आर्यसमाज का लक्ष्य है ‘कृण्वन्तो विश्मार्यम्’

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मनमोहन कुमार आर्य,

महर्षि दयानन्द ने आर्यसमाज की स्थापना देश से अविद्या दूर करने के साथ वेदाज्ञा ‘‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम् अर्थात् समस्त विश्व को आर्य वा श्रेष्ठ विचारों सहित उत्तम आचरण वाला बनाने के लिये की थी। आर्यसमाज ने अपने 143 वर्षों के इतिहास में इस दिशा में अनेक महत्वपूर्ण कार्य किये हैं परन्तु किन्हीं कारणों से आर्यसमाज को वह सफलतायें नहीं मिली जो मिलनी चाहियें थी। आर्यसमाज को वर्तमान समय की सभी चुनौतियों को स्वीकार करना है और सफलता व असफलता से ऊपर उठकर अपने कर्तव्य को सम्मुख रखकर कार्य करना है। आर्यसमाज के संगठन में कुछ प्रतिकूल स्थितियों के कारण कई समस्यायें उत्पन्न हो जाती हैं। हमें इन दुर्बलताओं पर विजय पाने के प्रयास निरन्तर करने चाहिये। हमें ईश्वर, वेद और ऋषि भक्ति को धारण कर जन-जन में वेदों का सन्देश पहुंचाना है। सफलता प्राप्ति के लिये यह आवश्यक होता है कि हमारा लक्ष्य जनकल्याणकारी एवं विद्या व ज्ञान से परिपूर्ण व सिद्ध होना चाहिये। हमारा चरित्र व आचरण भी शुद्ध व पवित्र होना चाहिये। हमारे भीतर विनम्रता, अहंकारशून्यता, मितव्ययता, अर्थ शुचिता तथा ईश्वर व वेद ज्ञान के प्रति पूर्ण निष्ठा व समर्पण की भावना होनी चाहिये। यदि ऐसा करके हम संगठित होकर कार्य क्षेत्र में आगे बढ़ेंगे तो हमें कुछ सफलता तो अवश्य ही मिलेगी। इसका कारण यह है कि वेद सभी मतों व पन्थों के धर्म ग्रन्थों की तुलना में अधिक सर्वाधिक प्राचीन, वेद सृष्टिकर्ता ईश्वर से प्राप्त, अविद्या से सर्वथारहित तथा जन-जन का कल्याणकारी है। जो मनुष्य वेद को अपनायेंगे वह अपने पुण्यकर्मों की पूंजी से अपने इस जन्म व परजन्म दोनों का सुधार करेंगे और ईश्वरोपासना आदि कार्यों को करके अधिक सुखी तथा शारीरिक एवं भौतिक दृष्टि से समृद्ध व सम्पन्न होंगे। हमारा व प्रायः सभी आर्य बन्धुओं का अनुभव है कि यदि हम किसी भी मत व पन्थ के व्यक्ति को अपने सिद्धान्त बताते हैं तो पहली कठिनाई यह आती है कि वह हमारी बातों को सुनने के लिये तैयार ही नहीं होते। कुछ सुनने के लिये तैयार होते भी हैं तो उनके भीतर जो जन्म से मत-पन्थों की अविद्या भरी हुई है, उसे साफ करना कुछ मिनट या घंटों में सम्भव नहीं होता। इस पर भी यदि हम उसे अपने वैदिक सिद्धान्तों का परिचय देकर इनकी महत्ता को बतातें हैं तो हमारी बातों को सुन लेने के बाद वह व्यक्ति वैदिक मत व विचारधारा को ग्रहण करने के लिये तैयार नहीं होते। हमें इस पर भी निराश नहीं होना चाहिये। हमें लगता है कि हमारा प्रयास पूर्ण विफल नहीं हुआ अपितु यह एक प्रकार का बीजारोपण करना है। हम समझते हैं कि आज की परिस्थितियों में यह कार्य भी जरुरु है। यदि हम किसी शिक्षित व्यक्ति को ईश्वर-जीव-प्रकृति के अस्तित्व विषयक त्रैतवाद का सिद्धान्त समझा दें और उसकी शंकाओं को पूछ कर उसका निवारण कर दें, इसके बाद ईश्वरोपासना की आवश्यकता, उसकी महत्ता और उससे जन्म-जन्मान्तर में होने वाले लाभों को बता दें तो इसका उस पर अवश्य प्रभाव पड़ेगा। इस अवसर पर हमें उसे अपनी मान्यताओं की एक लघु पुस्तिक भी भेंट करनी चाहिये। इस पुस्तक को सभी नहीं पढ़ेंगे परन्तु कुछ सज्जन व्यक्ति तो पढ़ भी सकते हैं। इससे हमें यह लाभ हो सकता है कि हमनें प्रचार किया है, कालान्तर में इस बीजारोपण के कुछ अच्छे परिणाम हमारे सामने आ सकते हैं। हम जिन लोगों में प्रचार करते हैं, हमें निरन्तर उनके सम्पर्क में रहना चाहिये। वर्तमान समय में आर्यसमाज में अनेक बुराईयां आ गई हैं। इन बुराईयों को चिन्हित कर हमें उन्हें भी दूर करना है। इसमें प्रथम बुराई तो हमें जन्मना जातिवाद की लगती है। अधिकांश आर्यसमाजी ऋषि भक्त अपनी सन्तानों के विवाह अपनी जाति या बिरादरी में करते हैं। इससे उन आर्यों को कठिनाई आती हैं जो आर्यसमाज की विचारधारा को अपनाकर आर्य या आर्यसमाजी बनते हैं  परन्तु जब उनके बच्चे युवा हो जाते हैं तो उन्हें गुण, कर्म व स्वभाव के अनुसार वर-वधु नही मिलते। इन आर्य बने बन्धुओं की अपनी जन्मना जाति के लोग आर्यसमाजियों द्वारा मूर्तिपूजा व पौराणिक व्रत-उपवास आदि न करने के कारण इनसे अपनी सन्तानों के विवाह नहीं करते। हमने अपने अनेक मित्रों को इस समस्या से झूझते देखा है। यह अच्छी बात है कि दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा, नई दिल्ली ने इस ओर ध्यान दिया है और वह ऐसे बन्धुओं के विवाह सम्पन्न कराने के लिये अपनी वेबसाइट पर युवा व युवतियों का पंजीकरण कर इस कार्य में सहायता करते हैं। इस कार्य को और अधिक गति दिये जाने की आवश्यकता है।

 

कृण्वन्तो विश्वर्मायम् का विस्तार करने के लिये हमें स्कूल, कालेज सहित सरकारी व अन्य प्रतिष्ठानों में अपने हिन्दी, संस्कृत व अंग्रेजी आदि भाषाओं में पारंगत विद्वानों को भेज कर कुछ प्रमुख वैदिक मान्यताओं और सिद्धान्तों की चर्चा व व्याख्यान करना होगा और उसका यथार्थस्वरूप प्रस्तुत कर विद्यार्थियों व वहां के कर्मियों को प्रश्नोत्तर करने का अवसर देना होगा। यदि हम सभी विद्यार्थियों की सभी शंकाओं व जिज्ञाओं का समाधान करने में सफल होते हैं तो इसका लाभ अवश्य होगा। इसका आरम्भ हमें अपने विद्यालयों से करना चाहिये। उसके अनुभव के आधार पर हमें किसी गांव व नगर में युवा व प्रौढ़ व्यक्तियों की सभा करके उनको ईश्वर, जीव, प्रकृति, कर्मफल सिद्धान्त और उपासना आदि के विषय में बता कर उनसे अध्यात्म विषयक सभी प्रश्नों को पूछने का अवसर देना चाहिये। यदि हम सबका समाधान करने में सफल हो जाते हैं तो इसका लाभ इस रूप में मिल सकता है कि प्रभावित व्यक्ति वेद व ऋषि दयानन्द के विचारों के प्रति जिज्ञासा भाव रखते हुए वैदिक चिन्तन करने में प्रवृत्त हो सकता है। हमें इन व्यक्तियों को अपना साहित्य भी देना चाहिये और उनसे समय समय पर फीडबैक लेते रहना चाहिये।

 

कृण्वन्तों विश्वमार्यम् को आगे बढ़ाने के लिये हमें अपने आर्यसमाज के सत्संगों के कार्यक्रमों की गुणवत्ता में सुधार भी करना होगा। हमारे विद्वानों को भी किसी प्रमुख विषय को लेकर उस पर प्रभावशाली व सारगर्भित उपदेश करना होगा जिसमें अनावश्यक विस्तार न हो, आत्म प्रशंसा और अनावश्यक उद्धरण न हो, व्याख्यान ऐसा हो जैसा कि दर्शन के आचार्य या विद्यालय में विज्ञान के अध्यापक दिया करते हैं। यदि हम साप्ताहिक सत्संग में किसी एक विषय को लेकर उसका पूरा गहन परिचय व सामग्री श्रोताओं को प्रस्तुत करने में सफल होते हैं, तो निश्चय ही इससे पुराने व नये श्रोताओं को लाभ होगा। हमारे सत्संगों में युवा भी आने लगेंगे। हमारे सत्संगों में भजनों का स्तर भी अच्छा होना चाहिये तथा यज्ञ भी प्रभावशाली विधि से सम्पन्न किये जाने चाहियें। यज्ञ करते हुए आरम्भ वा अन्त में यह उल्लेख अवश्य कर देना चाहिये कि यज्ञ क्यों करते हैं व उससे क्या क्या लाभ होते हैं। यदि लोगों के मन में हम यह बैठा सकें कि यज्ञ वायु व वर्षा जल को शुद्ध करने, रोग के किटाणुओं का नाश करने, रोगियों को स्वस्थ करने, ईश्वर को उपासना द्वारा प्रसन्न करने वा अपने कर्तव्य का पालन करने के लिये करते हैं और इसे करने से ईश्वर हमें इच्छित फल देता है। हम समझते हैं कि ऐसा करने से श्रोता यज्ञ के प्रति आकर्षित होंगे। आर्यसमाज में श्री गणेश दास अग्निहोत्री जी का उदाहरण दिया जा सकता है जिन्होंने महात्मा प्रभु आश्रित जी के सम्पर्क में आकर उनकी प्रेरणा से दैनिक अग्निहोत्र करना आरम्भ किया। इससे उनकी निर्धनता दूर हो गई और वह भौतिक व आर्थिक दृष्टि से अति समृद्ध हुए। वर्तमान मे उनके सुपुत्र श्री दर्शन कुमार अग्निहोत्री जी भी अपने पिता की परम्पराओं का निर्वहन कर रहे हैं। वह भी सुखी व समृद्ध हैं और प्रतिदिन प्रातः व सायं यज्ञ करते हैं। आर्यसमाज में प्रमुख दानियों में से हैं तथा अनेक संस्थाओं को सम्भालते व उनका संचालन करते हैं। ऐसे अनेकानेक उपाय व बातें हो सकती हैं जिनका प्रचार कर हम लोगों को वेद, सत्यार्थप्रकाश और अग्निहोत्र के महत्व को बताकर उन्हें वैदिक धर्म और आर्यसमाज की ओर ला सकते हैं। फल मिलना हमारे हाथ में नहीं है परन्तु पुरुषार्थ तो हम सभी कर ही सकते हैं।

 

हम अपने सभी पाठक मित्रों से भी अनुरोध करते हैं कि वह इस विषय में विचार कर हमें अपने कुछ सुझाव दें जिसका समावेश हम इस विषय के आगामी लेख में हम कर सकें। कृण्वन्तो विश्मार्यम् हमारा कर्तव्य व धर्म है। हमारा सौभाग्य है कि हमारे पास विश्व की श्रेष्ठतम धार्मिक, आध्यात्मिक एवं सामाजिक विचारधारा है। यदि किसी कारण आर्यसमाज की वर्तमान पीढ़ी ने प्रचार में किंचित भी शिथिलता की तो इसके परिणाम वैदिक धर्म के अस्तित्व व हमारी भावी पीढ़ियों के लिये प्रतिकूल व भयावह होंगे। इस संकेत के साथ ही हम अपनी लेखनी को विराम देते हैं।

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