अरविंद केजरीवाल के भारतीय राजनीति में आने के मायने

-डॉ. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री- arvind
आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में सरकार बना ली है। पार्टी के प्रधान अरविंद केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री बन गए हैं। आज से पांच-छह महीने पहले देश के दो मुख्य राजनीतिक दल सोनिया कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी आप को अहमयित नहीं दे रहे थे। वे यह मानने को तो तैयार ही नहीं थे कि आप दिल्ली में सरकार भी बना सकती है। वे इसी गुणा-जोड़ में लगे रहे कि राजधानी के राजनैतिक दंगल में आप के कूदने  से सोनिया कांग्रेस को नुकसान होगा या फिर भारतीय जनता पार्टी को। सोनिया कांग्रेस तो शायद शुरू से ही यह मानकर चल रही थी कि इससे भाजपा नुकसान में रहेगी। भाजपा का शुरूआती दौर में तो यह आकलन था कि आप सोनिया कांग्रेस को नुकसान पहुंचाएगी, लेकिन ज्यों-ज्यों चुनाव नजदीक आते गए तो शायद  भाजपा के नीति-निर्धारकों का यह आकलन भी बदला। लेकिन बदलने के बावजूद भाजपा आप को दो से पांच और जब चुनाव और नजदीक आ गए तो दस से अधिक सीटें देने को तैयार नहीं थी। केजरीवाल मुख्यमंत्री बन जाएंगे, ऐसा तो किसी को स्वप्न में भी अंदाज़ा नहीं था। सोनिया कांग्रेस की शुरूआती दौर की राजनीति शायद  अरविंद केजरीवाल के माध्यम से भाजपा को नुकसान पहुंचाना ही था ताकि भाजपा, कांग्रेस को सत्ता से उखाड़ न सके। परंतु केजरीवाल नाम की तलवार शायद दोधारी थी, जिसने भाजपा को तो जितना नुकसान पहुंचाना था, उतना पहुंचाया ही लेकिन सोनिया कांग्रेस का तो दिल्ली में सूपड़ा ही साफ कर दिया। रिकॉर्ड के लिये , 70 सदस्यों की दिल्ली विधान सभा में सोनिया कांग्रेस केवल आठ सीटें जीत सकी। भाजपा को 32 और आम आदमी पार्टी को 28 सीटें मिलीं।
इस मरहले पर शायद सोनिया कांग्रेस के देशी-विदेशी  नीति निर्धारकों ने अपनी नीति बदली। सोनिया कांग्रेस के सामने मुख्य प्रश्न यह था कि दिल्ली में आप द्वारा कांग्रेस की हत्या कर दिए जाने के बावजूद आप से किस प्रकार के संबंध रखे जाएं ? उसे राजनैतिक दंगल में चुनौती दी जाए या फिर उसके साथ हाथ ही मिला लिया जाए ? वैसे भी नये साल के आते आते सोनिया कांग्रेस की रणनीति स्वयं सत्ता प्राप्त करना शायद नहीं रह गई थी, अब उसकी रणनीति किसी भी तरह से भाजपा को सत्ता में आने से रोकना था। यह तय हो जाने के बाद केवल यह आकलन करना शेष था कि क्या आम आदमी पार्टी इसमें सहायक हो सकती है ? इसका उत्तर खोजने के लिये सोनिया गांधी की पार्टी को किसी थिंक टैंक की ज़रूरत नहीं थी, इसका सही उत्तर कांग्रेस के दफ़्तर का ड्राईवर भी दे सकता था । यही कारण है कि दिल्ली में आप के हाथों बुरी तरह पिट जाने के बावजूद, सोनिया कांग्रेस में अततः आप से हाथ मिलाने की ही रणनीति को स्वीकार किया है। अरविंद केजरीवाल द्वारा शीला दीक्षित से लेकर सोनिया गांधी, बरास्ता राबर्ट बढे़रा तक को महाभ्रष्ट घोषित किए जाने के बावजूद अल्पमत में होते हुए भी अरविंद केजरीवाल को दिल्ली का मुख्यमंत्री ही नहीं बनाया बल्कि जयराम नरेश उसे कंधे पर उठाकर नाचना भी शुरू कर दिया।
सोनिया कांग्रेस और उसके देशी—विदेशी रणनीतिकारों का उद्देश्य एकदम स्पष्ट है। किसी भी ढ़ंग से भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में राष्ट्रवादी शक्तियों के रथ को दिल्ली के बाहरी दरवाजे पर रोकना है। राजस्थान, छतीसगढ़, मध्यप्रदेश और दिल्ली में भाजपा की चुनावी सफलता ने यह संकेत तो दे ही दिया है कि भाजपा का यह रथ कितनी तेजी से दिल्ली की ओर बढ़ रहा है। सोनिया कांग्रेस अच्छी तरह जानती है कि 2012 में हुए चुनावों में उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में पार्टी की जीत, उसकी जीत नहीं थी बल्कि भाजपा की भीतरी फूट का कुपरिणाम था। पंजाब में तो सोनिया कांग्रेस, राहुल गांधी की इतनी परेड कराने के बावजूद अकाली-भाजपा गठबंधन को अपदस्थ नहीं कर सकी ।वहीं कर्नाटक में कांग्रेस की जीत उसकी अपनी जीत कम और येदुरप्पा को लेकर की गई भाजपा की भूल ज्यादा थी। नरेंद्र मोदी भाजपा परिवार के भीतर की इन दरारों को पाटने में लगे हुए हैं उससे निश्चय ही भाजपा की पराजय का एक सशक्त कारक खत्म हो जाने की संभावना बढ़ती जा रही है। कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री और राज्य के कद्दावर नेता येदुरप्पा की घर वापसी इसी का संकेत है। सुदूर उत्तर-पूर्व तक की राष्ट्रवादी शक्तियों में भाजपा की इस पहल से जो स्फूर्ति उत्पन हुई है , निश्चय ही उससे उन शक्तियों  को तकलीफ हुई है, जो अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार के पराजित हो जाने के बाद किसी भी हालत में राष्ट्रवादी शक्तियों को भारत में सत्ता के केंद्र में नहीं आने देना चाहती। अमेरिका अभी इस घाव को भुला नहीं पाया है कि अटल बिहारी बाजपेयी के नेतृत्व में ही भारत ने परमाणु बम बनाने का निर्णय किया था ।
जो देशी विदेशी शक्तियाँ अपने हितों को किसी भी तरीक़े से सुरक्षित रखने के लिये भारत की राजनीति में रुचि ही नहीं रखतीं बल्कि उसकी धार को अपने अनुकूल मोड़ने का भी प्रयास करती रहतीं हैं, उनके लिये सौ टके का एक सवाल तो यही है कि नरेंद्र मोदी के रथ को रोका कैसे जाए ? इतना तो स्पष्ट ही है कि वर्तमान परिस्थितियों में सोनिया कांग्रेस अपने बलबूते यह काम नहीं कर पाएगी। यह उन लोगों को शायद पहले ही अंदाजा था जो भारत में राष्ट्रवादी शक्तियों के उत्थान से सबसे ज्यादा घबराते हैं। यूरोप और अमेरिका की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और वहाँ की पूँजीवादी व्यवस्था के भारत में आर्थिक हित हो सकते हैं, लेकिन चर्च व वेटिकन के सांस्कृतिक हित भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं। उन्हें ऐसा भारत चाहिए जो यूरोप और अमेरिका की सांस्कृतिक नीति पर चलता हुआ अपनी पुरातन पहचान को मिटाकर नई पहचान को स्वीकार कर ले। उसी प्रकार जिस प्रकार कभी यूनान और मिश्र ने अपनी पुरानी पहचान, सभ्यता और संस्कृति को तिलांजलि देकर नई पहचान को स्वीकार कर लिया था। भारत में अपने सांस्कृतिक व आर्थिक हितों की रक्षा के लिये इन विदेशी शक्तियों ने पिछले कुछ दशकों से ग़ैर सरकारी संस्थाओं (एन जी ओ) के माध्यम से अरबों रुपये भेजना जारी किया हुआ है। अब इन्हीं एनजीओ के माध्यम से देश की राजनीति को परोक्ष रुप से नियंत्रित करने के प्रयास किये जा रहे हैं। इसे भारतीय राजनीति का एनजीओकरण भी कहा जा सकता है। ऐसा नहीं कि भारत सरकार को विदेशों से किसी न किसी माध्यम से धन प्राप्त कर रही एन जी ओ की संदिग्ध गतिविधियों का पता नहीं है । पिछले दिनों जब तमिलनाडु के कुडनकुलम में स्थानीय जनता को आगे करके ,परमाणु संयन्त्र लगाने का विरोध किया जाने लगा और विरोध को शान्त करने के पर्दे के पीछे के सारे प्रयास असफल हो गये तो विवश होकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को विदेशों से धन प्राप्त कर रही एनजीओ के इन राष्ट्र विरोधी कृत्यों का भंडाफोड़ करना पड़ा। अब यह कोई छिपा रहस्य नहीं है कि अमेरिका का प्रयास रहता है कि भारत में परमाणु संयन्त्र न लगें। उसके बाद पर्यावरण के नाम पर विरोध कर रहीं इस प्रकार की ग़ैर सरकारी संस्थाएं जल्दी ही मौन हो गईं , क्योंकि उन्हें यह ख़तरा भी होने लगा था कि दूसरे क्षेत्रों में काम कर रहीं ग़ैर सरकारी संस्थाओं का भी पर्दाफ़ाश हो सकता है। लेकिन सोनिया गान्धी की पार्टी की सरकार भी विदेशों से पैसा प्राप्त कर रही ग़ैर सरकारी संस्थाओं की गतिविधिओं के उतने हिस्से से ही पर्दा उठाती है जितना उसे विवशता में उठाना पड़ता है। तमिलनाडु का परमाणु संयन्त्र सरकार के लिये प्रतिष्ठा का प्रश्न भी बन गया था। ये एनजीओ विदेशी पैसे के बल पर भारत की राजनीति में दख़लन्दाज़ी करती हैं, इसे लेकर सरकार को चिन्ता नहीं है। क्योंकि उसे पता है कि लम्बी दौड़ में उनके ये प्रयास देश में राष्ट्रवादी ताक़तों को कमज़ोर करने के लिये ही लक्षित हैं और सोनिया गान्धी के नेतृत्व में सरकार चला रहे कोर ग्रुप का लक्ष्य भी अन्ततोगत्वा यही है । इस मुद्दे पर सोनिया गान्धी की पार्टी और ये अनेक एन जी ओ समान धरातल पर खड़े दिखाई देते हैं ।
पिछले कुछ साल से दिल्ली में रहकर इसी प्रकार के एनजीओ के माध्यम से गतिविधियां चला रहे अरविंद केजरीवाल और उसके साथियों की, आम आदमी पार्टी के नाम से प्रकट हुई राजनीति की इस पृष्ठभूमि को परख लेना अति ज़रूरी है। इसी प्रकार के एनजीओ की सहायता से ताक़तवर हुये अरविंद केजरीवाल की सहायता से अब सोनिया गान्धी भाजपा के नरेंद्र मोदी का रथ रोकने का प्रयास कर रही है। पटना विश्वविद्यालय के दर्शनशास्त्र विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो. रमेश चन्द सिन्हा के अनुसार आप किसी छोटे आदमी से बड़ा काम नहीं करवा सकते। यदि उससे बड़ा काम करवाना है तो पहले उसका कद बढ़ाना पड़ेगा। अरविन्द केजरीवाल का क़द बढ़ाने की क़वायद का पहला हिस्सा अमेरिका के फ़ोर्ड फ़ाऊंडेशन ने पूरा किया और अब दूसरा हिस्सा सोनिया कांग्रेस ने पूरा किया है। यदि अरविंद केजरीवाल को आगे करके नरेंद्र मोदी का रथ रोकना है तो केजरीवाल को बड़ा बनाना ही होगा। यही कारण है कि तमाम अपमान सहते हुए भी सोनिया गान्धी अरविंद केजरीवाल को मुख्यमंत्री बनाने के लिए मजबूर हुई जबकि आप के पास सत्तर सदस्यों की दिल्ली विधानसभा में केवल 28 सदस्य हैं।
एनजीओ के माध्यम से शुरु की गई राजनीति की इस नई बिसात पर बैठे अरविंद केजरीवाल की जन्मपत्री पढ़ना भी जरूरी है। अरविंद केजरीवाल ने 1995 में भारतीय राजस्व सेवा में काम करना शुरू किया। वे दिल्ली में आयकर विभाग में अतिरिक्त आयुक्त नियुक्त हुए। सभी जानते हैं कि देश में यदि सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार होता है तो इसी विभाग में होता है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने आयकर के ब्योरे कम करके ही नहीं दिखाती बल्कि इस क्षेत्र में धोखाधड़ी भी करती हैं। ईमानदार और साहसी आयकर अधिकारियों ने अनेक बार इन कंपनियों की धोखाधड़ी को बेनकाब कर के उनके खिलाफ अभियान चलाए हैं। लेकिन जाहिर है कि इस काम में खतरा भी उठाना पड़ता है। अरविंद केजरीवाल ने आयकर विभाग में ईमानदारी का और भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने का ऐसा कोई उदहारण प्रस्तुत किया हो यह रिकार्ड में नहीं है। अलबत्ता उन्होंने परिवर्तन नाम की एक गैरसरकारी संस्था गठित करके उसके माध्यम से दिल्ली के झुग्गी- झोपड़ी इलाकों में रहने वाले लोगों के राशन कार्ड बनवाने, बिजली और पानी का कनेक्शन दिलवाने और उनके दैनिक कार्य में छोटी-मोटी सहायता करने के लिए वेतनभोगी कर्मचारियों की नियुक्ति करके अपना कार्य प्रारंभ कर दिया। परिवर्तन के ये कर्मचारी  ही उसके कार्यकर्ता कहलाए और उसको सक्रिय रूप से चलाने के लिए केजरीवाल ने भारत सरकार से कुछ साल का अध्ययन अवकाश अवश्य प्राप्त कर लिया और सरकार के नियमों का लाभ उठाते हुए सरकारी खजाने से वेतन भी प्राप्त करते रहे । ये घटनाएं सन 2000 के आसपास की है। यही वह समय था जब भाजपा में नरेंद्र मोदी का रूतबा बढ़ना शुरू हो गया था और उनके व्यक्तित्व की खासियत भी उजागर होने लगी थी। उधर अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार भी अमेरिका को सिर दर्दी दे रही थी। परमाणु बम बनाने की घोषणा के घाव अभी भरे भी नहीं थे कि पाकिस्तान द्वारा आरोपित कारगिल युद्ध में बाजपेयी ने अमेरिकी राष्ट्रपति की मध्यस्थ की भूमिका को ठुकराते हुए वॉशिंगटन जाने से इंकार कर दिया। इस पृष्ठभूमि में देशी-विदेशी शक्तियों के लिए भारत में 2004 में लोकसभा के चुनाव अत्यंत महत्वपूर्ण हो गए थे। इसे भाजपा की रणनीतिक विफलता कहा जाए अथवा आम जनता का , उसके कुछ मामलों में वैचारिक मूलाधारों से किनारा कर लेने के कारण उपजा क्रोध, यह विवादास्पद हो सकता है, लेकिन परिणाम 1999 के मुक़ाबले भाजपा की 44 सीटें कम हो जाने के रूप में प्रकट हुआ। परन्तु यहां तक 2004 के चुनाव परिणामों का प्रश्न था भाजपा की सीटें सोनिया कांग्रेस से केवल सात ही कम थीं। इन चुनावों में भाजपा की 138 सीटें थी और सोनिया कांग्रेस की 145 सीटें। ये सीटें देखने में चाहें ज्यादा दिखाई न देती हों लेकिन भाजपा की सरकार को उखाड़ने में काफी महत्वपूर्ण सिद्ध हुई। तभी यह स्पष्ट हो गया था कि आने वाले समय में केंद्र में सरकार बनाने के लिए पांच-सात सीटें भी निर्णायक सिद्ध हो सकती हैं। सोनिया गांधी को पार्टी का नेता चुनकर और फिर उनसे प्रधानमंत्री का पद अस्वीकार करने का बयान दिलवाकर चाहे त्याग आदि का नाटक किया गया लेकिन राष्ट्रपति भवन पर नज़र रखने वाले समझ चुके थे कि उस समय उनका प्रधानमंत्री बनना न तो संभव था और न ही व्यापक रणनीति को देखते हुये उपयोगी। उनकी इतालवी नागरिकाता को लेकर अभी विवाद ठंडा नहीं हुआ था और शायद यूरोप की एक औरत द्वारा भारत का प्रधानमंत्री बन जाना कालांतर में लोगों की राष्ट्रीय भावना उछालने में सहायक सिद्ध हो सकता था। देश-विदेश में इसका खतरा उठाने के लिए कोई तैयार नहीं था। इससे भाजपा के नेतृत्व में राष्ट्रवादी शक्तियों को बल मिल सकता था। इसी को ध्यान में रखते हुए विश्व बैंक में काम कर चुके प्रो़. मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री के पद पर बिठाने का अस्थायी प्रयोग किया गया। मनमोहन सिंह, नरसिम्हा राव की सरकार में वित्त मंत्री रह चुके थे और पश्चिम बंगाल के पूर्व वित्त मंत्री प्रो. अशोक मित्रा के अनुसार मनमोहन सिंह को वित्त मंत्री बनवाने में अमेरिका ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी।
भारत की राजनीति में संक्रमण काल चल रहा था। सोनिया गांधी  अपनी पार्टी को लेकर लंबी दूरी तक चल पाएंगी इसको लेकर संशय उत्पन्न होने शुरू हो गए थे। सोनिया गांधी की पार्टी के कमजोर होने का अर्थ था भाजपा के नेतृत्व में राष्ट्रवादी शक्तियों का सशक्त होना और एक बार फिर सत्ता के केंद्र दिल्ली की ओर कूच कर देना। देशी विदेशी ताक़तें इस कूच को किसी भी तरह रोकने की रणनीति में जुटतीं, लेकिन इससे पहले ही भारत की राजनीति का एक और अध्याय लिखा जा चुका था जिससे भविष्य की राजनीति की दशा और दिशा बदलने वाली थी। एनडीए सरकार के पराजित होने से पहले नरेंद्र मोदी गुजरात में मुख्यमंत्री बन चुके थे। गोधरा हत्याकांड के बाद हुए दंगों को लेकर किए गए तमाम प्रकार के कुप्रचार के बावजूद सरदार पटेल की तरह उनका ढृढ़ निश्चयी व्यक्तित्व उभरना प्रारंभ हो गया था।
भविष्य को देखते हुए सोनिया कांग्रेस की उपयोगिता के पुनः आकलन के साथ-साथ भारत की राजनीति में भाजपा को रोकने के लिए वैकल्पिक व्यवस्था या फिर सोनिया कांग्रेस की सहायता के लिए ही नई राजनैतिक व्यवस्था की पहचान कर ली गई थी। इसी कालखंड में अरविंद केजरीवाल ने अपनी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। अपनी संस्था परिवर्तन के माध्यम से वे दिल्ली के कुछ क्षेत्रों मे ग्राउंड वर्क कर ही चुके थे। अरविंद केजरीवाल और उनकी सहायता करने वाले उनके दूसरे मित्र अब तक समझ चुके थे कि यदि भविष्य में  समयानुकुल राष्ट्रवादी शक्तियों के उभार को रोकने में किसी पक्ष की भी सहायता करनी है तो उसके लिए नौकरी छोड़नी ही पड़ेगी। वैसे केवल रिकार्ड के लिए केजरीवाल को नौकरी छोड़ने पर कोई बहुत बड़ा पारिवारिक संकट झेलने की आशंका नहीं थी क्योंकि उनकी पत्नी भी भारतीय राजस्व सेवा में उच्च पद पर स्थित हैं।
जैसा की ऊपर लिखा ही जा चुका है कि 2004 के चुनावों में भाजपा और सोनिया कांग्रेस की सीटों में अंतर केवल सात सीटों का था। जाहिर है देशी-विदेशी क्षेत्रों में उन लोगों की चिंता बढ़ती, जिनके भारत में निहित आर्थिक और सांस्कृतिक हित लगे हुए हैं। इसमें पहला नंबर तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों का था और दूसरा नंबर चर्च का। बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अपने आर्थिक हितों की चिंता थी तो चर्च को भारत में चलाए जा रहे अपने मतांतरण आंदोलन की । अरविंद केजरीवाल और उसके साथी परिवर्तन की नौका संभालकर लहरों में उतर तो चुके थे लेकिन जिस प्रकार का कार्य करने की उनसे आशा थी उसके लिए बहुत धन की दरकार था। धन की व्यवस्था कैसे और कहां से की जाए ? इसका भी अंततः रास्ता निकाला गया। अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया ने मिलकर एक दूसरी गैर सरकारी संस्था खड़ी की, जिसका नाम कबीर रखा गया। अंग्रेजी में जरूर इसका लंबा चौड़ा नाम हो गा लेकिन उसके प्रारंभिक शब्दों को जोड़कर कबीर बनाया गया ताकि उस संत के नाम से ही दूसरे लोग भ्रम को पाले रहें। इस कबीर को 2005 से लेकर 2010 तक अमेरिका के फोर्ड फांउडेशन ने 4 लाख डॉलर दिए। बहुत से लोग ऐसा मानते हैं कि फोर्ड फांउडेशन और विदेशों की राजनीति में उथल-पुथल मचा देने के लिए कुख्यात सीआईए में उद्देश्य को लेकर स्पष्ट साझेदारी है। दूसरे देशों की राजनीति में दख़लन्दाज़ी के लिये भी फ़ोर्ड के पैसे का इस्तेमाल होता है और उस देश की नीतियों को प्रभावित करने के लिये भी । कांग्रेस के लोग तो इसे अच्छी तरह जानते ही हैं , कम्युनिस्ट पार्टियाँ भी इससे बेतवर नहीं हैं , क्योंकि शीत युद्ध के दिनों में रूस की के जी बी और अमेरिका की सीआईए एशिया और अफ़्रीका में राजनैतिक उछल-कूद का खेल खेला करते थे । भारत की साम्यवादी पार्टियों पर केजीबी के पैसे के प्रयोग का आरोप लगता ही रहता था, लेकिन अरविंद केजरीवाल और उनके साथी राजनीति का जो खेल खेल रहे थे , उसके लिए जहां पैसे की आवश्यकता थी वहां उनके व्यक्त्वि और पहचान को स्थापित करने की भी उतनी ही आवश्यकता थी। अरविंद केजरीवाल को भारत के भविष्य के नेता के रूप में जनमासनस में स्थापित करना था। इसके लिए दूसरा रास्ता निकाला गया। केजरीवाल को रैमन मैग्सायसे पुरस्कार दिया गया। एशिया में यह पुरस्कार उनको दिया जाता है जिनको अपने देश में भविष्य के नेता के रूप में देख जाता है या फिर दिखाना जरूरी होता है। इस पुरस्कार की राशि भी परोक्ष रूप से अमेरिका का फोर्ड फांउडेशन ही मुहैया कराता है। इस पुरस्कार के मिलने से केजरीवाल और उसके साथियों के आगे आए आसन्न संकट का हल निकाल लिया गया। पुरस्कार से प्राप्त राशि से केजरीवाल ने दिसंबर 2006 में एक तीसरा गैर सरकारी संगठन शुरू कर दिया जिसका नाम पब्लिक कॉज रिसर्च फांउडेशन रखा गया। इस फांउडेशन से ही परिवर्तन के कार्यकर्ता नाम के कर्मचारियों को वेतन दिया जाने लगा। 2009 तक परिवर्तन, कबीर और पब्लिक कॉज रिसर्च फांउडेशन दिल्ली में चुपचाप कार्य करते रहे और सरकारी दफ्तरों में काम में व्यापक ढ़िलाई और भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर झुग्गी झोप​ड़ियों में अपना सशक्त आधार निर्माण करने में लगे रहे। पैसे की अब केजरीवाल एंड कंपनी के पास कमी नहीं थी क्योंकि लाखों डॉलर फोर्ड फांउडेशन मुहैया करवा ही रहा था। अमेरिका के दिए ये लाखों डॉलर दिल्ली पहुंचते पहुंचते करोड़ों रूपयों में बदल जाते थे। यानि पर्दे के पीछे खेल जारी था।
उधर इसी कालखंड में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का व्यापक प्रभाव धीरे-धीरे समस्त देश में पड़ना प्रारंभ हो गया था। भारत सरकार की सहायता और सक्रिय सहयोग से मोदी को दंगों के लिए दोषी ठहरा कर उन्हें मुस्लिम विरोधी प्रचारित करने वाली टोली अपने तमाम प्रयासों के बावजूद मोदी का मूर्तिभंजन नहीं कर पा रही थी। इस काम के लिए अंततः अमेरिका को खुद पर्दे के पीछे से निकल कर मोदी के मूर्तिभंजक की भूमिका में उतरना पड़ा। अमेरिका के विदेश—विभाग ने हल्ला मचाना शुरू कर दिया कि उसने मोदी को अमेरिका जाने के लिये वीजा देने से इंकार कर दिया है। अमेरिका यहीं पर चुप नहीं हुआ । उसने वीजा न देने के कारणों की व्याख्या करते हुए लंबे-लंबे भाषण देने शुरू कर दिए। अमेरिका के अनुसार मोदी गुजरात में अल्पसंख्यकों की रक्षा करने में असफल हुए हैं इसलिए ऐसे मुस्लिम और ईसाई विरोधी मोदी को अमेरिका में प्रवेश नहीं करने दिया जा सकता। मोदी के मूर्तिभंजन में भारत सरकार की सहायता से एक टोली देश के भीतर सक्रिय थी और दूसरी टोली अमेरिका की सहायता से देश के बाहर सक्रिय हो गई। परन्तु इन संयुक्त प्रयासों के बावजूद नरेन्द्र मोदी तो गान्धीनगर के सचिवालय से अपदस्थ नहीं किये जा सके , अलबत्ता यू पी ए की साख तेज़ी से जरुर  घटना शुरु हो गई और उसके प्रति जन असंतोष बढ़ने लगा ।   सोनिया गांधी और उसके देशी—विदेशी मित्रों के लिए तसल्ली की बात केवल इतनी ही थी कि भाजपा भी अपने भीतर की दलबंदी के कारण जनअसंतोष का पूरा लाभ नहीं उठा पा रही थी।
2009 तक आते आते भारत में राजनीति की बिसात पूरी तरह बिछ चुकी थी। सोनिया गांधी और उसकी पार्टी एक पक्ष था, भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में राष्ट्रवदी शक्तियां दूसरा पक्ष थी। अरविंद केजरीवाल और उसकी टीम को फ़िलहाल पर्दे के पीछे से केवल दर्शक दीर्घा में बैठना था।  इन चुनावों में सोनिया गांधी की पार्टी ने लोकसभा में 206 सीटें हासिल कर ली और भाजपा 117 सीटों पर सिमट कर रह गई। इन चुनाव परिणामों के बाद लगने लगा कि  शायद रिजर्व कोटे में सुरक्षित अरविंद केजरीवाल और उसकी पार्टी को राजनीति की शतरंज पर उतरना ही न पड़े क्योंकि सोनिया गांधी ने भाजपा को सीटों की राजनीति में काफी पीछे छोड़ दिया था। लेकिन एक विरोधाभास जिसका उत्तर न अमेरिका की समझ में आ रहा था और न ही भारतीय राजनीति के घाघ पंडितों के समझ में। वह प्रश्न नरेंद्र मोदी का था। भाजपा तो सीटों के मामले में पिछड़ रही थी लेकिन नरेंद्र मोदी अपनी छवि और लोकप्रियता के मामले में तेजी से आगे बढ़ रहे थे। सोनिया कांग्रेस के तमाम प्रयासों के बावजूद गुजरात के दंगे बीता इतिहास बनता जा रहा था और उस राज्य में नरेंद्र मोदी की विकास गाथा चर्चा के फोकस में आ रही थी। इसी विरोधाभास ने अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी की प्रासंगिकता को बनाए रखा था । आखिर फोर्ड फांउडेशन के करोड़ों रूपए राजनीति के इस प्रयोग पर खर्च हुए थे।
2009 के बाद के काल में, जिसे भारतीय राजनीति में यूपीए-2 के नाम से जाना जाता है, सोनिया गांधी और उसकी पार्टी की लोकप्रियता में तेजी से कमी आने लगी। सरकार में, सरकार के चलाने वालों ने ही करोड़ों के घोटाले कर दिए। शायद ही कोई ऐसा दिन जाता हो जिस दिन यूपीए सरकार का कोई घोटाला प्रकाश में न आता हो। हालत यहां तक हो गई की यूपीए सरकार के मंत्री कैबिनेट बैठक के बजाए जेल में बैठे दिखाई देने लगे । मनमोहन सिंह की व्यक्तिगत तौर पर ईमानदार होने की छवि भी यूपीए सरकार की कलंक गाथाओं को छुपा नहीं पा रही थी। देशभर में निराशा का जो वातावरण बन रहा था उसके कारण सोनिया कांग्रेस समय-समय पर होने वाले विधानसभा के चुनावी दंगलों में फिसड्डी होती जा रही थी और निराशा के इस माहौल का सर्वाधिक लाभ नरेंद्र मोदी को मिल रहा था। देश के आम जन में यह विश्वास पनपने लगा कि समस्याओं का समाधान , साफ सुथरा प्रशासन और सशक्त सरकार नरेंद्र मोदी ही दे सकते हैं। सबसे बड़ी बात यह कि मोदी जिस पार्टी का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं , उसका एक जाना पहचाना वैचारिक आधार है । अब स्पष्ट होने लगा था कि राष्ट्रवादी शक्तियों के प्रवाह को रोकना सोनिया गांधी और उसकी पार्टी के बस का नहीं रहा है। प्रो.मनमोहन सिंह भी अपनी उपयोगिता खोते नजर आ रहे थे।
यही वह वक्त था जब राष्ट्रवादी शक्तियां को रोकने के लिए अरविंद केजरीवाल को दिल्ली में लॉन्च करना अनिवार्य हो गया था। लेकिन इसके लिए एक सशक्त लॉन्चिंग पैड की आवश्यकता थी। सही लॉन्चिंग पैड न मिले तो उपग्रह के रास्ते में ही नष्ट हो जाने का खतरा बना रहता है। लॉन्चिंग पैड के लिए अन्ना हजारे को दिल्ली में किस प्रकार लाया गया , यह एक अलग कहानी है। अन्ना के नेतृत्व में दिल्ली के जंतर मंतर पर भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ मोर्चा बाँधा गया। अरविन्द केजरीवाल और उनके नज़दीक़ी साथी इस मोर्चा का हिस्सा बन गये ।  उन्होंने भी भ्रष्टाचार से लड़ने की अपनी इच्छा का प्रदर्शन अन्ना हज़ारे के कुनबा में रह कर ज़ाहिर किया । अन्ना के कारण कुनबे की इज़्ज़त भी थी और लोगों को उन पर विश्वास भी था । इसलिये आम लोगों ने और कुनबे वालों ने अरविन्द केजरीवाल और उनके साथियों पर भी सहज भाव से विश्वास कर लिया । यह तो बाद में पता चला कि अन्ना के इस कुनबे में अग्निवेश नाम के तथाकथित स्वामी से लेकर शशि भूषण और प्रशान्त भूषण नाम के बाप बेटे तक घुसे हुये हैं । जैसे जैसे इन घुसपैठियों के असली इरादों की पहचान होती गई वैसे वैसे वे बाहर निकलते गये या निकाल दिये गये । भूषण परिवार के टैक्स के मामले को यदि छोड़ भी दिया जाये तो बाद में प्रशान्त तो कश्मीर को भारत से अलग होने देने की वकालत को भी भ्रष्टाचार हटाने से ही जोड़ने लगे । इससे अन्ना समेत आम देशवासी भी चौंके । क्योंकि ग़ुलाम नबी फ़ाई मामले की चर्चा भी फैलती जा रही थी , ऐसे समय में प्रशान्त भूषण द्वारा कश्मीर की आजादी का समर्थन उत्तेजना पैदा करने वाला ही था । इसलिये उनके लिये भी अन्ना हजारे के कुनबे में रहना संभव नहीं हो सका । तभी अरविन्द केजरीवाल ने इच्छा ज़ाहिर कर दी कि वे देश में भ्रष्टाचार अपना एक अलग राजनैतिक दल बना कर ही समाप्त करेंगे । शायद कुनबे के लोग उनकी इच्छा के भीतर की इच्छा को जल्दी पहचान गये , इसलिये उन्होंने अरविन्द की इस चाल में फंसने से इंकार कर दिया । अन्ना कोई नया राजनैतिक दल बनाने के लिये सहमत नहीं थे । उनका कहना था कि हमारी लड़ाई सत्ता प्राप्त करने की लड़ाई नहीं है , बल्कि व्यवस्था को बदलने की लड़ाई है । इसके लिये पूरे देश में इतना सशक्त जनमत बनाया जाये ताकि , सत्ता चाहे किसी भी राजनैतिक दल की हो, लेकिन वह विपरीत जनमत के डर से भ्रष्टाचार में लिप्त न हो सके । इसके कारण देश की राजनैतिक व्यवस्था साफ़ होगी । यदि हम ने भी एक अलग राजनैतिक पार्टी बना ली, तो यह सींग कटा कर भेड़ों के रेवड में शामिल होने के समान हो जायेगा । लेकिन केजरीवाल नहीं माने । उन्होंने अपनी अलग पार्टी बना ली । उनको सत्ता प्राप्त करनी है । उनका मानना है कि उनका उद्देश्य अच्छा है । भ्रष्टाचार को समाप्त करना । अच्छे उद्देश्य के लिये सत्ता की चाह रखना बुरी बात नहीं है । अब वे आम आदमी पार्टी के नाम से अपना अलग शो चलाने लगे और दिल्ली के जंतर मंतर पर मंतर मार कर भ्रष्टाचार से लड़ने का प्रदर्शन करने लगे । राजनैतिक नेताओं और उनके नित नये उजागर हो रहे कारनामों के प्रति आम जनता की अनास्था उस सीमा तक पहुँच गई थी कि उसने अरविन्द के इस जादू टोना नुमा कार्यक्रमों को भी सचमुच भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई समझना शुरु कर दिया । टी. वी चैनलों ने बहती गंगा में हाथ धोने के लिये अरविन्द केजरीवाल के नये कुनबे के इन कारनामों को भी , मैं तुलसी तेरे आंगन की, की तरह धारावाहिक शैली में प्रसारित करना शुरू कर दिया। यह भारतीय राजनीति का स्टिंग ऑपरेशनकाल कहा जा सकता है। जबतक  अन्ना हजारे और उनके साथी यह समझ पाते कि उनका उपयोग केवल लॉन्चिंग पैड की हैसियत में ही किया गया है तब तक अरविंद केजरीवाल को मीडिया की सहायता से लांच किया जा चुका था। मीडिया के देशी-विदेशी मालिकों ने भी इस पूरे प्रयोग में अपनी भूमिका सफलतापूर्वक निभाई। ताज्जुब है, इस लांचिंग समारोह में वे लोग भी जश्न में भागीदारी निभा रहे थे , जिन्हें आने वाले दिनों में इसका शिकार होना था ।
अन्ना हज़ारे के विरोध के बावजूद केजरीवाल की पार्टी दिल्ली विधान सभा के चुनावों में उतर चुकी थी। उसके बाद इस नाटक का दूसरा अंक चालू हुआ। यह अंक खेला जाना बहुत ज़रूरी था। कुनबे ने दिल्ली की दीवारों पर पोस्टर चिपका दिये थे जिसमें बाकायदा दिल्ली की जनता को सूचित कर दिया गया है कि किस तारीख़ को अरविन्द केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री पद की शपथ, किस स्थान पर लेंगे और किस तारीख़ को दिल्ली विधान सभा उनके नेतृत्व में ‘अन्ना का जन लोकपाल’ बिल पास कर देगी। तब अन्ना हज़ारे ने अत्यन्त विनम्रता से केजरीवाल को कहा कि अपनी इन सारी रणनीतियों में कृपया मेरा नाम प्रयोग न करें और न ही मेरे नाम पर पैसा एकत्रित करें । दिल्ली में चर्चा हो रही थी कि हो सकता है कुमार विश्वास अब अन्ना के खिलाफ भी कोई कविता जारी कर दें । लेकिन अभी कविताई की तैयारियाँ हो ही रहीं थीं कि मंच पर स्टिंग ऑपरेशन हो गया। केजरीवाल के कुनबा के घर आकर ही कोई आइना दिखा गया । लेकिन अब तो जो होना था वह हो चुका था और सारी दुनिया ने देख भी लिया था कि भ्रष्टाचार को रोकने के लिये ही भ्रष्टाचार किया जा रहा था । परन्तु ज्ञानी लोग ऐसे संकट काल के लिये रास्ता बता गये हैं । बीती ताही बिसारिए,आगे की सुधा लेहु । स्टिंग ऑपरेशन से लगे घावों को लेकर कब तक रोया जा सकता था ? समय हाथ से रेत की तरह फिसलता जा रहा है । इसलिये रातों-रात भ्रष्टाचार से लड़ने के मूल स्क्रिप्ट में परिवर्तन किया गया । मंच पर नये सिरे से जल्दी जल्दी दोबारा पर्दे लगाये गये । कुनबे के मुख्य सूत्रधार अरविन्द केजरीवाल के मंच पर आने की बाकायदा घोषणा की गई । वे सचमुच गंभीर मुद्रा में प्रकट हुये । एक बारगी तो पुराने दर्शक भी गच्चा खा गये । अरविन्द कभी भ्रष्टाचार से समझौता नहीं करेंगे । कुनबे में कोई कोई कितना भी नज़दीक़ी क्यों न हो । अरविन्द ने कहा की सख़्ती से कुनबे में व्याप्त भ्रष्टाचार को समाप्त किया जायेगा और संलिप्तता सिद्ध होने पर कुनबइयों को घर से बाहर कर दिया जायेगा । दर्शकों ने तालियाँ पीटीं और पूछा, जाँच कौन करेगा ? जबाब था, हमीं करेंगे और कौन करेगा ? अब दर्शकों के अपने सिर पीटने की बारी थी । जिन पर दोष हैं , वे ख़ुद ही जाँच करेंगे और ख़ुद ही सजा सुनायेंगे ? अरविन्द केजरीवाल का लोकतंत्र और उनके भ्रष्टाचार से लड़ने के नाटक का पर्दाफ़ाश हो चुका था । लेकिन फिर भी कहीं आशा की एक किरण बची हुई थी कि शायद वे सचमुच जाँच कर कुछ लोगों को पकड़ भी लेंगे । लेकिन हुआ वही जिसका अरविन्द केजरीवाल के भ्रष्टाचार मुक्त समाज हेतु चलाये जा रहे आन्दोलन को देर से देख रहे विशेषज्ञों को अंदेशा था । अरविन्द ने स्वयं ही जाँच कर अपने राजनैतिक कुनबे के लोगों को दोषमुक्त घोषित कर दिया । इतना ही नहीं जिस मीडिया ने अरविन्द बाबू को कभी अतिरिक्त समय देकर भी जनता का हीरो बनाया था, उसी मीडिया की जम कर निन्दा की। मीठा-मीठा हड़प, कड़वा कड़वा थू । तो कुल मिलाकर यह हुआ अरविन्द केजरीवाल का लोकतंत्र , जन लोकपाल और पारदर्शिता का नमूना । सिपाही भी आप, जांचकर्ता भी आप और न्यायाधीश भी आप स्वयं ही। इस आदर्श मॉडल से जो जांच का परिणाम आ सकता था, वही आया। केजरीवाल अपने इसी लोकतांत्रिक मॉडल और इसी लोकपाल के बलबूते देश का प्रशासन संभालना चाहते हैं और यह भी चाहते हैं कि लोग उनकी इस बात पर विश्वास कर लें कि वे सचमुच भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ रहे हैं। भ्रष्टाचार से लड़ने के इसी लुकाछिपी के खेल में दिल्ली विधान सभा के चुनाव परिणाम घोषित हुये। अरविन्द केजरीवाल ने पन्द्रह साल से चली आ रही दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को बीस हज़ार से भी ज़्यादा मतों से पराजित कर सभी को चौंका दिया। उनकी पार्टी ने दिल्ली विधानसभा में 28 सीटें जीत कर कुछ सीमा तक दिल्ली में भाजपा के रथ को रोकने में सफलता प्राप्त की, तो रैमन मैग्साय से पुरस्कार देने वाले अपनी दूरदृष्टि पर नाच रहे होंगे और फोर्ड फांउडेशन में कबीर को दिए गए धन के सही परिणामों पर संतोष जाहिर किया जा रहा होगा। अन्ना हजारे को देवदूत बताने वाले केजरीवाल के लिए जब अन्ना की उपयोगिता समाप्त हो गई तो उन्होंने वहां से किनारा करने में एक मिनट भी नहीं लगाया। इतना ही नहीं, लोकपाल को लेकर उनकी सूझबूझ और योग्यता पर भी प्रश्चचिन्ह लगाना शुरू कर दिया।
इतना ही नहीं, इसका प्रदर्शन करने में भी उन्होंने पत्ती भर भी संकोच नहीं किया । लोकपाल बिल पारित करवाने के लिये अन्ना हज़ारे अपने गाँव पालेंगे सिद्धी में अनशन पर बैठे थे । केजरीवाल इस अनशन के लिये स्वयं अन्ना के गांव जाना चाहते थे । लेकिन ऐन मौक़े पर उन्हें बुखार ने पकड़ लिया । वैसे कुछ भीतरी सूत्र यह भी बताते हैं कि अन्ना ने ही उनके रालेगन सिद्धी आने पर एतराज़ जताया था । इसलिये उन्होंने वहां अपना प्रतिनिधि और आम आदमी पार्टी के बड़े नेता गोपाल राय को भेजा था । इधर दिल्ली में आम आदमी पार्टी ( आपा ) का रुतबा बढ़ गया है , इसलिये महाराष्ट्र में अन्ना के गाँव जाकर गोपाल राय ने मंच पर ही पूर्व सेनाध्यक्ष को टोकते हुये आन्दोलन का मार्गदर्शन करने का प्रयास किया तो अन्ना ने उसे मंच पर ही झिड़क दिया और गाँव छोड़ कर जाने के लिये कहा । इसी बीच लोक सभा और राज्यसभा द्वारा लोकपाल बिल  पारित किये जाने पर अन्ना ने अपना अनशन समाप्त कर दिया । इसी लोकपाल बिल को पारित करवाने के लिये कुछ दिन पहले तक रामलीला मैदान में केजरीवाल अनशन पर बैठा करते थे । लेकिन अब वे बिल के पारित होने पर प्रसन्न नहीं हैं । उनका मानना है कि इस लोकपाल से तो चूहे को भी पकड़ा नहीं जा सकता । दूसरी ओर अन्ना का कहना है कि इससे शेर भी पकड़ा जा सकता है । लेकिन अब केजरीवाल के सामने दूसरी दिक़्क़त है । अब वे किसी भी राजनैतिक दल  का , लोकपाल बिल पास करने के लिये आभार तो नहीं जता सकते । क्योंकि अब ये राजनैतिक दल आम आदमी पार्टी के प्रतिद्वदी है । यदि आभार जताने के चक्कर में केजरीवाल फँस गये तो फिर चुनाव में उनको चुनौती कैसे दे सकेंगे ? अब केजरीवाल देश की राजनैतिक व्यवस्था का एक अंग हैं । अब वे व्यवस्था को बदलने की बात नहीं कर सकते , बल्कि व्यवस्था की भीतरी विसंगतियों का लाभ उठा कर सत्ता की एक और सीढ़ी चढ़ने का प्रयास करेंगे । ऐसा वे कर भी रहे हैं । लेकिन अन्ना हज़ारे की यह मजबूरी नहीं है । अन्ना को न कोई राजनैतिक दल चलाना है और न ही कहीं सांसद बनना है , न ही सत्ता के गलियारों में धमक देनी है । उनको लगता था लोकपाल बिल पारित हो जाने से व्यवस्था में घुसे भ्रष्टाचार से लड़ा जा सकता है। इसलिये वे लोकपाल बिल के पारित होने पर सभी का धन्यवाद कर रहे हैं। उनकी लड़ाई मुद्दों की लड़ाई है। उन के किसी मुद्दे पर कोई भी राजनैतिक दल उनके साथ खड़ा हो जाता है, तो वे उसका धन्यवाद करने में संकोच नहीं करते।
अन्ना के आन्दोलन का केजरीवाल राजनैतिक लाभ उठा रहे थे। यह देर सवेर अन्ना को भी समझ आ गया । थोड़े और सख़्त शब्दों में कहना हो तो केजरीवाल अन्ना के आन्दोलन का राजनैतिक शोषण कर रहे थे। केजरीवाल की एक दूसरी समस्या इन सभी घटनाक्रमों से पैदा हुई है जिसका समाधान उन के लिये भी मुश्किल है । वे सोनिया कांग्रेस की आलोचना कर सकते हैं। भाजपा की आलोचना भी कर सकते हैं, लेकिन अन्ना हज़ारे की आलोचना करना उनके लिये अभी संभव नहीं है , क्योंकि कुछ दिन पहले तक तो वे अन्ना के मंचों पर ही नाच कूद रहे थे। अन्ना चुप रहते, तब भी केजरीवाल को कोई समस्या न होती। किसी के भी मौन की पचास व्याख्याएं की जा सकती हैं। लेकिन अन्ना तो बोल रहे हैं। वे लोकपाल बिल की प्रशंसा कर रहे हैं। केजरीवाल इस का क्या जबाव दें ? दिल्ली में सरकार बनायें या न बनाये, इसको लेकर केजरीवाल इतने संकट में नहीं थे, जितना अन्ना को क्या जवाब दें ? ऐसा जबाव जिस से सांप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे, लेकिन लगता है अब उन्होंने इस का समाधान पा लिया है।
केजरीवाल का कहना है कि अन्ना को लोकपाल जैसी गहरी बातों की समझ नहीं है । क्योंकि क़ानून का सारा काम अंग्रेजी में होता है और इसमें अनेक तकनीकी बातें होती हैं । अन्ना इतना कहां समझ पाते हैं। उन्हें अंग्रेजी तो आती नहीं । जब केजरीवाल अन्ना के साथ थे तो वे घंटों अपना मगज खपाकर अन्ना को ये सब गहरी बातें समझा देते थे । लेकिन अब अन्ना को समझाने वाला रालेगन सिद्धी में कोई नहीं बचा, इसलिये वे नासमझी में लोकपाल बिल के पारित होने पर तालियां बजा रहे हैं । यदि मान लिया जाये कि अन्ना इस देश की आम जनता के प्रतीक हैं और देश की आम जनता सरकारी कामकाज अंग्रेजी में होने के कारण उसके भीतर की ख़ामियों को पकड़ नहीं पाती तो इसका इलाज क्या है ? एक इलाज तो यही है कि कोई दलाल या ऐजंट ऐसा हो जो सरकार को जनता की बात और जनता को सरकार की बात बताता रहे । ऐसा पहले भी होता रहा है । इस पद्धति का सबसे बडा नुक़सान यह होता है कि इससे जनता को कोई लाभ नहीं मिल पाता , सरकार या व्यवस्था का भी बाल बांका नहीं होता, लेकिन एजेंट या दलाल की पौ बारह हो जाती है । उत्पादक और उपभोक्ता के बीच जब सीधा संवाद स्थापित हो जाता है तो सबसे ज़्यादा हल्ला बिचौलियों की ओर से ही होता है । केजरीवाल के ग़ुस्से और हैरानी का एक और कारण भी है । जब से केजरीवाल अन्ना को छोड़कर गये हैं , तब से लेकर अब तक अन्ना की अंग्रेजी का हाल तो पूर्ववत ही है । फिर अन्ना लोकपाल बिल को समझने का दावा किस बूते पर कर रहे हैं ? इससे पहले भी देश के राजनैतिक दल देश की आम जनता की सूझबूझ पर तरस खाते रहे हैं । कई तो उसे अनपढ तक करार देते हैं । उसका कारण भी शायद उसका अंग्रेजी जानना न होगा । केजरीवाल शायद नहीं जानते कि इस देश की आम जनता की समझ अंग्रेजी जानने वालों से कहीं ज़्यादा है । इसके साथ ही अपने अधिकारों और अपने साथ हो रहे अन्याय से लड़ने के लिये उसे अंग्रेजी की नहीं बल्कि साहस की ज़रुरत है । यह साहस उसमें अंग्रेजी भाषा को दलाली की तरह प्रयोग करने वालों से कहीं ज़्यादा है । इसका परिचय इस देश की जनता ने इन्दिरा गान्धी के आपात काल में दिया भी था । उन दिनों जब आम जनता सत्याग्रह कर जेल जा रही थी तो अंग्रेजी पढ़े लोग दरबार में भांड नृत्य में मशगूल थे ।
यदि केजरीवाल को यह पता ही है कि सरकार अंग्रेजी की आड़ में ही इस देश के लोगों के साथ धोखा कर रही है तो वे अंग्रेजी के इस साम्राज्य के खिलाफ हल्ला क्यों नहीं बोलते ? कहा भी गया है , चोर को नहीं चोर की माँ को मारो । लेकिन केजरीवाल तो जानते बूझते हुये भी चोर की मां के खिलाफ मुंह नहीं खोल रहे । वे तो , इसके विपरीत अन्ना से कह रहे हैं कि मुझे डंडों से मार लो लेकिन मेरी बिचौलिए की भूमिका पर मत प्रहार करो । मुझे एक अवसर तो दो कि मैं आपको अंग्रेजी के इस लोकपाल का अर्थ समझा दूँ । ऐजंट या दलाल की यही ख़ूबी होती है कि वह चाहता है , लोग वही स्वीकार करें जो वह कह रहा है । जब लोग अपनी समझ से निर्णय लेने लगते हैं तो दलालों को सबसे ज़्यादा कष्ट होता है । ऐसी स्थिति में उनकी उपयोगिता समाप्त होने लगती है । दलाली के लिये ढाल चाहिये । केजरीवाल ख़ुद मान रहे हैं कि अंग्रेजी उसी प्रकार की ढाल है । फिर केजरीवाल उस ढाल के खिलाफ मोर्चा क्यों नहीं लगाते ? उत्तर साफ़ है । यदि वह ढाल ही टूट गई तो केजरीवाल की भी ज़रुरत नहीं रहेगी , क्योंकि बक़ौल केजरीवाल तब अन्ना यानि देश की जानता सारे लोकपालों के अर्थ स्वयं ही समझ जायेगी । लम्बे अरसे से केजरीवालों की फ़ौज इस देश में यही खेल खेल रही है । दुर्भाग्य से जिन्होंने शुरुआत भारतीय भाषाओं से की थी , वे भी अगले मोड़ तक आते आते अंग्रेजी भाषा के दलदल में फंस गये । यदि कोई अन्ना बिना अंग्रेजी जाने भी देश को समझने का दावा करता हो तो केजरीवालों की यह फ़ौज तमाम काम छोड़ कर अन्ना पर टूट पड़ती है। लेकिन जब अन्ना हजारे ने रालेगण सिद्धी में अरविंद केजरीवाल के दूत गोपाल राय को मंच पर ही गांव से निकल जाने के लिए कहकर गुस्सा जाहिर करना शुरू किया, तब तक बहुत देर हो चुकी थी और दिल्ली में अरविंद केजरीवाल,’अन्ना को अंग्रेजी नहीं आती’, कहकर उनका मजाक उड़ाने की स्थिति में पहुंच चुके थे। अब देखना केवल यह है कि अरविंद केजरीवाल को लेकर भारतीय राजनीति में रूचि रखने वाले लोगों द्वारा अपने हितों की रक्षा के लिए किया गया यह प्रयोग दिल्ली से आगे बढ़ पाता है यह धूमकेतु की तरह इधर-उधर राख बिखेर कर नष्ट हो जाता है?
अब क्योंकि किन्हीं भी कारणों से और किसी की भी रणनीति से आम आदमी पार्टी उस स्थिति में पहुंच गई है कि इसकी अवहेलना करके बचा नहीं जा सकता। यदि ऐसा किया गया तो वह शुतुरमतूर्ग की तरह रेत में गर्दन देने के समान होगा। फिलहाल आप को लेकर हड़बड़ी में जो कहा और लिखा जा रहा है वह रक्षात्मक ज्यादा लगता है और गंभीर विवेचननुमा कम, लहजा कुछ-कुछ सफाई देने जैसा है। आम आदमी पार्टी अपने नेता अरविंद केजरीवाल की सादगी को आगे करती है तो दूसरे राजनैतिक दल भी भागदौड़ करके अपने स्टोर में से कुछ उदहारण ला कर उसका मुकाबला करने का प्रयास करते दिखाई देते हैं। कोई भाग कर गोवा के मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर को दिखा रहा है, तो कोई हड़बड़ी में त्रिपुरा के मुख्यमंत्री माणिक सरकार को लेकर आ हाजिर हुआ है। जिनकी इतिहास में रूचि है वे कभी लोकसभा के अध्यक्ष रहे रविराय को ओड़िशा के किसी कोने से ढूंढ़ लाए हैं। जिनकी और भी पीछे जाने की हिम्मत है वे गृहमंत्री रह चुके और अब परलोक चले गए इंद्रजीत गुप्ता को झाड़-पोछ रहे हैं। यह एक प्रकार से आम आदमी पार्टी की चाल में ही फंसने जैसा है। आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल भी चाहते हैं कि सारी बहस इन्हीं सतही मुद्दों पर घूमती रहे ताकि असली गंभीर मुद्दों से बचा जा सके।
गंभीर और गहरे दूरगामी मुददों पर भारत की राजनीति में बहस ना हो इसको लेकर देश में वातावरण कुछ देशी—विदेशी शक्तियों ने पिछले दो दशकों से ही बनाना शुरू कर दिया था। मीडिया में और विश्वविद्यालयों में यह बहस अच्छा प्रशासन बनाम विचारधारा के नाम पर चलाई गई थी। इस आंदोलन में यह स्थापित करने की कोशिस की गई थी कि हिंदुस्तान की तरक्की के लिए पहली प्राथमिकता अच्छे प्रशासन की है विचारधारा का राजनीति में ज्यादा महत्व नहीं है। मीडिया की सहायता से सब जगह यह शोर मचाया जाने लगा कि विचारधारा महंगा शौक  है जिसे हिंदुस्तान झेल नहीं सकता। हिंदुस्तान को तो अच्छा प्रशासन चाहिए इसी आंदोलन में से भ्रष्टाचार समाप्त करने के स्वर उभरने लगे थे और इसी आंदोलन में देशवासियों में राजनैतिक नेतृत्व और सांविधानिक व्यवस्थाओं के प्रति अनास्था का वातावरण तैयार किया। इस आंदोलन को चलाने वाले लोगों ने बहुत शातिराना अंदाज से यह बात गोल कर दी कि अच्छा प्रशासन या भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन की कल्पना आईसोलेषन में नहीं की जा सकती । आंदोलन चलाने वालों ने बहुत ही शातिर  तरीके से अच्छे प्रशासन अथवा भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन को विचारधारा के खिलाफ खड़ा कर दिया। ऐसा माहौल बनाया गया मानों विचारधारा और भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन एक दूसरे के विरोधी हों और हिन्दुस्तान को यदि आगे बढ़ना है तो उसे विचारधारा को त्यागना होगा। जबकि वास्तविकता इसके विपरीत है। सत्ता का वैचारिक आधार कोई भी, साम्यवादी, मिश्रित अर्थव्यवस्था, एकात्म मानवतावादी , पूंजीवादी या फिर माओवादी ही क्यों न हो अच्छा प्रशासन तो सभी वैचारिक व्यवस्थाओं के लिए अनिवार्य शर्त है। वह सभी प्रकार के वैचारिक सत्ता मॉडलों का अभिन्न अंग है।
लेकिन मुख्य प्रश्न यह है कि हिन्दुस्तान में पिछले दो दशकों में हड़बड़ी में सुप्रशासन और विचारधारा को एक दूसरे के खिलाफ सिद्ध करने का आंदोलन चलने की जरूरत क्यों पड़ी? भारत में कुल मिलाकर तीन वैचारिक प्रतिष्ठान आसानी से चिन्हित किए जा सकते हैं। विभिन्न साम्यवादी दलों के नेतृत्व में साम्यवदी वैचारिक मॉडल और संघ परिवार के नेतृत्व  में एकात्ममानव दर्षन पर आधारित भारतीय वैचारिक मॉडल। तीसरा खेमा, जिसे सही अर्थो में वैचारिक मॉडल नहीं कहा जा सकता सोनिया गांधी की पार्टी का है जिसमें सत्ता सुख भोगने के लालच में विभिन्न विचारधराओं के वाहक अपनी सुविधा अनुसार एक छतरी के नीचे एकत्रित हैं। इस खेमें में नक्सलवाद से लेकर हिन्दुत्व की चर्चा करने वालों तक, विशुद्ध पूंजीवाद से लेकर शत प्रतिशत राज्य नियंत्रित अर्थव्यवस्था के पक्षधर भी हैं। इसमें अभी भी मुस्लमानों को अलग राष्ट्र मांगने के पक्षधर हैं और ईसाई स्थान का सपना संजोने वाले ही इस खेमे में षामिल हैं। बाबरी ढांचे के टूटने पर खून की नदियां बहाने की धमकियां देने से लेकर शयनगृह में छिप कर ताली बजाने वाले भी इसी खेमें में है। अमेरिका के आगे दंडवत करने वाले भी इसी खेमे में है और उसे सबक सिखाने वाले भी इसी खेमे में है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि इस खेमे की न कोई अपनी पहचान है और न ही कोई प्रतिबद्धतता । भारत की राजनीति में जिन देशी—विदेशी शक्तियां के अपने निहित स्वार्थ हैं उनके लिए सोनिया गांधी की पार्टी जैसा खेमा ही सबसे ज्यादा अनुकुल होता है। सोवियत रूस के पतन के बाद अमेरिका के लिए साम्यवादी वैचारिक मॉडलों की चुनौती एक प्रकारी से समाप्त हो गई थी। भारत में इसकी शक्ति पहले भी पष्चिमी बंगाल में ही सिमट कर रह गई थी और इसे निर्णायक चोट ममता बनर्जी ने पहुंचा ही दी थी। इसलिए इतना स्पष्ट ही था कि आने वाले समय में भारत की राजनीति में मुख्य दंगल संघ परिवर के नेतृत्व में राष्ट्रवादी शक्तियों के भारतीय वैचारिक मॉडल और सोनिया गांधी की पार्टी के पहचान ही और बिना किसी प्रतिबद्धता के निर्मित हुए खेमे में होने वाला है।
मान लीजिए सोनिया गांधी पार्टी का खेमा हार जाता है तो भारत की सत्ता के केंद्र में भारतीय वैचारिक प्रतिष्ठान स्थापित हो सकता है, और यदि उसमें अटल बिहारी बाजपेयी के शासन काल के प्रयोगों से सबक हासिल कर लिया तो वह लंबे देर तक इस केंद्र में रह भी सकता है। सैम्यूल हंटिंगटन ने जिन सभ्यताओं के संघर्ष की भविष्यवाणी की है उसके अनुसार भारत में राष्ट्रवादी शक्तियों  के केंद्र में आ जाने से भारतीय संस्कृति और सभ्यता एक बार फिर विश्व में अपना सम्मान पूर्वक स्थान ग्रहण कर सकती है। इसलिए भारत मे रूचि लेने वाली देशी विदेशी शक्तियों  को हर हालत में कांग्रेस-1 के पराजित हो जाने पर कांग्रेस-2 को स्थापित करने के प्रयास करने ही थे। लगता है कि आम आदमी पार्टी कांग्रेस-1 के स्थान पर कांग्रेस-2 के रूप में ही आगे बढ़ायी जा रही है। यही कारण है कि अरविंद केजरीवाल उन सब प्रश्नों पर बात करने से बचते हैं जो इस देश के भविष्य के लिए महत्वपूर्ण हैं। आश्चर्य है कि जब  कभी कभार इन मुददों पर विवसता में बोलते भी हैं तो उनके विचारों में और कांग्रेस-1 के विचारों में कोई मौलिक अंतर दिखाई नहीं देता। कश्मीर में जनमत संग्रह कराने के प्रश्न पर जो बात पिछले पांच दशकों से कांग्रेस कह रही है, पाकिस्तान कह रहा है, आतंकवादी कह रहे हैं वही बात इस पार्टी के प्रशांत भूषण कह रहे हैं। अनुच्छेद 370 पर आम आदमी पार्टी की वही राय है जो कांग्रेस (आई) की है। आतंकवाद पर भारत और माओवाद प्रभावित राज्यों से सेना को हटाने या फिर वहां उनकी शक्ति को नपुंसक स्तर तक लाने की बात कांग्रेस-1 भी कह रही है और आम आदमी पार्टी भी कह रही है। कांग्रेस (आई) भी यह मान कर चलती है कि इस देश में मुसलमानों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया जा रहा है और उनके लिए अलग से कानून बनाया जाना चाहिए। मोटे तौर पर आम आदमी पार्टी भी यही कहती है। कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह भी यह कहते हैं कि इस देश में जहां भी मुस्लिम आतंकवादी मारा जाता है वह जाली एनकांउटर होता है। केजरीवाल की पार्टी का भी यही मत है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मामले में आम आदमी पार्टी को भी यही लगता है कि उनका ऑडिट कर देने से समस्या हल हो जाएगी।  ये केवल कुछ उदाहरण हैं मोटे तौर पर नीति के मामले में सोनिया गांधी की पार्टी और आम आदमी पार्टी में कोई अंतर नहीं है। बहस केवल इस बात को लेकर हो रही है कि इनके प्रशासन में भ्रष्टाचार बहुत ज्यादा है जब हम आएंगे भ्रष्टाचार को खत्म करने की कोशिश करेंगे। जहां तक वैचारिक नीति का प्रश्न है आम आदमी पार्टी भी कांग्रेस का ही प्रतिरूप है, इसलिए जिन पूंजीवादी प्रतिष्ठानों को सोनिया कांग्रेस के गिरने का खतरा दिखाई देता है उन्होंने तुरंत आम आदमी पार्टी पर दांव लगाना  शुरू कर दिया है क्योंकि आम आदमी पार्टी से वैचारिक नीतिगत निरंतरता बनी रहेगी । इसलिए देशी विदेशी शक्तियों के निहित हित प्रभावित नहीं होंगे। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में यदि राष्ट्रवादी शक्तियां सत्ता में आ जाती हैं तो सभ्यताओं के संघर्ष में एक ऐसी सभ्यता फिर से अंगड़ाई लेने लगेगी जिसे अभी तक विश्व शक्तियों ने हाशिए पर धकेल रखा है।

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