स्वामी श्रद्धानन्द जी का जालन्धर की सडको पर भजन गाकर लोगों को
आर्यसमाज के प्रति आकर्षित करने का अभिनव सफल प्रयोग
मनमोहन कुमार आर्य
यह प्रेरणादायक घटना हम स्वामी श्रद्धानन्द जी की आत्म कथा ‘कल्याण मार्ग का पथिक’ से दे रहे हैं जिसे वयोवृद्ध मूर्धन्य आर्य विद्वान डा. भवानीलाल भारतीय जी ने ‘बिखरे मोती’ नाम अपनी पुस्तक में भी दिया है।
घटना का विवरण देते हुए स्वामी श्रद्धानन्द जी ने लिखा है ‘जिस समय का मैं वर्णन कर रहा हूं, उस समय जालन्धर के आर्यों में श्रद्धा की मात्रा बहुत बढ़ी हुई थी। कुछ आर्य हाथों से इकतारा लेकर चार बजे प्रायः घर से निकलते और आसावरी (एक राग) के शक्तिदायक आलाप के साथ वैराग्य, त्याग, श्रद्धा, भक्ति और ईश्वर-स्तुति के भजन गाना आरम्भ करते थे। हमारे काम का ढंग यह था कि एक मुहल्ले वा गली के बीचोबीच खड़े होकर एक भजन पूरा करते और इकतारा पर स्वर छेड़ते हुए आगे चल देते। इस प्रातःकालीन हरि-कीर्तन के समय भी कभी-कभी बड़ी विचित्र घटनाएं होतीं। कभी किसी माता को कहते सुनता–‘बेचारा बड़ा भला फकीर है। केवल भजन गाता है, मांगता कुछ नहीं।’ और फिर जब दरवाजा खोलकर उसके निकलते-निकलते मैं चल देता तो आवाज आती, ‘ए भाई! खैर (भीख) ले-जा।‘ किन्तु जब मैं लौटकर भीख के लए आंचल फैलाता को देवी को विस्मित देखकर बतला देता कि ‘मैं आर्यसमाज का भिक्षु हूं और इसलिए फेरी डालता हूं कि नर-नारी अपनी धर्म-पिपासा की बुझाने के लिए आर्यमंदिर में एकत्र हों।’ कई देवियां तो हमें भिखमंगे समझकर ही अनाज, पैसा, दुअन्नी, चवन्नी, आंचल में डाल देतीं। मुझे याद है कि एक सवेरे की भीख में दस रुपये से अधिक मिले जिे उत्सव-निधि में जमा करा दिया। वे दिन कैसे स्वच्छ और सुन्दर थे। (जिन दिनों की यह घटना है उन दिनों हमारे अनुमान के अनुसार 10 रुपये का मूल्य आज के एक हजार रुपयों के लगभग व इससे अधिक हो सकता है।)
स्वामी श्रद्धानन्द जी ने अपनी आत्मकथा में एक अन्य प्रसंग प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि ‘काशी में प्रसिद्ध हुआ कि एक वेदशास्त्र का ज्ञाता बड़ा नास्तिक आया है जिसके दोनों ओर दिन में मशालें जलती हैं। जो भी पण्डित उससे शास्त्रार्थ करने आता है, उसके तेज से दब जाता है। मुझे भली प्रकार याद है कि माताजी उन दिनों हमें बाहर नहीं जाने देती थीं–इस भय से कि कहीं हम दानों भाई उस जादूगर के फंदे में न फंस जाएं। पिताजी ने पीछे बताया कि वह प्रसिद्धि अवधूत दयानन्द की थी। माता जी को क्या मालूम था कि उनके देहान्त के पीछे उनका प्यारा बच्चा उसी जादूगर के उपदेश से प्रभावित होकर उसका अनुयायी बन जाएगा।’
स्वामी श्रद्धानन्द जी की वीरता का एक अन्य प्रसंग तब सम्मुख आया जब सन् 1925 में महर्षि दयानन्द सरस्वती जी की जन्म शताब्दी का उत्सव मथुरा में आयोजित किया गया था। विवरण इस प्रकार है ‘सन् 1925 में जब मथुरा में ऋषि दयानन्द की जन्म-शताब्दी मनाई गई और उस नगर के मार्गों से आर्यों की विशाल शोभा-यात्रा निकली, तब मथुरा के कुछ लड़ाकू चैबों के मन में जुलूस में गड़बड़ी फैलाकर हुड़दंग मचाने का विचार आया। जब इस बात की खबर शताब्दी-सभा के प्रधान स्वामी श्रद्धानन्द को लगी तो उन्होंने उद्दण्ड मण्डली के बीच जाकर सिंहनाद करते हुए कहा, ‘‘यदि तुमने नगर-कीर्तन के साथ कुछ भी छेड़छाड़ की तो ये जुलूस के लोग जो अभी शान्त भाव से चल रहे हैं, तुम्हारी मथुरा को एक घण्टे में फूंककर राख कर देंगे। सोच लो।” संन्यासी के इस सिंहनाद को सुनकर हुड़दंग करनेवाले अपने-अपने घरों की ओर खिसक गये।’
स्वामी श्रद्धानन्द आर्यसमाज के अपने समय के सर्वोच्च वा प्रमुख नेता थे। उनकी आत्मकथा ‘कल्याण मार्ग का पथिक’ प्रेरणादायक प्रसंगों से युक्त है जिसे सभी बन्धुओं कसे पढ़नी चाहिये। स्वामीजी ने अपनी युवावस्था व विद्यार्थी जीवन में बरेली में स्वामी दयानन्द जी के सत्संग में उपस्थित होकर धर्म विषयक प्रेरणा ग्रहण की थी और ईश्वर विषयक अपनी सभी शंकाओं का समाधान किया था। उसी का परिणाम हुआ कि आगे चलकर वह धार्मिक, सामाजिक तथा स्वतन्त्रता आन्दोलन के एक ऐसे अद्वितीय नेता बने जिनकी उपमा में हमें कोई दूसरा नेता दिखाई नहीं देता। उन्होंने ऋषि दयानन्द के शिक्षा व विद्या प्राप्ति विषयक विचारों को मूर्त वा साकार रुप देने के लिए हरिद्वार के निकट कांगड़ी ग्राम में गुरुकुल की स्थापना की थी जिसका अपना स्वर्णिम इतिहास है। देश काल व परिस्थितियों के अनुसार आज यह गुरुकुल शिक्षा जगत में अपनी वह पहचान कायम नहीं रख सका। अब यह एक सरकारी विश्वविद्यालय बन गया है जिस पर आर्यसमाज के कम तथा सरकार के प्रायः सभी नियम लागू होते हैं। स्वामीजी ने गुरुकुुल की स्थापना के साथ देश की आजादी के आन्दोलन में भी सक्रिय भूमिका निभाई। शुद्धि आन्दोलन के वह प्रणेता और मसीहा थे। अछूतोद्धार के क्षेत्र में भी उन्होंने उल्लेखनीय कार्य किया। इंग्लैण्ड के प्रधान मंत्री रैम्जे मैकडानल प्रधानमंत्री बनने से पहले गुरुकुल कांगड़ी पधारे थे और स्वामी श्रद्धानन्द जी के साथ रहे थे। उन्होंने स्वामी जी को जीवित ईसामसीह और सेंट पीटर जैसी उपमाओं से नवाजा था। आर्यसमाज के अनेक बड़े समारोह के आप सभापति वा प्रधान रहे। 23 दिसम्बर, 1926 को वह एक आततायी अब्दुल रसीद की गोलियों से आप वीरगति को प्राप्त हुए। स्वामी श्रद्धानन्द जी का जीवन आर्यसमाज के अनुयायियों के लिए प्रकाश स्तम्भ है। उनके आगामी बलिदान दिवस पर उन्हें हमारा सादर नमन एवं वन्दन है।