“आर्यसमाज का मुख्य उद्देश्य सत्य ज्ञान वेद का प्रचार कर असत्य एवं अज्ञान को दूर करना”

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मनमोहन कुमार आर्य

आर्यसमाज एक धार्मिक, सामाजिक, राष्ट्रीय, देश-समाज का रक्षक, अन्धविश्वासों से मुक्त तथा अन्धविश्वासों व सामाजिक कुरीतियों को दूर करने वाला विश्व के इतिहास में अपूर्व संगठन है। विचार करने पर निष्कर्ष निकलता है कि आर्यसमाज का मुख्य उद्देश्य अविद्या का नाश तथा विद्या की वृद्धि करना है। विद्या किसे कहते हैं और इसका स्रोत क्या है। इसका उत्तर है विद्या यथार्थ ज्ञान को कहते हैं। सत्य ज्ञान विद्या की कोटि में आता है। जो पदार्थ जैसा है उसको वैसा ही मानना व प्रतिपादित करना सत्य कहलाता है और वह सत्य ज्ञान ही विद्या है। इसके विपरीत जो ज्ञान सत्य की कसौटी पर खरा न हो वह अविद्या कहलाता है। विद्या वा सत्य ज्ञान का स्रोत वेद है। वेद ईश्वरीय ज्ञान है और इसमें जो कुछ कहा या बताया गया है वह सब सृष्टि के रचयिता ईश्वर द्वारा आदि ऋषियों को दिया गया ज्ञान है। ईश्वर ने उन आदि सृष्टि के चार ऋषियों को वेदों का ज्ञान उसे समस्त मनुष्यों तक प्रचारित करने के लिये दिया था। वेद विद्या के ग्रन्थ हैं और अविद्या से मुक्त हैं। वेद के अनुकूल ज्ञान को विद्या कहते हैं और जो कुछ वेदविरुद्ध है वह अविद्या कहा जाता है। जो मनुष्य विद्या से युक्त होकर उसके अनुकूल आचरण करता है वही मनुष्य कहलाने का अधिकारी होता है।

 

आर्यसमाज का मुख्य उद्देश्य वेद विद्या को जन-जन में प्रचारित करने का है जिससे वह अज्ञान से मुक्त होकर अपने सभी कर्म वेदानुकूल करके धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष के अधिकारी बन सके। यदि वह वेदानुकूल आचरण सहित वैदिक विधि से ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र यज्ञ, पितृयज्ञ आदि नहीं करते तो वह धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष से वंचित रह जायेंगे। परमात्मा ने मनुष्य को आंखे देखने के लिये, कान सुनने के लिये, नाक सूघंने के लिये, त्वचा स्पर्श की अनुभूति कराने के लिये, मुह बोलने तथा जिह्वा भक्ष्य पदार्थों का रस जानने व उसका भोग करने के लिये प्रदान की है। इसी प्रकार ईश्वर ने मनुष्य को अन्तःकरण चतुष्टय जिसमें मन, बुद्धि, चित्त व अहंकार हैं, प्रदान किये  हैं। इनका उपयोग भी संकल्प-विकल्प करने, ज्ञान ग्रहण करने व अज्ञान दूर करने, अपनी विद्या आदि की स्मृतियों को स्थिर बनाये रखने और अहंकार का अर्थ अपने यथार्थ स्वरूप का बोध प्राप्त कर उसी में अवस्थित रहने व ईश्वर के ध्यान व जप आदि क्रियायें करने के लिये दिया है। जो व्यक्ति बुद्धि होते हुए वेदादि साहित्य का अध्ययन नहीं करता वह भावी जन्मों में पशु आदि योनियों में जाकर बिना बुद्धि के जीवन व्यतीत करने को बाध्य होता है। बुद्धि को भाषा व सांसारिक ज्ञान विज्ञान तक सीमित नहीं रखना चाहिये अपितु इससे वेदादि साहित्य का स्वाध्याय करके ईश्वर, जीवात्मा तथा कारण व कार्य प्रकृति का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करके ईश्वरोपासना करके सृष्टि के भक्ष्य व सुख के पदार्थों का त्यागपूर्वक भोग करना चाहिये। लोभ की प्रवृत्ति, अधिक धन संग्रह व अपना सारा समय धन प्राप्ति में ही व्यय करना वित्तैषणा रूपी रोग का लक्षण है। महात्मा चाणक्य ने कहा है कि धन की तीन गति होती है प्रथम भोग, दूसरा दान तथा तीसरा नाश। यदि आपका धन त्यागपूर्वक भोग करने के बाद भी बच जाता है तो उसका दान कर देना चाहिये अन्यथा यह नाश का कारण होगा व हो सकता है।

 

विद्या प्राप्त मनुष्य ईश्वर व आत्मा के सत्यस्वरूप को जानकर ईश्वरोपासना से अपनी आत्मा के दोषों का निवारण करता है। ईश्वर की उपासना से मनुष्य की आत्मा के दोषों का निवारण होकर उसकी अपवित्रता दूर होकर पवित्रता प्राप्त होती है। ईश्वर का साक्षात्कार होने पर संसार का सबसे बड़ा सुख ईश्वर का आनन्द मिलता है और इसके बाद वह मोक्ष को प्राप्त होकर 31 नील से अधिक वर्षों तक मोक्ष का सुख अर्थात् आनन्द को भोगता है। दूसरी ओर वेदज्ञान विहीन लोग अविद्या से ग्रस्त होकर अज्ञान, अन्धविश्वास, मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष आदि का सेवन करके अपनी आत्मा को अधोगति की ओर ले जाकर दुःख, पीड़ा, कष्ट आदि को प्राप्त होते हैं। अंग्रेजी की कहावत है कि इग्नौरेंस इज कौज आफ मिस्टरी अर्थात् अज्ञान ही दुःखों का कारण है यह वैदिक नियम का ही अनुवाद प्रतीत होता है। सृष्टि के आरम्भ से महाभारतकाल तक भारत में सहस्रों वेदज्ञानी ऋषि-मुनि होते थे। तब आर्यसमाज जैसे किसी संगठन की आवश्यकता नहीं थी। महाभारत के यु़द्ध में सभी व अधिकांश ऋषि एवं विद्वान नष्ट हो जाने के कारण अज्ञान, अन्धविश्वासों, कुरीतियां, मिथ्याचार, अन्याय, शोषण, अमानवीयता आदि में वृद्धि होने पर एक ऐसे संगठन की आवश्यकता अनुभव हुई जो इन बुराईयों को दूर कर सके। महाभारत के बाद ईसा के सन् 1863 तक देश अज्ञान, अन्धविश्वास व सत्यासत्य के ज्ञान से विमुख व बहुत दूर जा चुका था। ऐसे समय में महर्षि दयानन्द जी का आविर्भाव हुआ। उन्होंने संसार की सभी बुराईयों को दूर करने का उपाय सोचा। अपने गुरु स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी की शिक्षा एवं प्रेरणा से उन्होंने सभी दुःखों का कारण अविद्या को जानकर इसके उन्मूलन में कार्य करने का निर्णय किया।

 

गुरु-शिष्य के परस्पर संवाद एवं निश्चय का परिणाम ही भविष्य में आर्यसमाज की स्थापना व इसके द्वारा वेदादि सत्साहित्य का प्रचार व प्रसार निश्चित हुआ। महर्षि दयानन्द ने सन् 1863 ईसवी से आर्यसमाज की स्थापना दिवस 10-4-1875 तक देश भर में घूम-घूम कर अज्ञान व अन्धविश्वासों सहित कुरीतियों एवं मिथ्या परम्पराओं का खण्डन किया और आर्यसमाज की स्थापना के बाद 30-10-1883 को मृत्यु होने के दिवस तक उनका अज्ञान व अन्धविश्वासों के खण्डन तथा विद्या के प्रचार-प्रसार का कार्य, जिसे वेद प्रचार कहा जाता है, जारी रहा। महर्षि दयानन्द ने अविद्या दूर करने के लिये अनेक कार्य किये। इसके लिये उन्होंने देश के अनेक भागों में जाकर उपदेश, प्रवचन तथा व्याख्यान द्वारा मौखिक प्रचार किया। लोगों की शंकाओं का समाधान किया। विपक्षी व विरोधियों से शास्त्रार्थ कर उनकी मिथ्या मान्यताओं का निर्मूलन किया। सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, यजुर्वेद-ऋग्वेद (आंशिक) भाष्य, संस्कारविधि, आर्याविभिविनय, पंचमहायज्ञविधि, व्यवहारभानु, गोकरुणानिधि आदि अनेकानेक ग्रन्थों का प्रणयन किया। सभी मत-मतान्तरों के आचार्यों को आमंत्रित कर एक सत्यमत वैदिक मत को स्थापित करने का प्रयत्न किया। मूर्तिपूजा, अवतारवाद, जन्मना-जातिवाद, बाल विवाह, बेमेल विवाह, छुआछूत, ऊंच-नीच, शिक्षा व अध्ययन-अध्यापन में पक्षपात को वेदविरुद्ध, ज्ञान विरुद्ध, न्याय विरुद्ध सहित तर्क व युक्ति विरुद्ध सिद्ध किया। महर्षि दयानन्द जी के बाद उनके द्वारा स्थापित आर्यसमाज और उसके प्रमुख विद्वानों स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, महात्मा हंसराज, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती, पं. गणपति शर्मा, पं. कालूराम जी, स्वामी वेदानन्द तीर्थ, पं. शिवशंकर शर्मा, पं. बुद्धदेव मीरपुरी, पं. गंगा प्रसाद उपाध्याय, स्वामी विद्यानन्द सरस्वती, आचार्य डा. रामनाथ वेदालंकार जी आदि ने भी उनके कार्य को बढ़ाया। ऋषि दयानन्द जी व उनके अनुयायियों के कार्यों से जन्मना जातिवाद व ऊंच-नीच समाप्त हुई व कम हुई। स्त्री-शूद्र सहित सभी मनुष्यों को वेद और विद्याग्रहण करने का अधिकार प्राप्त हुआ। बाल विवाह, सती प्रथा, बेमेल विवाह बन्द हुए तथा गुण-कर्म-स्वभाव पर आधारित विवाह होने आरम्भ हुए और अब भी इनका प्रभाव निरन्तर वृद्धि को प्राप्त हो रहा है। देश आजाद हुआ। इसमें भी सबसे अधिक वैचारिक योगदान ऋषि दयानन्द जी का है तथा उनके अनुयायियों ने क्रान्तिकारी व अहिंसात्मक आन्दोलन में बढ़ चढ़ कर योगदान किया है। कुछ लोग ऐसे हैं जिनकी भूमिका अन्यों से कम रही परन्तु उन्हें सत्ता का सुख भोगने के अधिक अवसर मिले। आर्यसमाज सत्ता से दूर रहा है इसलिये राजनीति व राजनीतिक दलों में अज्ञान व भ्रष्टाचार आदि में वृद्धि हुई।

 

आर्यसमाज का अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि का जो आन्दोलन है वह कभी समाप्त न होने वाला आन्दोलन व प्रचार कार्य है। आर्यसमाज के द्वारा वैदिक सत्साहित्य की रचना व प्रचार से ईश्वर व जीवात्मा सहित मूल प्रकृति का सत्य स्वरूप पूरे विश्व के सम्मुख लाया गया है। अधिकांश लोग अपने स्वार्थों के कारण सत्य को स्वीकार नहीं कर रहे हैं और परिणामतः अपना ही अहित कर रहे हैं। जब उन्हें सद्ज्ञान प्राप्त होगा तो वह निश्चय ही आर्यसमाज की विचारधारा को अपनाकर अपना व अन्यों का कल्याण करने के मार्ग पर आयेंगे। सत्य का प्रचार ईश्वर का कार्य है। जो व्यक्ति असत्य में लिप्त व संलग्न है वह ईश्वर की अवज्ञा कर रहा है। असत्य को छोड़े बिना व्यक्ति, परिवार व समाज की उन्नति नहीं हो सकती। आर्यसमाज और इसकी विचारधारा ही एकमात्र ऐसी विचारधारा है जो पूर्ण सत्य पर आधारित है और इसके अधिकांश अनुयायी सत्य का पालन करते हैं। आर्यसमाज का अज्ञान निवृत्ति का आन्दोलन अभी आरम्भ अवस्था में है। भविष्य में जितने जितने लोग इसे अपनाते जायेंगे यह सफल होता जायेगा। सत्य पर आधारित होने के कारण हमें पूर्ण निश्चय है कि वेद और वैदिक धर्म ही भविष्य के विश्व के धर्म व मत होंगे। हमें अपनी ओर से जितना सम्भव हो वेद अर्थात् सत्य विद्याओं का प्रचार करना है। परिणाम ईश्वर के हाथों में है और वह हमेशा सत्य के पक्ष में ही होता है।

 

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