटा गया, जबकि सरमद को दिल्ली में जामा मस्जिद के पास मार दिया गया।  ‘फकीर’ का अर्थ फक्कड़ या परमहंस है, भिखारी नहीं। कबीर दास जी ने कहा है –  कबिरा खड़ा बजार में, सबकी मांगे खैर ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर। रहीम की मानें तो –  चाह गयी चिंता मिटी, मनुआ बे परवाह जिनको कुछ ना चाहिए, वे शाहन के शाह।। कवि दीक्षित दनकौरी के शब्दों में – अलग ही मजा है फकीरी का अपना न पाने की चिन्ता न खोने का डर है।।  कबीरदास जी ने ऐसे ही फकीरों के लिए कहा है – मन लागो मेरो यार फकीरी में।  हाथ में कूंडा, बगल में सोटा, चारों दिश जागीरी में प्रेम नगर में रहन हमारो, भलि बनी आयी सबूरी में। आखिर ये तन खाक मिलेगा, कहां फिरत मगरूरी में कहत कबीर सुनो भई साधो, साहिब मिले सबूरी में। भारत में फकीरों की एक बड़ी परम्परा है, जो धन, सम्पदा और सत्ता को छोड़कर वृंदावन चले गये। मीराबाई, अकबर के दरबारी वलीराम और अब्दुल रहीम खानखाना, मुहम्मद शाह रंगीले के दरबारी लेखाकार कवि घनानंद आदि ऐसे ही फकीर थे। क्रिश्चियन कॉलिज, लाहौर में गणित के प्रोफेसर तीर्थराम मस्ती में खुद को ‘बादशाह राम’ कहते थे। बाद में वे स्वामी रामतीर्थ के नाम से प्रसिद्ध हुए।  ईसाइयों में ‘संत’ एक पदवी है, जो मरने के बाद पोप द्वारा दी जाती है। कहने को तो इसका श्रेय सेवा या चमत्कार को दिया जाता है; पर वस्तुतः ईसाई संत वही है, जिसने धोखे, षड्यन्त्र या हिंसा से हजारों लोगों को ईसाई बनाया हो। अंग्रेजों ने इनके नाम पर बनी संस्थाओं को हजारों एकड़ जमीनें दी थीं, जो अब भी उनके पास हैं और एक-एक नगर में उनका मूल्य खरबों रुपये है। कभी साधु, संत, ऋषि, मुनि आदि एकांत में साधना करते थे। वे एक सीमित क्षेत्र में घूमते हुए जन-जागरण करते थे; पर वर्तमान चुनौतियां भिन्न हैं। ऐसे में वे भी आधुनिक साधनों का प्रयोग करें, तो गलत नहीं है; पर मूल भावना जनहित की ही होनी चाहिए। संस्थाओं की जिम्मेदारी रहे; पर जल में कमल के समान उसमें लिप्त न हों। जिम्मेदारी लेते और छोड़ते हुए मन में एक समान ‘स्थितप्रज्ञता’ का भाव हो। किसी कवि ने लिखा है – मालिक का जो बंदा है, वो हर हाल में खुश है मैदान में, बाजार में, चौपाल में खुश है। गर यार की मर्जी हुई दिल जोड़ के बैठे घर-बार छुड़ाया तो उसे छोड़ के बैठे गुदड़ी जो उढ़ाई तो उसे ओढ़ के बैठे और श१ल दे दिया तो उसी श१ल में खुश है मालिक का जो बंदा है, वो हर हाल में खुश है।।  ऐसे संत दुनिया में बहुत हैं; पर मीडिया इनकी चर्चा नहीं करता। उसे तो संत का चोला ओढ़े धोखेबाजों के किस्से छापने और दिखाने में मजा आता है, क्योंकि इससे उनकी बिक्री बढ़ती है। वह पिटाई के डर से अर्जी-फर्जी मजारों पर बैठे मुल्लाओं की बात नहीं करता। वह पादरियों के दुराचार की बात भी नहीं करता, चूंकि इससे उसकी सेक्ूयलर छवि बिगड़ती है। ऐसे धोखेबाज संतों के साथ-साथ भारत और हिन्दू धर्म की छवि बिगाड़ने वाले मीडिया संस्थानों का भी प्रबल विरोध होना चाहिए।

 

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