“आद्य धर्मग्रन्थ वेदों का हिन्दी में प्रचार करने वाली अपूर्व संस्था आर्यसमाज”

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-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

धार्मिक एवं सामाजिक संस्था आर्य समाज की स्थापना स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने 10 अप्रैल, सन् 1875 को
मुम्बई नगरी में की थी। स्वामी जी की मातृभाषा गुजराती थी। आर्यसमाज एक धार्मिक एवं
सामाजिक संगठन व आन्दोलन है जिसका उद्देश्य धर्म, समाज व राजनीति के क्षेत्र से असत्य को दूर
करना व उसके स्थान पर सत्य को स्थापित करना है। क्या धर्म, समाज व राजनीति आदि में असत्य
का व्यवहार होता है? इसका उत्तर हां में हैं। यदि धर्म के क्षेत्र में असत्य की बात करें तो हमें सृष्टि की
आरम्भ में ईश्वर प्रदत्त वेद ज्ञान की चर्चा करनी आवश्यक प्रतीत होती है। सृष्टि की उत्पत्ति के पश्चात
जब प्रथमवार मनुष्यों के रूप में युवा स्त्री व पुरूषों की अमैथुनी उत्पत्ति ईश्वर ने की, तो उन्हें अपने
दैनन्दिन व्यवहारों वा बोलचाल के लिये एक भाषा सहित कर्तव्य व अकर्तव्य के ज्ञान की आवश्यकता
थी। वह आवश्यक ज्ञान ‘‘वेद” के रूप में ईश्वर ने मनुष्यों की प्रथम पीढ़ी को दिया जिससे वह अपना समस्त कर्तव्य-व्यवहार
आदि जान सके। इस प्रकार सृष्टि के आरम्भ में मनुष्योत्पत्ति के साथ ही वैदिक धर्म की स्थापना स्वयं परमात्मा ने चार ऋषि
अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को वेद ज्ञान देकर की थी।
यह भी निर्विवाद है कि सृष्टि के आरम्भ से महाभारत काल तक के लगभग 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख वर्षों तक पूरे
भूमण्डल पर वेद व वैदिक धर्म ही प्रचलित रहे जो ज्ञान व विज्ञान की कसौटी पर पूर्ण सत्य और तर्कसंगत थे। महाभारत युद्ध
में हुई जान व माल की भारी क्षति के कारण देश में अध्ययन व अध्यापन का पूरा ढांचा ध्वस्त हो गया था। यद्यपि धर्म तो
वैदिक धर्म ही रहा परन्तु वेद व वैदिक साहित्य के अध्ययन व अध्यापन की समुचित व्यवस्था न होने के कारण इसमें अज्ञान,
अन्धविश्वास, कुरीतियां, सामाजिक असमानतायें-विषमतायें तथा अनेक पाखण्डों सहित संस्कृति व सभ्यता में भी विकार
उत्पन्न होने लगे। अज्ञान के कारण स्वार्थ ने भी शिर उठाया और गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित वैदिक वर्ण व्यवस्था का
स्थान जन्मना जाति व्यवस्था ने ले लिया। वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण शिखर तथा शूद्र निम्न स्थान पर था। यहां तक कहा गया
कि ब्राह्मण द्वारा कही गई प्रत्येक बात अन्य वर्णों को माननीय होती है। इसका अर्थ यह था की ज्ञानी या अज्ञानी ब्राह्मण कोई
अनुचित बात भी कहे, तो उसे इतर सभी मनुष्यों को बिना सोचे विचारे स्वीकार करना होगा। यह ऐसा ही था जैसी कुछ मतों में
वर्तमान में भी व्यवस्था है, जिसके अनुसार धर्म में अकल का दखल नहीं है। इन्हीं कारणों से वैदिक धर्म अनेक अन्धविश्वासों से
ग्रस्त रहा।
संसार में वैदिक धर्म के बाद भारत से बाहर दूसरा मत जो अस्तित्व में आया, उसे पारसी मत के नाम से जाना जाता है।
इसके बाद भारत में बौद्धमत व जैनमतों का आविर्भाव हुआ और कालान्तर में भारत से सुदूर देशों में ईसाई व इस्लाम मत का
प्रादुर्भाव हुआ। इन सभी मतों की भाषा संस्कृत से भिन्न, पारसी, पाली, हिब्रू, अरबी आदि थीं। इसके बाद भारत में सिख मत की
स्थापना भी हुई जिनका धर्म ग्रन्थ गुरू-ग्रन्थ-साहब गुरूमुखी भाषा में है। इस प्रकार से सन् 1875 तक अस्तित्व में आये किसी
भी मत व सम्प्रदाय के धर्मग्रन्थ की भाषा हिन्दी नहीं थी। महर्षि दयानन्द विश्व इतिहास में पहले व्यक्ति थे जिन्होंने वैदिक
धर्म के विकारों वा अन्धविश्वासों के सुधार के लिए युक्तियों व तर्क से वैदिक धर्म के यथार्थ स्वरूप को अपने सत्यार्थप्रकाश
ग्रन्थ में प्रस्तुत किया। यह सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ आर्यसमाज के अनुयायियों के धर्मग्रन्थ वेद के व्याख्या ग्रन्थ के समान है।
सत्यार्थप्रकाश विश्व का पहला धर्मग्रन्थ है जो हिन्दी में है तथा जिसे महर्षि दयानन्द ने आर्यभाषा अर्थात् आर्यों की भाषा नाम
दिया।
सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ की प्रथम रचना सन् 1874 के उत्तरार्ध में काशी में महर्षि दयानन्द जी ने की थी। इसका सन् 1883
में नया संशोधित संस्करण तैयार किया गया जिसका प्रकाशन सन् 1884 में हुआ। यही संस्करण आज आर्यों के धर्मग्रन्थ के रूप

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में पूरे विश्व में प्रचलित व प्रसिद्ध है। यह क्रान्तिकारी ग्रन्थ है। इसका प्रभाव यह हुआ है कि बड़ी संख्या में पौराणिक मान्यता
प्रधान सनातन धर्म के बन्धुओं ने इसे पढ़कर तथा इससे सहमत होकर इसे स्वीकार किया है। ने केवल पौराणिक बन्धुओं ने
अपितु प्रायः सभी मतों के बन्धुओं ने समय-समय पर वैदिक धर्म को स्वीकार किया है। इसका कारण वैदिक धर्म की अन्य मतों
से भिन्न श्रेष्ठ, युक्तिसंगत एवं हितकारी मान्यतायें हैं। सत्यार्थप्रकाश के हिन्दी में होने के कारण महर्षि दयानन्द व
आर्यसमाज के देश-विदेश के सभी अनुयायियों ने हिन्दी सीखी। अन्य मतों के लोगों ने वैदिक मत व सत्यार्थप्रकाश में गुण व
दोषों को जानने की दृष्टि से भी हिन्दी सीखी जिससे एक लाभ यह हुआ कि हिन्दी का प्रचार व प्रसार हुआ। हिन्दी के प्रचार व
प्रसार की दृष्टि में रखकर ही महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश के अंग्रेजी व उर्दू आदि भाषाओं में अनुवाद की अनुमति नहीं दी
थी। इस कारण देश-विदेश में लोगों ने हिन्दी सीखी।
महर्षि दयानन्द के जीवन काल में जब ब्रिटिश सरकार ने भारत में राजकार्यों में भाषा के प्रयोग की संस्तुति के लिये
हण्टर कमीशन बनाया तो महर्षि दयानन्द ने हिन्दी को राजकार्यों में प्रथम भाषा के रूप में मान्यता दिलाने के लिए एक
आन्दोलन किया। इस आन्दोलन के परिणामस्वरूप देश भर में आर्यसमाज के अधिकारियों व अनुयायियों ने बड़ी संख्या में
देशवासियों के हस्ताक्षरों से युक्त ज्ञापन आर्यभाषा हिन्दी को देश के राजकार्य की प्रथम भाषा बनाने हेतु हंटर कमीशन को भेजे
थे। महर्षि दयानन्द की प्रेरणा से आर्यसमाज में आर्यदर्पण, भारत-सुदशा-प्रवर्तक आदि अनेक हिन्दी पत्रों का प्रकाशन आरम्भ
किया गया था जिससे हिन्दी का प्रचार देश भर में हुआ। यह भी जानने योग्य है कि महर्षि दयानन्द से प्रभावित उदयपुर,
शाहपुरा व जोधपुर आदि रिसायतों के राजाओं ने अपने यहां हिन्दी को राज-कार्यों की भाषा के रूप में मान्यता प्रदान की थी।
महर्षि दयानन्द ने अपना समस्त पत्रव्यवहार हिन्दी में ही किया। हिन्दी के सर्वाधिक प्रतिष्ठित पुरुष भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
स्वामी दयानन्द जी के काशी के सत्संगों में सम्मिलित हुए थे और उन्होंने स्वामीजी की प्रशंसा की है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी ने
‘अन्धेर नगरी’ नामक नाटक सन् 1881 में लिखा था। यह नाटक सत्यार्थप्रकाश की प्रेरणा से लिखा गया प्रतीत होता है। मनुष्य
जो पढ़ता व सुनता है उनका संस्कार बनता है। इस प्रकार भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी पर भी ऋषि दयानन्द के संस्कार पड़े ऐसा
प्रतीत होता है।
महर्षि दयानन्द के परलोक गमन के बाद आर्य समाज ने गुरूकुल तथा डी0ए0वी0 स्कूल व कालेज खोले जिनमें हिन्दी
को मुख्य भाषा के रूप में स्थान मिला। आर्यसमाज का यह कार्य भी हिन्दी के प्रचार व प्रसार में सहायक रहा। इसके साथ
आर्यसमाज में हिन्दी की अनिवार्यता के कारण हिन्दी के अनेक विद्वान, वेदभाष्यकार, कवि, पत्रकार, प्रोफेसर, अध्यापक,
स्वतन्त्रता आन्दोलन के नेता व आन्दोलनकारी आदि भी उत्पन्न हुए जिन्होंने हिन्दी में साहित्य सृजन कर हिन्दी के स्वरूप
को निखारने व उसे घर-घर पहुंचाने में प्रभावशाली योगदान किया है। आर्यसमाजों के लिए अपना समस्त कार्य हिन्दी में करना
अनिवार्य होता था। रविवार के सत्संगों में विद्वानों के सभी उपदेश हिन्दी में ही होते थे। यह बात भी महत्वपूर्ण है कि महर्षि
दयानन्द ने अपनी आत्मकथा हिन्दी में लिखी जिसे हिन्दी की प्रथम आत्मकथा होने का गौरव प्राप्त है। ऋषि दयानन्द की इस
आत्मकथा का महत्व इस कारण भी है कि विश्व के इतिहास में ऋषि दयानन्द से पूर्व कभी किसी ऋषि या किसी मत के
संस्थापक आचार्य ने अपनी आत्मकथा नहीं लिखी। इस प्रकार से आर्यसमाज व इसके हिन्दी के लिये समर्पित विद्वानों की
छत्रछाया में देश में हिन्दी ने अपना नया प्रभावशाली व उन्नत स्वरूप प्राप्त किया है। आर्यसमाज के विद्वानों ने प्रचुर मात्रा में
हिन्दी में धार्मिक व सामाजिक साहित्य भी दिया है। इस दृष्टि से देश की अन्य कोई भी धार्मिक, सामाजिक व राजनैतिक संस्था
हिन्दी के प्रचार-प्रसार व संवर्धन में आर्यसमाज से समानता नहीं रखती। आर्यसमाज का हिन्दी के प्रचार व प्रसार में सर्वोपरि
योगदान रहा है। आज देश में हिन्दी का जितना प्रचार है, उसके केन्द्र में आर्यसमाज ही है। यदि आर्यसमाज न होता तो हिन्दी
देश की राजभाषा न होती। दुर्भाग्य यह है कि देश ने आर्यसमाज के हिन्दी के प्रचार, प्रसार व इसे लोकप्रिय बनाने के लिए किये
गये योगदान को देश ने मान्यता प्रदान नहीं की है। हिन्दी को जिस आर्यसमाज ने गौरवपूर्ण स्थान दिलाया है, उसका ज्ञान भी
हमारे देशवासियों को न होना कष्ट देता है।

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आगामी हिन्दी दिवस पर गुजरात में जन्मे महर्षि दयानन्द सरस्वती जिनकी मातृभाषा गुजराती थी, उनके और उनके
द्वारा स्थापित आर्यसमाज के हिन्दी भाषा के लिए किए गए योगदान को स्मरण कर हम दोनों का वन्दन करते हैं। वर्तमान
समय में हिन्दी के स्वरूप को बिगाड़ने के भी प्रयत्न हो रहे हैं। उसमें अंग्रेजी व उर्दू आदि भाषाओं के शब्दों को अनावश्यक रूप से
मिलाया जा रहा है। कुछ व अनेक हिन्दी समाचार पत्रों में भी यह दोष दृष्टिगोचर होता है। कोई भी भाषा अपने शुद्ध रूप में ही
अच्छी लगती है। अंग्रेजी व उर्दू में हिन्दी शब्दों को मिलाने की वकालत नहीं की जाती परन्तु हिन्दी के साथ ऐसा किया जाता है।
इससे हिन्दी प्रेमियों को सावधान रहना है। हमें संस्कृत-हिन्दी के सरल व सुबोध शब्दों का ही अधिक से अधिक प्रयोग करना
चाहिये जिससे यह खिचड़ी भाषा न बने। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य
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देहरादून-248001
फोनः09412985121

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