लीजिए साहब! जिस बेदर्दी सावन का फरवरी से ही सरकार को इंतजार था आखिर वह आ ही गया। जल -भुन के ही सही। सावन हद से अधिक झूमता- लड़खड़ाता जनता के सामने अपने को पेश करे अतैव सरकार ने उसको लड़खड़ाते हुए आने के लिए रास्ते में ही गच्च कर दिया है। हर दो कोस की दूरी पर स्वदेशी के ठेके आठों पहर खुले रखने के सरकारी आदेश कर दिए हैं। चारों ओर मुनादी करवाई जा रही है- सावधान! सावन आ रहा है। सावन में भीगने वाले बीमार होने पर खुद जिम्मेदार होंगे। सरकारी अस्पताल पहले ही बीमार चल रहे हैं। इसलिए कृप्या वे गलती से सरकारी अस्पतालों की ओर रूख न करें। वहां पहले से वेतन लेने वाले बीमार बैठे हैं।
जहां सरकार को लगता है कि सावन कमजोर दिख रहा है वहीं उसे सरकारी ग्रांट में से उड़ेल- उड़ेल कर पिला दी जाती है। बाप तो हर रोज बच्चों के लून रोटी की परवाह किए बिना गच्च हुआ ही रहता है। मनरेगा से बने टैंकों की तल में बचे पानी में सरकारी अनुदान में मिले़े दादुर टर्र- टर्र कर रहे हैं तो जिन्हें मुफ्त में मनरेगा से माल नहीं मिला वे पानी के टैंकों की मुंडेर पर बैठ गुर्र- गुर्र कर रहे हैं।
सरकार द्वारा पोषित सावन के आने पर मोर नाच रहा हो या न, पर सरकार सरकार सावन की फुआरों में कपड़े भिगो- भिगो जरूर झूम रही है। सर्दी हो या जुकाम! क्योंकि सावन के साथ से सबसे घनिष्ठ संबंध सरकार का होता है और सर्दी गर्मी से जनता का। इसलिए झूमना उसकी मजबूरी है। अपने तो अपने, जनता के फूटे कानों के में उंगलियां दे मल्हार गाना उसकी विवशता। सरकार झूमेगी नहीं तो साल भर बाढ़ का इंतजार करते- करते राहत की उम्मीद में फटा छाता लिए गंगा किनारे बैठों को मुआवजे की आस कैसे बंधेगी। खेतों में वर्शा हो या नर पर गंगा में बाढ़ आना जरूरी है।
जब आंगन अपना हो तो बंदे को शर्म के मारे भी नाचना न आने के बाद भी कपड़े खोल झूमना ही पड़ता है। दूसरे के आंगन में तो हर कोई मीन मेख निकाल अपनी कटी नाक बचा जाता है। अपने ही आंगन को टेढ़ा कह दिया तो फिर नाचने को रहा ही क्या? अपनी न सही तो न सही, पर अपने आंगन की इज्जत तो बचानी ही पड़ती है।
सावन का महीना है, सो वे भी संसद में मस्त से दो कदम आगे मदमस्त होकर आ गए। घर में मस्त होकर तो बहुत बार गए। सोचा मदमस्त होकर यहां भी एंट्री मार ली जाए। घर में घरवाली कुछ न कहे तो पियक्कड़ों के हौसले दिन दुगने रात चैगुने फैलते हैं, काश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक। लेने के देने पड़ गए। बीसियों बार माफी मांग ली। हमसे भूल हो गई, हमको माफी दे दो। मस्त होकर संसद में आना अभी निषेध है। माफ कीजिएगा, पर लात- घूंसे लेकर आना वैध।
सावन का सत्र चला हुआ है। सत्ता वाले हाथ में अपने से बड़े छाते लिए अपने छाते के नीचे दूसरों को लाने के लिए आमादा हैं। बारिश न होने के बाद भी अपने छाते के नीचे कनखियों से हर दूसरे को आने के लिए आमंत्रण दे रहे हैं। इस बहाने कोई फंसा बिल निकल जाए तो सावन का आना सार्थक हो। सावन की बौछारों का आभास करवाने के लिए कुछेक सड़कों पर अपनी हड़हड़ाती- घरघराती सरकारी गाड़ी के पीछे नावों को बांध कर तफरीह करने निकले हैं ताकि जनता को लगे कि सावन ने कहीं गली कूचों में कोहराम मचा दिया है। अनुमान से अधिक सावन बरस रहा है। विपक्ष वाले हाथों में कागज की कश्तियां लिए अपनी बहुओं को उनके सुसराल भेजने में जुटे हैं। कायदे से इस महीने तो उन्हें मायके होना चाहिए। एक तो पराए देसा दूसरे सावन महीने के घनघोर बादल। पर क्या करें? चुनाव सिर पर हैं। ऐसे में मान मयार्दाएं देखने लगे तो गई भैंस पानी में। बार- बार डुबकी लगे तो सूखे टोबों को देख कर भी मन थर्र-थर्र कांपने लगता है। सिर पर चुनाव के बादल उमड़ते- घुमड़ते देख अपने ही घर में हांकने वाले बेटे को कोई पूछ नहीं रहा। शायद बहू पर ही गांव वालों को तरस आ जाए और वे कागज की नौका में एक टोबा पार कर जाएं।