अरविन्द केजरीवाल के नाम एक पाती

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प्रिय अरविन्द केजरीवाल जी,  kejriwal

नमस्कार !

पिछले कुछ दिनों से आपको पत्र लिखने के लिए सोच रहा था. पर एक आम आदमी कि परेशानियां तो आप जानते ही है। घर-ऑफिस कि जिम्मेदारियों के बीच समय निकालते निकालते इतने दिन निकल गए। इस देरी का हालांकि फायदा ये हुआ है कि  इस बीच आप दिल्ली के मुख्यमंत्री हो गए हैं तो आपसे कहने, बतियाने के लिए मेरे पास भी एक-दो बातें ज्यादा हो गयी हैं।

पिछले कुछ समय से,  अन्ना जी के आंदोलन के समय से ही मेरे आस-पास का माहौल बदला है, इतने सारे संयोगों-प्रयोगों को होते देखा है कि ऐसे तो मैं आपसे कई बातें कहना चाहता हूं, बताना चाहता हूं। पर  बातचीत शुरू करने के लिए जो सबसे पहला मुद्दा एक आम आदमी कि समझ से लगता है कि वो आपकी सेहत का है। एक आम आदमी के लिए उसका शरीर  ही सबकुछ होता है और इस बात पर आपने मुझे बहुत निराश किया है। करीबन आज 15 दिन हो गए होंगे आपकी खांसी के। मुझे नहीं पता कि आप किससे अपना इलाज़ करवा रहे हैं। पर  इतना जरुर पता है कि आपका इलाज़ अच्छे से नहीं हो पा रहा है। इतने साल दिल्ली में रहने के बाद इतना दावे से कह सकता हूं कि आम खांसी सही इलाज़ से दिल्ली के ठण्ड के बीच भी मुश्किल से 5 दिन में निपट जाती है। यदि ऐसा नहीं होता तो या तो खांसी आम नहीं है या डॉक्टर सही नहीं है। इसलिए मुझे उम्मीद है कि आप अपने सेहत को गम्भीरता से लेंगे और दोनों ही सम्भावनाओं कि उचित पड़ताल करेंगे। अपनी आम समझ से एक और बात जो मैं आपसे कहना चाहता हूं, वो ये है कि राजनीति में आम आदमी भले काम कि चीज़ हो पर सेहत के मामलात में डॉक्टर खास (Specialist) ही काम के होते हैं, आम नहीं। तो इसलिए यहाँ अपने सिद्धांतों को थोड़ा परे रखियेगा। आपकी सेहत हमारे लिए महत्व्पूर्ण है।

आगे बढ़ते हुए मैं आपसे कहना चाहता हूँ कि शपथ लेने जाते हुए आप नीले स्वेटर में बहुत जँच रहे थे और जिस सादगी से आपने भव्यता के प्रतीक समझे जाने वाले पलो  को अपने जीवन में स्वीकार किया वो एक मिसाल है. अखबारों में जो ख़बरें आयी हैं उसके मुताबिक आपने अपने लिए घर भी बेहद सादगी वाला ढूंढ़ने का निर्देश दिया है। उसी खबर के मुताबिक़ पूरा PWD विभाग पिछले कई घंटों से इसमें लगा है जो उनके लिए काफी मुश्किल भरी कवायद भी साबित हो रही है। यहाँ मैं आपसे कुछ कहना चाहता हूं। आपके सादगी में इस विश्वास को मेरा नमन। पर मैं यकीं के साथ ये कहना चाहता हूं कि एक आम आदमी का जेब छोटा हो सकता है लेकिन दिल इतना छोटा नहीं कि अपने मुख्यमंत्री को एक चारदीवारी वाला मकान मिलने पर तंज़ करे। आप इस आशंका को पूरी तरह अपने दिल से निकाल दे। मैं ये बातें आपको इसलिए लिख रहा हूं क्यूंकि उसी अखबार में एक खबर ये भी छपी थी कि पूर्वी दिल्ली के झुग्गी-झोपड़ियों के इलाके में छतें गिर गयी हैं और आबादी का एक बड़ा हिस्सा भरी ठण्ड में भी खुले आसमान के नीचे रहने को मजबूर हैं। PWD विभाग मुख्यमंत्री के लिए एक सादे घर के इंतज़ाम में मशगूल रहने के कारण यदि इनकी सुध नहीं ले पाया तो ये उतना ही निर्मम होगा जितना मुख्यमंत्री के लिए एक आलिशान बंगला ढूंढ़ने में लगे रहने में सुध न ले पाने के कारण होता। ये तो एक तात्कालिक कारण है। एक बड़ा कारण ऐसा कहने का ये है कि मैंने उसी दिन एक और खबर पढ़ी थी। ये खबर उन मुख्यमंत्रियों के बारे में थी जिन्होंने ऐसी ही कम-ज्यादा सादगी दिखायी थी। जैसे बंगाल के मुख्यमंत्री, त्रिपुरा के मुख्यमंत्री, ओड़िशा के मुख्यमंत्री थे। अब अगर बंगाल- ओड़िशा के आम आदमी कि बात की जाये जो दिल्ली कि सड़कों पर अक्सर मिल जायेंगे तो उनसे मिलकर तो दिल्ली के आम आदमी को खुद के खास होने का रश्क होने लगे। आप इशारा समझ रहे होंगे। मैंने कहीं पढ़ा था कि किसी भी चीज़ का अतिरेक उसके गुणों को समाप्त कर देता है।

आपने राजनीति में कम समय में ही ऐसे कई अभिनव प्रयोग करके दिखा दिए हैं कि बड़े बड़े महारथीयों के भी होश गम हो गए। इसके लिए साधुवाद। जब आपने कांग्रेस से गठबंधन के लिए वापस जनता के बीच  जाने का, उसकी राय इसपर राय जानने का प्रयोग किया तो यकीं मानिये मेरा दिल फूला नहीं समा रहा था। आप का ही एक भाषण सुना था जब आप मेरे इलाके में चुनाव प्रचार के लिए आये थे। आपने कहा था कि आम आदमी डरा हुआ है। ये बात मैंने उस दिन प्रत्यक्ष महसूस की। आपके उस प्रयोग से दिल तो फुला नहीं समां रहा था पर दिमाग में कुछ डर सा भी लगा, पर चूंकि आम आदमी को खुश होने के मौके बहुत कम मिलते हैं, इसलिए उस आशंका को दबा मैं सबों के साथ खुश हो गया। जनता कि राय से सरकार चले, उसकी भागीदारी हो- वाह मुझ जैसे आम आदमी को तो मनो जमीं पर ही जन्नत नसीब हो गयी। पर अब हर काम क्षेत्र कि जनता के राय से, मर्ज़ी से ही होगा; क्षेत्र कि जनता के मर्ज़ी से ही कानून बनेंगे, हटेंगे- ये मैंने आपके पार्टी के कई नेताओं के मुह से और आपके मुंह से भी सुना। इसने मेरी पहले दिन कि आशंका को फिर से सर उठाने का मौका दे दिया।  फिर आपके एक विधायक को टीवी पर एक सवाल के जवाब में जम्मू-कश्मीर के भारत या पकिस्तान में रहने के सन्दर्भ में इसी फॉर्मूले को लागु करने की जिद करते देखा। ये सुनने के बाद मुझे वही बात याद आ गयी- किसी भी चीज़ का अतिरेक उसके गुणो को समाप्त कर देता है। ये सुनने के बाद मुझे लगा कि मुझे आपको कुछ बातें जरुर बतानी चाहियें। एक दिल्लीवासी होने के नाते 700 ली. मुफ्त पानी और बिजली के आधे बिल मेरे लिए जन्नत कि नेमतों से कम नहीं है। पर इन सबके बावजूद इसके लिए जम्मू-कश्मीर कि कीमत थोड़ी ज्यादा लगती है। मैं एक आम आदमी हूं इसलिए अपनी ताकत के साथ अपनी कमजोरोयों को भी अच्छे से जानता हूं। मैं आपकी इस बात से इत्तिफ़ाक़ रखता हूँ कि आम आदमी डरा हुआ है। मैं भी डरा हुआ हूं, अपनी कमजोरियों से। मैं डरा हुआ हूं कि जम्मू-कश्मीर की छोड़िये, ऐसे प्रोत्साहन मिलने पर कल को मैं खुद दिल्ली को एक अलग देश बनाने कि मांग का समर्थन कर दूं। मैं डरा हुआ हूँ कि यदि क्षेत्र कि जनता की मर्ज़ी के हिसाब से ही कानून बनने लगे/ ख़त्म होने लगे तो देश के सबसे खराब लिंग अनुपात वाले पंजाब में वहाँ कि जनता अपने पूर्वाग्रहों के कारण भ्रूण-हत्या-रोकथाम कानून खत्म न कर दे. मैं डरा हुआ हूँ कि ऑनर किलिंग के लिए कुख्यात हरयाणा में जनता उसे जायज़ बनाने का कानून न ले आये। ऐसी और कई चीज़ें हैं जिनसे मैं डर जाता हूं। और मैं डरता हूँ कि आम आदमी को फायदा पहुचने और उसका उत्थान करने वाले पहले भी आये कई कथित क्रांतिकारी विचारों, इन्कलाबों जैसे समाजवाद, समतावाद, मार्क्सवाद कि तरह ये इंकलाब भी अपने कर्णधारों के अतिरेक उत्साह और अकुशलता के कारण बिना किसी ठोस बदलाव को लाये एक चूका हथियार बन कर न रह जाये।

हो सकता है कि मैं नाहक डर  रहा होऊं और ऐसा कुछ न हो. लेकिन ये भी हो सकता है कि मेरा डर  सही साबित हो, क्यूंकि इस देश के इतिहास ने कई बार ऐसे डर को सही साबित किया है- विनोबा भावे के आंदोलन से लेकर जेपी के आंदोलन तक और शायद अनना के आंदोलन तक भी। एक और बात कहूंगा। अखबारों से ही सुना कि आप लोकसभा का चुनाव भी लड़ने वाले हैं ताकि केंद्र में भी आम आदमी को उसकी सरकार मिल सके। आपको ऐसा करने का पूरा अधिकार है, लेकिन एक दिल्ली-निवासी और एक आम आदमी होने के नाते मैं आपको ये सलाह देने का दुस्साहस करूँगा कि फिलहाल आप दिल्ली पर ही ध्यान दे। आप आम आदमी के सहारे, उसके फैसलो के सहारे सत्ता चलना चाहते हैं। लेकिन आम आदमी कि भी कुछ कमजोरियां है जो उसके फैसलों में भी रहेगी जब तक कि वो इस नयी जिम्मेदारी के लायक खुद को मजबूत नहीं बना लेता। इसलिए आम आदमी को और आम आदमी के नेता के रूप में खुद को पुख्ता होने का समय दीजिये। सदियों कि जड़ता है, इसे ख़त्म होने में सदियां तो नहीं लेकिन दशक का वक़्त तो लगेगा ही, इसे वो वक़्त दीजिय। ज्यादा आंच खाने को जल्दी बनाने से ज्यादा उसे खराब कर देती है. पिछले एक साल में हिंदुस्तान के आम आदमी ने सीरिया, मिस्र, अरब के आम आदमी से इतना तो सिखा ही है. मैंने पहले भी लिखा है कि किसी भी चीज़ का अतिरेक उसके गुणों को खत्म कर देता है, चाहे वो उत्साह का अतिरेक हो, फैलाव का या बदलाव का अतिरेक।

ये पात्र जब तक आपको मिले हो सकता है कि नया साल आ जाये। नया सबेरा, नया सूरज, नयी रोशनी। उम्मीद करता हूँ कि ये सूरज अँधेरे में रहने वाले लोगों के लिए नया दिन लेकर आएगा और बदन झुलसा देने वाले दोपहर के अतिरेक से बचा रहेगा।

वंदे मातरम !!

1 COMMENT

  1. अरविंद केजरीवाल के नाम पत्र पढकर अच्छा लगा। उनकी खांसी ठीक नहीं हो रही है यह ज़रूर चिंता का विषय है, उन्हे अपनी सेहत का ध्यान रखना चाहिये। अति हर चीज़ की ख़राब होती है, अधिक काम की भी। जब दिल्ली मे उन्होने जनमत संग्रह किया तो मुझे भी उनका निर्णय व्यावहारिक नहीं लगा था, पर बाद मे लगा कि वह सही निर्णय था।अरविंद की निर्णय लेने की क्षमता पर मै भरोसा करती हूँ कि औनर किलिंग या भ्रूण हत्या या काश्मीर के मसले पर वो जनमत संग्रह नहीं करेगे।
    मेरा भी यही विचार है कि उन्हे दिल्ली पर ही ध्यान देना चाहिये, बहुत जल्दी बहुत कुछ करने से काम बिगड़ने की संभावना हो जाती है, पर अब मुझे लगता है कि एक बार फिर वो हमारे डर को ग़लत साबित कर देंगे।हम डरे थे जब उन्होने सीधा मुक़ाबला शीला दीक्षित से करने की धोषणा की थी,विपक्षियों ने भी कहा कि ये कल की बनी पार्टी क्या कर लेगी…और देखिये क्या हो गया।मै तो अब मानने लगी हूँ इस पार्टी मे जो कहते हैं उसे पूरा करने का दम है…आगे समय बतायेगा।
    जहां तक साधारण सा घर ढूंढने वाली और पूर्वी दिल्ली मे छत गिरने वाली बात है, दोनो का कोई संबध नहीं है केवल मीडिया की बनाई कहानी समझ कर भुला देने वाली बात है।

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