लेख हरियाणा में जाटों का तांडव

2
290

हरियाणा में जाट एक समृद्ध जाति है, जिसके पास जमीन, शिक्षा तथा पैसा के साथ सत्ता भी है। हरियाणा में किसी अन्य व्यक्ति का काम भले ही रूक जाए परन्तु किसी जाट का काम, भले ही कानून के दायरों से बाहर हो, हो ही जाता है। वोटों की राजनीति के चलते जाटों की किसी भी सामूहिक बात का विरोध करने का साहस किसी भी नेता में नहीं है। हालफिलहाल यहां के जाटों ने आरक्षण के मुद्दे पर पूरे हरियाणा में रेल रोको आंदोलन शुरू किया हुआ है परन्तु यहां सत्ता में बैठे जाट मुख्यमंत्री का एक बार भी इस मुद्दे पर जाटों के विरोध में बयान तक नहीं आया। यहां तक कि मुख्य विपक्षी इनेलो के सुप्रीमो भी जाटों की इस मांग पर कुछ नहीं कह रहे। यदि वह समर्थन करते हैं तो पूरे राज्य की जाटों से इतर जातियां, जो कि सड़क तथा रेल मार्ग से कहीं आजा नहीं पा रहे तथा जाटों को आरक्षण देने से जिन्हें प्रत्यक्ष नुकसान है, की नाराजगी उन्हें झेलनी होगी। तथा यदि वह जाटों की इस मांग का विरोध कर देते हैं तो उनके ही जात वालों के वोट उन्हें नहीं मिलेंगे। कुल मिलाकर जाट अपने आंदोलन को लगातार तेज करते जा रहे हैं और सत्तापक्ष तथा विपक्ष के नेता चुप्पी मार कर बैठे हुए हैं। रोजाना करोड़ों का नुकसान हो रहा है। बीमार आदमी दिल्ली के अस्पताल के लिए रेफर किए जाते हैं परन्तु उन्हें दिल्ली नहीं पहुंचने दिया जा रहा। इससे पूर्व भी जाटों ने मिर्चपुर कांड में, जिसमें जाटों ने वाल्मिकियों के परिवार वालों को जिन्दा जला दिया था तथा उनके घर जला दिए थे, को लेकर जबरदस्त आंदोलन किया था और अपनी अनैतिक मांगों को मनवाने की बेवजह जिद्द की थी। प्रजातंत्र में किसी को भी अपनी मांगों को प्रशासन के सामने रखने का अधिकार है परन्तु देश व संविधान से ऊपर कोई भी नहीं हो सकता। जाटों ने अपनी संख्या तथा सत्ता बल के जरिए ऐसीऐसी मांगें प्रशासन के सामने रखी हैं, जो कहीं से भी नैतिक नहीं है। सोचने की बात वास्तव में है भी कि आखिर हर तरह से समर्थ हरियाणा के जाटों को आरक्षण किस लिए? परन्तु समस्या की जड़ में देखें तो यहां भी गलती वोट बटोरू नीतियों की ही है। वोट के लिए हमारे देश के नेता बहुत नीचे गिर सकते हैं। पूरे देश में यह हो रहा है। लालू ने बिहार में इस नीति के तहत बहुत सालों राज किया और बिहार को रसातल में पहुंचा दिया था। बहुत साल लगे बिहार को इस जातिगत राजनीति के नुकसान को समझने में। ममता बनर्जी भी ऐसी ही राजनीति को ब़ावा अब तक दे रही हैं। कांगे्रस सदैव से मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति पर चलती रही है। जिस किसी भी संसदीय अथवा विधानसभा क्षेत्र में अल्पसंख्यक पर्याप्त मात्रा में हैं, वहां की पूरी राजनीति जातिगत समीकरणों पर चलती है। इससे समाज का एक तबका अपनी नाजायज मांगों को मनवाने का साहस कर पाता है और यदि अपनी जाति के तुष्टिकरण के चलते वह तबका समर्थ हो जाता है तो अपनी असंवैधानिक तथा नाजायज मांगें मनवाने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है, जो कि आज हरियाणा के जाट कर रहे हैं। हम इतिहास पर जरा गौर करें। श्रीलंका में तमिल व सिंहलियों की समस्या भी एक वर्ग को अधिक सुविधाएं तथा दूसरे की उपेक्षा के कारण पनपी थीं, जिसने दसियों साल लिए और उस वर्ग के भी लाखों लोगों की हत्या करवा दी, जिसे दी जाने वाली सुविधाओं के कारण वंचित वर्ग में असंतोष तथा विद्रोह पनपा था। नक्सलवाद भी इसी सिद्घान्त पर पनपा जो कि आज दिशाहीन तथा उग्र विरोध का रूप ले चुका है। कहीं ऐसा न हो कि हरियाणा में जाटों को दी जाने वाली हर सुविधा गैरजाट जातियों को एकजुट होने पर मजबूर कर दे तथा केछिपे जो मामले सामने आ रहे हैं, नक्सलवाद यहां भी अपना प्रभुत्व जमा ले। यहां के समझदार लोगों ने तो अब खुले आम कहना भी शुरू कर दिया है कि अबकी बार गैरजाट को मुख्यमंत्री बनाना चाहिए वरना यहां पर जंगल राज हो जाएगा। क्या यह शुरूआत है उस विद्रोह की जो कि अन्ततः जाटों का ही नुकसान करेगा अथवा उससे पहले ही जाटों को भी समझ आ जाएगी? कुछ जाट नेता तो जाटों के आरक्षण का विरोध भी किए परन्तु जाटों ने उन्हें जाति से बाहर करने की धमकी दे दी। संपत सिंह इसका उदाहरण हैं। हालांकि संपतसिंह ने बहुत ही जायज बात की थी। बात अन्त में फिर नेताओं पर जा ठहरती है। वह क्या सोचते हैं? वह क्या करते हैं? वोटों के लिए किसी भी हद तक गिर जाने वाले नेता क्या समाज व देशहित की सोच पाएंगें? यदि ऐसा कर सकते तो आरक्षण का जिन्न इतना बलवान होता ही नहीं।

– सुरेश बरनवाल

सिरसा, हरियाणा

M. 9896561712

2 COMMENTS

  1. लगता है कि प्रवक्ता ग्रुप को उपरोक्त टिपण्णी पसंद नहीं आई.पर मेरे ख्याल से आज के सन्दर्भ में इस तरह के अड़ियल रवैये के बारे में और लिखा ही क्या जा सकता है?अब हाल ये है कि लोग होली मनाने अपने घर भी नहीं जा पा रहे हैं रेलवे को जो हानि हो रही है वह अलग.अगर सरकार दबाव में आकर मान भी गयी तो जाटों को कितना लाभ होगा ,यह सर्व विदित है पर अपनी हेकड़ी तो रह जायेगी.

  2. भारत यानि इंडिया में लोग अब उचित अनुचित की सीमा से ऊपर उठ चुके हैं.अब तो यहाँ जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली बात है.जिस तरह का प्रजातंत्र हमारे यहाँ है उसमे ऐसा होना गलत भी नहीं है,क्योंकि यहाँ जिसको मौका मिलता है वह बहती गंगा में हाथ धो लेता है.अनुसूचित जातिओं और अनुसूचित जन जातियों के लिए आरक्षण का आरम्भ में फिर भी कोई तुक था, पर तथाकथित पिछड़ी जातियों के लिए बिना आर्थिक सीमा के आरक्षण का कोई औचित्य है क्या?फिर क्यों न आरक्षण में जिसको मौका मिले हिस्सा बटाने को तैयार हो जाए.जाटों का पिछड़ी जातियों के साथ मिलने या गुर्जरों को शूद्रों में गिनती कराये जाने की मांग में यही सिद्धांत काम कर रहा है.अब रह गयी उन लोगों के सफल होने की बात तो यह तो निर्भर करता है वे कितना दबाव डाल सकते हैं और प्रशासन को झुकाने में वह दबाव समर्थ हो सकता है या नहीं.अन्य कोई भी बात या सिद्धांत बेमानी है.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here