डॉ. मयंक चतुर्वेदी
यह खबर जैसे ही सुनी कि पूर्व केंद्रीय मंत्री असलम शेर खान ने रा.स्व.संघ की तर्ज पर गैर राजनीतिक संगठन राष्ट्रीय कांग्रेस स्वयंसेवक संघ बनाने का ऐलान किया है, तब से कई प्रश्न एक के बाद एक मन में उठ रहे हैं । अव्वल तो यह कि पहल अच्छी है, कम से कम कांग्रेस में सेवादल की समाप्त होती व्यवस्था के बीच कांग्रेस का एक स्वयंसेवक संघ तो खड़ा हुआ, इससे फिर क्या फर्क पड़ता है कि सेवादल के साथ महात्मा गांधी का नाम जुड़ा है तो इस नए संघ के साथ असलम साहब का नाम जुड़ गया है। पहले भी कांग्रेस संघ के समकक्ष संघ के समान ही शाखा जैसी समानान्तर व्यवस्था देशभर में खड़ी करने के प्रयोग कर चुकी है, जिसमें बच्चों को एकत्र करके टॉफी इत्यादि चीजें बांटी जाती थीं, किंतु वे सारे प्रयत्न निरर्थक ही साबित हुए हैं।
सामान्यत: संघ ने स्वीकार किया है कि वह राजनीति से परे रहते हुए अपना कार्य करेगा और रा.स्व.संघ इसी तरह पिछले 92 सालों से काम कर भी रहा है, पर एक बार फिर से कांग्रेस में जो इस प्रकार का प्रयत्न शुरू हुआ है, उसे देखते हुए यह प्रश्न सहज है कि क्या असलम साहब राजनीति में निस्वार्थ भाव से सेवा करने के लिए अपने नए दल के स्वयंसेवकों को प्रेरित कर पाएंगे ? यदि इसका उत्तर हाँ है तो निश्चित ही यह कांग्रेस का एक प्रभावी और स्वागतयोग्य कदम है।
वैसे भी देखा जाए तो कांग्रेस को इस वक्त सबसे ज्यादा शु्द्ध हवा की जरूरत है जोकि कठोर सेवा-श्रम के बूते उसके शरीर को मिलेगी और इसके लिए कांग्रेस में कोई स्वयंसेवक संघ होना ही चाहिए था, जिसकी जरूरत लम्बे समय से महसूस भी की जा रही है। किंतु इसी के साथ जो प्रश्न उठ रहा है वह यह है कि क्या नया कांग्रेसी संघ आरएसएस जैसा त्याग, समर्पण और सादगीभरे जीवन का भाव भी अपने स्वयंसेवकों में संचारित कर पाएगा ? प्रतिक्रिया स्वरूप कोई कार्य खड़ा किया जाए तो कहीं इसका भी हश्र पूर्व में कांग्रेस द्वारा किए गए प्रयोगों की तरह ही न हो?
पूर्व केंद्रीय मंत्री असलम शेर खान अपने इस नए संगठन की नींव रखते हुए यह कह गए कि यूपी चुनाव परिणामों के बाद साबित हो गया है कि अकेले मुस्लिमों से सेक्यूलर राजनीति नहीं की जा सकती। इसके लिए सबको साथ लेकर चलना होगा। बीजेपी अब हिंदू राष्ट्र पर चल रही है, जबकि गांधी, नेहरू, आंबेडकर ने कांग्रेस को सेक्यूलर दल के रूप में काम करने का मापदंड तय किया था। सो साहब, यहां यह भी असलम साहब समझा देते कि इन सभी महान महानुभावों ने कब-कब हिन्दू विरोधी होकर भारत में सेक्युलरिज्म की व्याख्या की है ? सीधेतौर पर याद नहीं आता कि महात्मा गांधी से लेकर संविधान निर्माता के रूप में पहचान रखनेवाले डॉ. भीमराव आंबेडकर ने कभी इस प्रकार के कोई मापदण्ड तय किए हों, जो यह सत्य स्थापित करते हों कि हिन्दू विरोधी होकर ही कोई सेक्युलर हो सकता है। बल्कि सभी ने एक मत से यह स्वीकार है कि यह हिन्दुस्तान, दुनिया का एक मात्र ऐसा हिन्दू बहुल राष्ट्र है,जोकि सर्वधर्म सद्भाव और सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दुःखभाग्भवेत् के सिद्धांत पर विश्वास करता है।
यहां आप महात्मा गांधी के हिन्दुत्व को लेकर प्रकट किए गए विचारों को देखिए – ‘मैं अपने को सनातनी हिन्दू कहता हूं क्योंकि मैं वेदों, उपनिषदों, पुराणों और हिन्दू धर्मग्रंथों के नाम से प्रचलित सारे साहित्य में विश्वास रखता हूं और इसलिए अवतारों और पुनर्जन्म में भी। मैं वर्णाश्रम धर्म के उस रूप में विश्वास रखता हूं जो मेरे विचार से विशुद्ध वैदिक हैं लेकिन उसके आजकल के लोक-प्रचलित और स्थूल रूप में मेरा विश्वास नहीं। मैं गो-रक्षा में उसके लोक-प्रचलित रूप से कहीं अधिक व्यापक रूप में विश्वास करता हूं। मैं मूर्तिपूजा में अविश्वास नहीं करता।(यंग इंडिया, 6-10-1921) ।’ गांधी यहीं नहीं रुकते वे कहते हैं कि साम्प्रदायिकता मुझ में लेश मात्र भी नहीं है, क्योंकि मेरा हिन्दू धर्म है। (अस्पृश्यता पर वक्तव्य, 26-11-1932) अपने आपको हिन्दू कहने में मुझे गर्व का अनुभव इसलिए होता है कि यह शब्द मुझे इतना व्यापक लगता है कि यह न केवल पृथ्वी के चारों कोनों के पैगम्बरों की शिक्षाओं के प्रति सहिष्णु है, बल्कि उन्हें आत्मसात भी करता है। (अस्पृश्यता पर वक्तव्य, 04-11-1932)
गांधी के मत से आज दुनिया में सब धर्मों की कड़ी परीक्षा हो रही है। इस परीक्षा में हमारे हिन्दू-धर्म को सौ फ़ीसदी नम्बर मिलने चाहिए, 99 फ़ीसदी भी नहीं। (दिल्ली की प्रार्थना सभा, 17-07-1947) यही तो हिन्दू धर्म की खूबी है कि वह बाहर से आनेवालों को अपना लेता है। (प्रार्थना प्रवचन, भाग 1, 21) हिन्दू धर्म की खसूसियत यह है कि उसमें काफी विचार –स्वातंत्र्य है। उसमें हरेक धर्म के प्रति उदारभाव होने के कारण उसमें जो कुछ अच्छी बातें रहती हैं, उनको हिन्दू धर्म मान सकता है। इतना ही नहीं मानने का उसका कर्तव्य है। ऐसा होने के कारण हिन्दू धर्मग्रन्थ के अर्थ का दिन-प्रतिदिन विकास होता है। (हबीबुर्रमान को पत्र, 5-11-1932)।
गांधी इतनाभर कहकर ही नहीं रुक जाते हैं, वे यहां तक कहते हैं कि हिन्दू धर्म एक महासागर है। जैसे सागर में सब नदियां मिल जाती हैं, वैसे हिन्दू धर्म में सब समा जाते हैं। (प्रार्थना प्रवचन, भाग 2, 168) शास्त्रों के ईश्वर-प्रेरित होने के दावे को आम तौर पर अक्षुण्ण रखकर भी, उनमें नए सुधार और परिवर्तन करने में उसने कभी हिचक महसूस नहीं की। इसलिए हिन्दू धर्म में सिर्फ वेदों को ही नहीं, बाद के शास्त्रों को भी प्रमाण माना जाता है। (अस्पृश्यता पर वक्तव्य, 30-12-1932) मेरे लिए सत्य धर्म और हिन्दू धर्म पर्यायवाची शब्द हैं। (गांधी सेवा संघ सम्मलेन, हुबली, 20-4-1936)।
इस तरह देश और दुनिया के कई स्थानों पर जहां भी महात्मा गांधी द्वारा लिखित पत्रों एवं उनके वक्तव्यों, भाषणों व लेखों के अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं, वहां उनकी हिन्दू संबंधी व्याख्याओं को सहज देखा जा सकता है। वस्तुत: महात्मा गांधी के जीवन का सन्देश हिन्दू धर्मग्रंथों के चिन्तन प्रवाह से प्रगट हुआ है। गांधी पूरे समय हिन्दू राष्ट्र का अंग रहे और उनके विचार अंत तक हिन्दुत्व को पुष्ट करते रहे हैं। यह तो हुई अकेले महात्मा गांधी के हिन्दुत्व संबंधी विचारों की बात । इसके बाद यदि नेहरू, आंबेडकर के हिन्दुत्व को लेकर दिए विचारों को लिखा जाए तो संभवत: विषयान्तर हो जाए। अत: गांधी के विचारों से ही समझें कि उनके लिए हिन्दू होने के मायने आखिर क्या थे । हिन्दू होने का अर्थ ही है सर्वधर्म और सर्वपंथ में विश्वास प्रकट करनेवाला सनातन मानस ।
असलम साहब, यह हिन्दुस्तान ही है जिसने पाक देश के नाम पर धर्म के आधार पर अलग देश की बात करने के बाद भी अपने लिए‘सबका साथ और सबका विकास’ का नारा बुलंद किया । ऋषि यास्क के शब्दों में तर्क को जिंदा रखा और अपने यहां धर्म आधारित राज्य व्यवस्था (पाकिस्तान, बांग्लादेश की तरह) का निर्माण न करते हुए लोकतंत्र का रास्ता चुना और पिछले 70 सालों से उस पर वह प्रतिबद्धता के साथ लगातार चल रहा है ।
यहां असलम साहब को सुझाव यह है कि अकेले राष्ट्रीय कांग्रेस स्वयंसेवक संघ बनाने से काम नहीं चलेगा। नाम के साथ कुछ लेना है संघ से तो वह विचार भी लो जो उसके स्वयंसेवकों को यह प्रेरणा देते हैं कि ‘हम करें राष्ट्र आराधन, तनसे, मनसे, धनसे और अपने पूर्ण जीवन से।’ संघ की प्रार्थना कहती है कि हे प्यार करने वाली मातृभूमि ! मैं तुझे सदैव नमस्कार करता हूँ। तूने मेरा सुख से पालन-पोषण किया है। हे महामंगलमयी पुण्यभूमि ! तेरे ही कार्य में मेरा यह शरीर अर्पण हो। हे प्रभु ! हमें ऐसी शक्ति दे, जिसे विश्व में कभी कोई चुनौती न दे सके, ऐसा शुद्ध चारित्र्य दे, जिसके समक्ष सम्पूर्ण विश्व नतमस्तक हो जाये, ऐसा ज्ञान दे कि स्वयं के द्वारा स्वीकृत किया गया यह कंटकाकीर्ण मार्ग सुगम हो जाये। आगे यह कि परं वैभवं नेतुमेतत् स्वराष्ट्रं, समर्था भवत्वाशिषा ते भृशम्। अर्थात, तेरी कृपा से हमारी यह विजयशालिनी संघठित कार्यशक्ति इस राष्ट्र को वैभव के उच्चतम शिखर पर पहुँचाने में समर्थ हो।
वस्तुत: सच यही है कि संघ भी यही चाहता होगा कि देश में मेरे जैसे अनेक संगठन खड़े हो जाएं कुछ मेरे जैसे, कुछ मेरे नाम से मिलते जुलते, कुछ मेरे नाम से भिन्न, किंतु उद्देश्य सभी का एक हो, अपने राष्ट्र (हिन्दुस्तान) का परम हित । विश्व में अपने राष्ट्र (भारत) को परम वैभव के शिखर पर आरूढ़ होते देखना ।
अंत में इतना ही कि जो पूर्व केंद्रीय मंत्री असलम शेर खान यह कह रहे हैं कि अकेले मुस्लिमों से सेक्यूलर राजनीति नहीं की जा सकती तो वह इतना तो समझें कि इस देश की तासीर ही नहीं कि वह एक पंथ को लेकर चल सके। छद्म धर्मनिरपेक्षता ही अकेले-अकेलों को लेकर चलती है, वह नाटक यह करती है कि सबका साथ उसे हासिल है। आज यही वह मूलभूत कारण है जो यूपी के लोगों ने छद्म सेक्यूलर राजनीति को पीछे धकेल दिया है । भारत में भाजपा हिन्दू राष्ट्र को लेकर नहीं चल रही, बल्कि कहना यह चाहिए कि भारत की मूल तासीर ही हिन्दू है । महात्मा गांधी, डॉ. भीमराव आंबेडकर और पं. जवाहरलाल नेहरु, इत्यादि ने सेक्यूलर के रूप में काम करने के लिए जो-जो मापदंड तय किए हैं, वे कम से कम हिन्दू दृष्टि जोकि सब को अपने में समाहित करते हुए चलती है, उससे तो कतई बाहर नहीं। यह बात काश असलम शेर खान साहब समझ सकते ? वहीं उन्हें यह भी समझना होगा कि संघ जैसा बनने के लिए उन्हें उस त्याग भूमि पर उतरना होगा जिसमें संघ के स्वयंसेवकों की अब तक कई पीढ़िया गुजर चुकी हैं। तब कहीं जाकर आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का न केवल भारत में चहुंओर बल्कि अंतरर्राष्ट्रीय प्रभाव दिखाई देता है।