ऋषि दयानन्द ने आर्यसमाज की स्थापना वैदिकधर्म और संस्कृति की रक्षा, प्रचार और उन्नति के लिये की थी

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-आर्यसमाज के स्थापना दिवस 10 अप्रैल पर-

-मनमोहन कुमार आर्य

               संसार में अनेक मतमतान्तर एवं संस्थायें हैं जो अतीत में भिन्नभिन्न लोगों द्वारा स्थापित की गई हैं अब की जाती हैं। इन संस्थाओं को स्थापित करने का इसके संस्थापकों द्वारा कुछ प्रयोजन उद्देश्य होता है। सभी लोग पूर्ण विज्ञ वा आप्त पुरुष नहीं होते। वह सभी अल्पज्ञ ही होते हैं। अल्पज्ञ का अर्थ होता है कि वह विद्या अविद्या तथा ज्ञान अज्ञान से युक्त होते हैं। इस कारण से सभी मतमतान्तरों में जहां कुछ अच्छी बातें हैं वहां अविद्या से युक्त बातें भी हैं जिनसे देश विश्व में अज्ञान के कारण अनेक प्रकार की समस्यायें उत्पन्न हुई है। इस कारण सत्य वैदिक धर्म जिसके आद्य प्रवक्ता वा आचार्य स्वयं सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सृष्टिकर्ता सच्चिदानन्दस्वरूप परमेश्वर रहे हैं, वह वेद ज्ञान सत्य मत विस्मृत कर दिया गया। पांच हजार वर्ष पूर्व हुए महाभारत युद्ध के बाद देश में अव्यवस्थाओं के कारण अज्ञान व अविद्या में निरन्तर वृद्धि होती रही। अवैदिक व अज्ञान से युक्त मत-मतान्तर उत्पन्न होते रहे। मनुष्य दुःखी होते गये और मत-मतान्तरों के कारण तथा सत्य वेदज्ञान का प्रचार न होने के कारण मनुष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष से भी वंचित हो गये।

               सृष्टि के आरम्भ से चल रही ऋषि परम्परा महाभारत के कुछ काल बाद महर्षि जैमिनी पर समाप्त हो गई। उनके बाद कोई सच्चा वेदज्ञानी ऋषि योगी जिसमें दोनों का समन्वित रूप विद्यमान हो, उत्पन्न नहीं हुआ। सौभाग्य से देश में ऋषि दयानन्द (1825-1883) का प्रादुर्भाव हुआ। ऋषि दयानन्द सृष्टि के आरम्भ से महाभारत काल पर्यन्त हुए ऋषियों के समान ही पूर्ण ज्ञानी, ईश्वर के उपासक, योगी एवं वेदों के ज्ञानी थे। उन्होंने अपने ज्ञान योग विद्या से ईश्वर का साक्षात्कार भी किया था। आर्ष विद्या का अध्ययन पूरा करने के बाद उनके सम्मुख अपने कर्तव्यों के निर्वाह का प्रश्न उपस्थित हुआ था। इस कार्य में उनके विद्या गुरु प्रज्ञाचक्षु दण्डी स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी ने उनका मार्गदर्शन करते हुए उन्हें देश की दयनीय अवस्था से युक्त पीड़ित जनता के दुःखों से अवगत कराकर उन्हें अविद्या, अज्ञान, अन्धविश्वास, कुरीतियां तथा सामाजिक बुराईयों आदि को दूर करने की प्रेरणा की। ऋषि दयानन्द ने अपने गुरु की बातों को ध्यान से सुना और उन्हें पूरा करने का आश्वासन दिया था। सन् 1863 में अपने गुरु को दिये हुए वचनों के अनुसार ही उन्होंने अपने भावी जीवन का एकएक क्षण देश से अविद्या के नाश तथा विद्या की वृद्धि में लगाया और भारत को विश्व का आध्यात्मिक विद्या का गुरु बनाने की प्रयास किया। उनकी कृपा से भारत आज विश्व गुरु है। इसका कारण ऋषि दयानन्द द्वारा दिये गये सत्य वैदिक सिद्धान्त और उनके अनुरूप वेद, दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति आदि पर विद्वानों के भाष्य तथा ऋषि के सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय आदि ग्रन्थ हैं। उनका जीवन चरित्र भी विश्व के महापुरुषों में सर्वतोमहान एवं क्रान्तिकारी है। ऋषि दयानन्द जैसा महापुरुष इतिहास में न कभी हुआ और न भविष्य में होने की सम्भावना है। उन्होंने देश व विश्व की जनता को विद्या का अमृतपान कराकर सुखी व आनन्दित करने सहित अविद्या से मुक्त करने के लिये ही चैत्र शुक्ल पंचमी अथवा दिनांक 10 अप्रैल, 1875 को आर्यसमाज की स्थापना मुम्बई में की थी।

               ऋषि दयानन्द ने आर्यसमाज की स्थापना से पूर्व सन् 1863-1875 की अवधि में देश भर में घूमकर वेदों की महत्ता से देशवासियों को परिचित कराया था। देश के शिष्ट व सभ्य जन उनके विचारों से प्रभावित हुए। वह अनुभव करते थे कि ऋषि के द्वारा प्रचारित वैदिक मान्यतायें ही तर्क एवं युक्तिसंगत हैं और उनके सिद्धान्त व भावनायें भी सत्य पर आधारित है। ऋषि दयानन्द स्वार्थशून्य एवं देशहित से युक्त हैं तथा वेद मार्ग पर चल कर ही देश उन्नति करने सहित विश्व के सभी मानवों एवं प्राणीमात्र का कल्याण हो सकता है। ऋषि दयानन्द ने अपने सभी सिद्धान्तों को तर्क एवं युक्तियों पर आधारित किया। वेदों का सृस्कृत-हिन्दी भाष्य करते हुए भी उन्होंने इस बात का ध्यान रखा है कि उनकी कोई बात व मान्यता सत्य, तर्क, युक्ति, मनुष्य व प्राणीमात्र के प्रतिकूल तथा ईश्वर प्राप्ति के मार्ग में बाधक न हो। ऋषि दयानन्द ने जीवात्मा के जन्म ग्रहण करने से लेकर अन्त्येष्टि पर्यन्त किये जाने वाले सभी कृत्यों को वैदिक विचारधारा के आधार पर अज्ञान व अन्धविश्वासों से सर्वथा शून्य तथा अल्प साधनों में सम्पन्न करने का विधान किया है। स्वामी दयानन्द की विचारधारा में आदि से अन्त तक कहीं कोई विरोधाभास तथा अन्धविश्वास एवं किसी के भी अहित का किसी प्रकार का विधान नहीं है।

               वैदिक काल में समाज में प्रचलित आश्रम एवं वर्ण व्यवस्था को भी उन्होंने तार्किक आधार देने सहित उसे समाज की उन्नति में उपयोगी सिद्ध किया है। स्वामी दयानन्द जन्मना जाति पर आधारित व्यवस्था को देश व समाज के लिए अहितकर तथा अन्यायपूर्ण बताते थे। वह स्त्री व शूद्रों सहित सबको विद्या प्राप्ति व वेदाध्ययन का का अधिकार देते हैं एवं शिक्षा को वेदों पर आधारित कर वह सबको निःशुल्क अनिवार्य शिक्षा देने का विधान भी करते हैं। ऋषि दयानन्द विद्या प्राप्ति के बाद व्यक्ति के गुण, कर्म तथा स्वभाव के आधार पर उसका वर्ण निर्धारित करने की प्राचीन व्यवस्था पर प्रकाश डालते है व उसे प्रस्तुत करते हैं। विद्वानों ने गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित वर्ण व्यवस्था का अध्ययन कर इसे समाज के लिये उपयोगी एवं देश व समाज की उन्नति में लाभकारी तथा व्यवहारिक पाया है। इसके साथ ही ऋषि दयानन्द ने वेदों के आधार पर बाल विवाह तथा अनमेल विवाह का विरोध कर विवाह को युवावस्था में गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित करने का विधान किया है। वह पुराणों का अध्ययन कर उसकी अनुचित बातों का त्याग करने की सलाह देते हैं और बताते हैं पुराण में जो बातें हैं वह विष मिश्रित अन्न के समान हैं। अतः पुराणों का सर्वथा त्याग कर वह वेद, दर्शन एवं उपनिषद सहित विशुद्ध मनुस्मृति तथा वेदानुकूल शास्त्रों की मान्यताओं को ही स्वीकार करने का विधान करते हैं। ऋषि दयानन्द ने विश्व के लोगों के हितार्थ वैदिक सत्य मान्यताओं से युक्त सर्वापरि उत्तम तथा मनुष्य की सर्वांगीण उन्नति करने वाला महत्वपूर्ण ग्रन्थ ‘‘सत्यार्थप्रकाश प्रदान किया है। उनके अन्य ग्रन्थ ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कार विधि, आर्याभिविनय एवं ऋग्वेद तथा यजुर्वेद पर संस्कृत व हिन्दी भाष्य भी मनुष्य जाति की दुर्लभ एवं सबसे मूल्यवान सम्पत्तियां हैं जिसका सदुपयोग कर मनुष्य साधारण से असाधारण, निम्न से उच्च और राक्षस व असुर से देवता बन सकता है।

               मनुष्य अपनी बुद्धि को विकसित कर संसार के अधिकाधिक रहस्यों को जान सकता है और सृष्टिकर्ता ईश्वर का साक्षात्कार भी कर सकता है। ऋषि दयानन्द ने अपने समय में प्रचलित सभी अन्धविश्वासों सहित मिथ्या एवं अनुचित सामाजिक प्रथाओं को दूर किया तथा समाज को उनके लाभकारी विकल्प प्रदान किये। जड़ मूर्तिपूजा तथा फलित ज्योतिष को वह मनुष्य जाति का सबसे बड़ा शत्रु समझते थे। इनका उन्होंने प्रमाण पुरस्सर विरोध किया है। जड़मूर्ति पूजा के विरोध में उन्होंने 16 नवम्बर, 1869 को काशी के विश्व के शीर्षस्थ लगभग 30 सनातन व पौराणिक मत के विद्वानों से शास्त्रार्थ कर उन्हें पराजित किया था। जड़मूर्ति पूजा के विरोध सहित उन्होंने माता, पिता, आचार्यों तथा विद्वानों सहित परिवार के वृद्धजनों की सेवा सुश्रुषा द्वारा पूजा व सम्मान करने का विकल्प दिया है और ईश्वर की उपासना करने के लिये सन्ध्या एवं दैनिक यज्ञ पद्धति को प्रचलित किया जो वैदिक काल से प्रचलित थी।

               ऋषि दयानन्द ने देश की परतन्त्रता को अपने वैचारिक चिन्तन में स्थान दिया था। उन्होंने देश की गुलामी को दूर कर स्वतन्त्र कराने तथा अवैदिक मतों का पराभव कर ईश्वर द्वारा प्रेरित धर्म का प्रचार व उसे जन-जन का धर्म बनाने के लिये भी अपने सत्यार्थप्रकाश में विचार प्रस्तुत किये हैं। उनका लिखा स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश उसकी मान्यतायें मानव धर्म, सार्वजनिकधर्म तथा विश्वधर्म का पर्याय है। देश की स्वतन्त्रता को रेखांकित कर उन्होंने सत्यार्थप्रकाश के आठवें समुल्लास में लिखा हैकोई कितना ही करे परन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है वह सर्वोपरि उत्तम होता है। अथवा मतमतान्तर के आग्रहरहित, अपने और पराये का पक्षपातशून्य, प्रजा पर पिता माता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है।ऐसे ही कुछ वचन ऋषि दयानन्द जी ने अपने आर्याभिविनय आदि अन्य ग्रन्थों में भी कहे हैं। ऋषि के इन शब्दों से प्रेरणा ग्रहण कर प्रायः सभी आर्यसमाज के अनुयायियों ने किसी न किसी रूप में देश की आजादी में योगदान किया। पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा, स्वामी श्रद्धानन्द, लाला लाजपत राय, भाई परमानन्द, पं. रामप्रसाद बिस्मिल तथा अनेक क्रान्तिकारियों ने प्रत्यक्ष रूप में ऋषि के इन शब्दों से ही प्रेरणा लेकर देश की स्वतन्त्रता में प्रमुख भूमिका निभाई थी। शहीद भगत सिंह का पूरा परिवार आर्यसमाज का अनुयायी था। उनके दादा सरदार अर्जुन सिंह दैनिक यज्ञ करते थे और भगतसिंह जी का बचपन में यज्ञोपवीत संस्कार एक आर्य पुरोहित पंडित लोकनाथ तर्कवाचस्पति जी ने कराया था। देश की आजादी में ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज का योगदान विषयक प्रभूत साहित्य आर्यसमाज में सुलभ होता है। ऋषि दयानन्द के समकालीन महापुरुषों पर दृष्टि डालते हैं तो पाते हैं कि ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज ने जितना योगदान आजादी के आन्दोलनों में किया है, उतना अन्य किसी धार्मिक व सामाजिक संस्था ने नहीं किया। यह भी लिख दें कि आजादी खून देकर मिली है, अहिंसा का जप करने से नहीं मिली।

               एक प्रश्न यह भी है कि यदि आर्यसमाज स्थापित न होता तो क्या होता? हमारा अनुमान है कि ऐसी स्थिति में वेद, सनातन धर्म एवं अहिंसा पर आधारित बौद्ध, जैन तथा अद्वैत मत आदि का अस्तित्व पूर्णतः विलुप्त व समाप्त हो जाता व हो सकता था। यह ईसाई मत व इस्लाम में विलीन हो सकते थे। वैदिक सनातन धर्म की रक्षा का प्रमुख आधार ऋषि दयानन्द का सत्यार्थप्रकाश, आर्य विद्वानों का वेद प्रचार व धर्म रक्षा के कार्य, आर्य विद्वानों का विरोधी मतों से अनेक विषयों पर शास्त्रार्थ एवं शास्त्रार्थों में उनकी पराजय आदि थे। इसके साथ डी.ए.वी. स्कूल आन्दोलन तथा गुरुकुलों की स्थापना से भी देश से अज्ञान दूर करने तथा लोगों को सत्य ज्ञान से परिचित कराने में सहायता मिली। इन संस्थाओं से अनेक प्रचारक तैयार हुए। आज आर्यसमाज की शिथिलता के कारण वैदिक धर्म व संस्कृति पर पुनः खतरे के बादल मण्डरा रहे हैं। हिन्दू समाज संगठित नहीं हो पा रहा है। विरोधी मत धर्मान्तरण व अन्य अनेक योजनाओं को अंजाम दे रहे हैं जिससे वैदिक धर्म व संस्कृति का ह्रास हो रहा है। आज जनसंख्या नियंत्रण की सर्वाधिक आवश्यकता है। सौभाग्य से हमारे प्रधानमंत्री और गृहमंत्री इस विषय को अच्छी तरह से समझते हैं। देश को उनसे बहुत आशायें हैं। ईश्वर उनको बल, शक्ति तथा बुद्धि दें जिससे वह सत्य धर्म की रक्षा करते हुए सनातन धर्म व संस्कृति की रक्षा करने में समर्थ हो सकें। ओ३म् शम्।              

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