मनमोहन कुमार आर्य
मनुष्य समाज की एक इकाई है। मनुष्य का अभिप्राय स्त्री व पुरुष दोनों से होता है। इन दोनों के समूहों से मिल कर समाज बनता है। समाज का अर्थ होता कि सभी मनुष्य स्त्री व पुरुष परस्पर समान अथवा बराबर हैं। पृथिवी के किसी भूभाग पर समाज के द्वारा ही देश का निर्माण हुआ है। कुछ अन्य कारण भी हो सकते हैं। समस्त देशों के लोगों से मिलकर ही संसार बनता है। संसार में जितने भी मनुष्य हैं, इनके हित व उपकार की बात कौन सोचता है? एक संस्था है जिसने संसार के सभी मनुष्यों का उपकार करना अपना उद्देश्य बनाया है। वह संस्था है आर्यसमाज और इस संस्था के संस्थापक हैं ऋषि दयानन्द सरस्वती (1825-1883)। हम जब अन्य सामाजिक, धार्मिक व राजनीतिक संस्थाओं को देखते हैं तो हमें किसी का भी उद्देश्य व लक्ष्य मानव मात्र अर्थात् संसार का उपकार करना दिखाई नहीं देता। संसार का उपकार करना आर्यसमाज का उद्देश्य है। यह लक्ष्य ऋषि दयानन्द ने वेदों का तलस्पर्शी अध्ययन करने के बाद निर्धारित किया। वस्तुतः परमात्मा ने सृष्टि के आरम्भ में वेदों की उत्पत्ति प्राणीमात्र के उपकार के लिए ही की थी। प्राणीमात्र के हित में ही संसार के सभी मनुष्यों का हित व उपकार भी सम्मिलित है।
वेदों के अनुसार ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ अर्थात् सारा विश्व वा संसार एक परिवार है। यह भावना वेद के प्रत्येक मन्त्र व शब्द में पाई जाती है। वेद की एक आज्ञा है कि सारे संसार को श्रेष्ठ बनाओं। श्रेष्ठ शब्द आर्य शब्द का ही पर्यायवाची है। इसे बात व सिद्धान्त को वेद के शब्दों में ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ कहा गया है। सारे संसार का उपकार तभी हो सकता है कि जब संसार के किसी मनुष्य के प्रति किसी प्रकार का भी भेदभाव व अन्याय न किया जाये। सबको उन्नति के समान अवसर मिलने चाहियें। इसके लिए सभी मनुष्यों को स्वतन्त्रतापूर्वक जीवन निर्वाह का अधिकार दिया जाना आवश्यक है। इस स्वतन्त्रता की सीमा तब तक होती है कि जब तक किसी निर्दोष मनुष्य को अकारण दुःख व पीड़ा प्राप्त न हो। यह सृष्टि किसी देश, राजा, राजनीतिक दल व किसी मनुष्य विशेष की निजी जागीर नहीं है और न ही यह किसी धार्मिक नेता, विद्वान, किसी विशेष पुत्र व सन्देशवाहक की है। यह सृष्टि परमात्मा की है। उसके द्वारा बनाई गई है। उस परमात्मा के द्वारा ही सभी मनुष्य, प्राणी, अन्न, ओषधियों, दुधारू गौवें, फल, फूल, वायु, जल, अग्नि, आकाश, वेदज्ञान आदि को बनाया गया है। सभी मनुष्य व प्राणी परमात्मा के पुत्र व पुत्रियां हैं। सभी मनुष्यादि प्राणी अपने शुभाशुभ कर्मों का फल भोगने के लिए संसार में ईश्वर के द्वारा जन्म दिये जाते हैं। सभी प्राणियों का भोग पूरा व आंशिक समाप्त होने पर ईश्वर के विधान के अनुसार उनकी मृत्यु होती है। उन्हें अपने पूर्व जन्मों के प्रारब्ध व भोगों को भोगने के लिए कर्म करने व पूर्ण आयु भोगने की स्वतन्त्रता मिलनी चाहिये। कोई मनुष्य किसी मनुष्य या पश्वादि प्राणी की यदि हत्या करता है तो वह दण्डनीय होता है। पशुओं का मांस अभक्ष्य होता है। वह किसी मनुष्य का भोजन कदापि नहीं होता। मनुष्यों के भोजन के लिए परमात्मा ने पर्याप्त मात्रा में अन्न, ओषिधियां, वनस्पतियां, दुग्घ, फल, फूल, जल आदि अनेक प्रकार के पदार्थ बनायें हैं। मनुष्य गौ, अश्व, भेड़, बकरी व हिरण आदि की भांति शाकाहारी प्राणी है। किसी भी मनुष्य का किसी भी पशु व पक्षी को मार कर उसके मांस का भोजन करना ईश्वर की विधान व व्यवस्था को चुनौती है। ईश्वर से तो वह सब दण्डनीय होते ही हैं, देश व समाज के भी शत्रु ही होते हैं। इसका प्रमुख कारण मांसाहारियों में ज्ञान व विवेक की कमी ही कह सकते हैं। समाज में देखा जाता है कि शाकाहारी मनुष्य मांसाहारी मनुष्यों अधिक स्वस्थ, बलवान, दीर्घजीवी व सुखी होते हैं। हाथी शाकाहारी पशु होता है। वह सभी शाकाहारी व मांसाहारी पशुओं में अधिक बलशाली होता है। घोड़ा भी शाकारी प्राणी है। उसी के नाम से अश्वशक्ति व हार्स पावर का प्रयोग किया जाता है जो कि ऊर्जा मापने की इकाई हैं। अश्व का एक गुण होता है कि वह मनुष्यों व पशुओं की तरह लेट कर सोता नहीं है। वह प्रायः जागता ही रहता है। अपनी निद्रा पर उसका नियंत्रण रहता है। अन्य पशुओं से तेज व अधिक देर तक दौड़ने के कारण उसमें यह विशेष गुण होता है। अन्य किसी मांसाहारी प्राणी में इन हाथी व अश्व आदि शाकाहारी पशुओं के समान गुण नहीं पाये जाते। अतः मनुष्यों को भी मांसाहार का त्याग कर शाकाहार को अपनाना चाहिये।
आर्यसमाज संसार के उपकार करने को अपना उद्देश्य मानता है। पूरा नियम है ‘संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना।’ नियम में यह स्पष्ट किया गया है आर्यसमाज का संसार का उपकार करना गौण उद्देश्य नहीं अपितु मुख्य उद्देश्य है। इसके बाद बताया गया है कि सबकी शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करने में उसको सहयोग करना है। शारीरिक उन्नति के लिए आर्यसमाज सबको प्रातः सूर्योदय से पूर्व ब्राह्ममुहुर्त जो प्रातः 4.00 बजे आरम्भ होता है, उसमें जागने की प्रेरणा करता है। प्रातःकाल ब्राह्ममुहुर्त में जागने से अनेक लाभ होते हैं। मनुष्य स्वस्थ व आलस्य रहित होता है। रोगी नहीं होता। उसकी बुद्धि की ग्राहक व स्मरण शक्ति तीव्र व अधिक होती है। प्रातः उठकर मनुष्य को आसन, प्राणायाम वा व्यायाम आदि करने चाहियें। शुद्ध शाकाहारी भोजन करना चाहिये। भोजन में दुग्ध व फल आदि की प्रचुरता रहनी चाहिये। दिन में सोना नहीं चाहिये। पुरूषार्थ करना चाहिये। वेदों में निषिद्ध कार्य चोरी, व्यभिचार आदि नहीं करना चाहिये। ऐसा करने से मनुष्य की शारीरिक उन्नति होती है व उन्हें सुख मिलता है।
आर्य समाज सभी मनुष्यों की आत्मिक उन्नति के लिए भी प्रयत्नशील है। आत्मा की उन्नति ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति के यथार्थ ज्ञान से होती है। इसे विद्या भी कहते हैं। यह ज्ञान वेदों व ऋषियों द्वारा प्रणीत वैदिक साहित्य से होता है। स्वाध्याय व ज्ञान प्राप्ति के लिए सत्यार्थप्रकाश व ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका दो प्रमुख ग्रन्थ हैं। इन ग्रन्थों के अध्ययन से भी अनेक विषयों का यथार्थ ज्ञान होता है। सत्यार्थप्रकाश में सत्य का मण्डन व असत्य का खण्डन किया गया है। इससे पाठक व जिज्ञासु सत्य व असत्य के स्वरूप को जान व समझ सकते हैं। ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति का ज्ञान प्राप्त करने के बाद मनुष्यों को ईश्वर के उन पर व अन्य सभी प्राणियों पर किये उपकारों का ज्ञान भी होता है। ईश्वर के उपकारों से उऋण होने के लिए उन्हें ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना करनी होती है। दैनिक अग्निहोत्र भी ईश्वर, विद्वानों व सृष्टि सहित समाज के हित व उसके ऋण से उऋण होने के लिए करना आवश्यक है। ईश्वरोपासना जिसे सन्ध्या भी कहते हैं तथा दैनिक अग्निहोत्र आदि की वैदिक विधियां भी ऋषि दयानन्द ने लिखी हैं जो सर्वत्र सुलभ हैं। नैट पर सर्च कर इन पुस्तकों को डाउनलोड किया जा सकता है। ईश्वरोपासना तथा दैनिक अग्निहोत्रयज्ञ सहित वैदिक ग्रन्थों का नित्य प्रति स्वाध्याय करना भी आत्मा की उन्नति के लिए आवश्यक है। स्वाध्याय करने से ईश्वर व आत्मा आदि का तो ज्ञान होता ही है, इतर सभी कर्तव्यों व अन्य विषयों का भी ज्ञान प्राप्त होता है। वेद मनुष्य का प्रमुख व पूर्ण धर्म ग्रन्थ है। धर्म कर्तव्य को कहते हैं। वेदों का अध्ययन कर हमें अपने कर्तव्यों का ज्ञान प्राप्त होता है। तदनुरूप आचरण करना ही धर्म होता है। वेदाध्ययन व उसका आचरण ही यथार्थ व सच्चा धर्म है जो साम्प्रदायिक विचारों व मान्यताओं से सर्वथा रहित व मानव हितकारी है। अपनी आत्मिक उन्नति से भी मनुष्य अपना व दूसरों का उपकार करता है। आर्यसमाज इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए सतत प्रयत्नशील है। अतः आत्मा की उन्नति के साधनों का सभी को अभ्यास व पालन करना चाहिये व दूसरों को भी इसकी प्रेरणा करनी चाहिये।संसार के उपकार के अन्तर्गत तीसरा कर्तव्य सामाजिक उन्नति करना है। समाज का अर्थ होता है कि सभी मनुष्य बराबर व एक समान हैं। कोई छोटा व बड़ा अथवा ऊंचा व नीचा नहीं है। सबको समान, पक्षपातरहित होकर व अनिवार्य रूप से ज्ञान प्राप्ति कराई जानी चाहिये। ज्ञान के अनुसार ही सबको कार्य करने चाहिये व कार्य दिये जाने चाहिये। सब अपने अपने ज्ञान व सामर्थ्य के अनुसार अपने सामाजिक कर्तव्यों का निर्वाह करें जिससे देश व समाज की उन्नति हो। यहां यह भी बता दें कि जन्मना जाति व्यवस्था मनुष्यों में भेदभाव उत्पन्न करती है, अतः यह त्याज्य है। इसका व्यवहार शीघ्रातिशीघ्र बन्द होना चाहिये। वेदों के अनुसार मनुष्य की एक ही जाति है और वह ‘मनुष्य’ जाति ही है। मनुष्य का अर्थ होता है कि जो मनन, चिन्तन व विचार करता है। मनुष्य को मनस्वी भी कहते हैं। मनुष्य वह होता है जो सभी कार्य सत्य व असत्य का विचार कर करता है। असत्य का त्याग करता है और सत्य का ग्रहण करता है। वेद और ऋषि दयानन्द मनुष्यों में विवाह भी जन्मना जाति के आधार पर नहीं अपितु परस्पर समान गुण, कर्म व स्वभाव के आधार पर करना निश्चय करते हैं। ऐसा ही आर्यसमाज के सच्चे अनुयायी करते भी हैं। यह नियम किसी एक देश के लिए नहीं अपितु पूरे विश्व के लिये समान रूप से व्यवहार करने योग्य है।आर्यसमाज ने अपने आरम्भ काल, सन् 1875 ईसवी, से ही वेदों की मान्यताओं व सिद्धान्तों का विश्व में प्रचार किया है। इसके साथ आर्यसमाज विश्व में शारीरिक उन्नति, आत्मिक उन्नति व सामाजिक उन्नति के लिए आवश्यक उपायों का प्रचार भी करता है। लोगों के पूर्वाग्रहों, स्वार्थ, अज्ञान आदि के कारण आर्यसमाज के प्रचार का जितना प्रभाव होना चाहिये था, वह नहीं हो सका। आर्यसमाज को रूकना नहीं है अपितु अपने सिद्धान्तों के अनुसार कार्य करते रहना है। सत्य की ही विजय होती है, असत्य की नहीं। देर में ही सही, आर्यसमाज यदि निष्ठापूर्वक कार्य करता रहेगा तो सफल अवश्य होगा। अतः उसे संसार के उपकार के कार्यों को सतत जारी रखना चाहिये। हम पाठकों से आग्रह करेंगे कि वह सत्यार्थप्रकाश और वेदों का स्वाध्याय करें। इससे वह स्वयं भी लाभान्वित होंगे व इससे समाज व संसार को भी लाभ होगा। इस संक्षिप्त चर्चा को यहीं पर विराम देते हैं। ओ३म् शम्।