अटैक इज दा बेस्ट डिफेन्स

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वीरेन्द्र सिंह परिहार
9 अगस्त 1971 में तात्कालीन इंदिरा गांधी सरकार ने सोवियत रूस से एक सुरक्षा संधि की थी, जिसमें भारत पर हमला, सोवियत रूस पर हमला और सोवियत रूस पर हमला भारत पर हमला माना जाता। यह बताने की जरूरत नहीं कि यह संधि बीस वर्षों के लिए हुई थी, और पूरी तरह देश हित में थी। क्योंकि उस समय अमेरिका, चीन समेत सभी पश्चिमी राष्ट्र कमोबेश पाकिस्तान के साथ खड़े थे। अकेला सोवियत संघ ही ऐसी महाशक्ति थी, जो भारत के साथ खड़ा था। तभी तो अपेक्षा के उलट भूतपूर्व प्रधानमंत्री एवं उस समय के जनसंघ के नेता अटल बिहारी बाजपेयी ने इस संधि को राष्ट्र हित में बताते हुए स्वागत किया था। यह बताने की जरूरत नहीं कि इस संधि के चलते ही भारत को निर्बाध रूप से बांग्लादेश के निर्माण का रास्ता प्रशस्त हो सका था। यह बात और है कि आने वाले समय में सोवियत संघ का विघटन हो गया, और शक्ति की धुरी पूरी तरह अमेरिका के पास केन्द्रित हो गई, और क्रमशः-क्रमशः सोवियत संघ का स्थान चीन लेता गया।
अब बदलते विश्व-सन्दर्भ में जब परिस्थिति बहुत कुछ बदल चुकी है और नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में भारत एक महाशक्ति बनने जा रहा है और चीन दक्षिणी चीन सागर और दूसरे मामलों में सिर्फ फिलीपींस, वियतनाम, मलेशिया, जापान को ही आॅखे नहीं तरेर रहा है, बल्कि पूरी विश्व बिरादरी की अवज्ञा करने पर उतारू है। इसके साथ ही सिर्फ पाकिस्तान का अंध समर्थन ही नहीं कर रहा है, बल्कि भारत के हितों को नुकसान पहंुचाने पर पूरी तरह उतारू है। ऐसी स्थिति में 30 अगस्त को भारत और अमेरिका के बीच लाॅजिस्टिकस एक्सचेंज मेमोरंडम आॅफ एग्रीमेंट पर हस्ताक्षर कर दिए गए हैं। इसका आशय यह है कि इस समझौते के तहत भारत और अमेरिका की सेना मरम्मत और सप्लाई को लेकर एक-दूसरे के सैन्य ठिकानों और जमीन का इस्तेमाल कर सकेंगे। समझौते पर हस्ताक्षर के बाद अमेरिका अपने करीबी रक्षा सहयोगियों की भांति भारत के साथ भी रक्षा, व्यापार और तकनीक साझा करने के लिए सहमत हो गया है। समझौते के तहत दोनों देश सैन्य साजो समान में सहयोग, आपूर्ति और सेवा जिनमें भोजन, पानी, परिवहन, पेट्रोलियम तेल, लुब्रिकेंट्स, कपड़े, संचार सेवाएॅ, चिकित्सा सेवाएॅ, प्रशिक्षण सेवाएॅ, कलपुर्जे और कम्पोनेंट्स मरम्मत, रखरखाव सेवाएॅ, जन सेवाएॅ और पोर्ट सेवाएॅ साझा करेंगे। करार के तहत दो तरफा साजो-समान का आदन-प्रदान, संयुक्त अभ्यास, संयुक्त प्रशिक्षण किया जा सकेगा। वस्तुतः भारत की नजर अमेरिका की आधुनिकतम तकनीक पर है, जिसे इस समझौते के तहत वह हासिल कर सकेगा। मोदी सरकार का मानना है कि यदि भारत को महाशक्ति बनना है तो उसे अमेरिका के करीब जाना ही होगा। बड़ी बात यह कि हिंद महासागर और प्रशांत महासागर में भारत और अमेरिका की सक्रियता बढ़ने से चीन इस समुद्री क्षेत्र में आसानी से आगे नहीं बढ़ पाएगा। बड़ी बात यह कि इससे चीन के बढ़ते प्रभाव को रोकने में जहां एकओर मदद मिलेगी वहीं आतंकवाद से लड़ने में अमेरिका का निर्णायक साथ मिल सकेगा। अमेरिका से मिलने वाले हथियारों के बल पर भारत जैश-ए-मोहम्मद जैसे आतंकी संगठनों पर भी निशाना साध सकता है। भारत को अमेरिका से जेट इंजिन तकनीक और ड्रोन तकनीक मिलने से भारत की सुरक्षा व्यवस्था बेहतर मजबूत हो जाएगी। यह भी उल्लेखनीय है कि नाटों देशों के अलावा जापान, साउथ कोरिया एवं ताइवान को जो विशेष दर्जा पूर्व में अमेरिका द्वारा दिया गया है और विशेष दर्जा भारत को भी दिया गया है। इसका मतलब स्पष्ट है कि भारत की सुरक्षा पर यदि किसी किस्म का खतरा उत्पन्न होता है तो अमेरिका इसमें पूरी तरह से भारत के साथ खड़ा होगा।
कुल मिलाकर इस संधि का पूरे देश ने स्वागत किया है, सिवा कम्युनिष्टों और कुछ राष्ट्र विरोधी तत्वों के। ऐसे लोगों का मानना है कि इस तरह से अमेरिका के साथ संधि करके भारत ने अपनी संप्रभुता पर दाॅव लगा दिया है और उस पर अमेरिकी हस्तक्षेप बौता किया है, और न कहीं इनकी सम्प्रभुता ही प्रभावित हुई है। फिर भारत तो एक उभरती अर्थव्यवस्था और कमोबेश एक महाशक्ति है।
बड़ी बात यह कि ऐसी कौन सी स्थिति आन पड़ी कि कभी एक-दूसरे के विरोधी भारत और अमेरिका आज इस तरह से एक-दूसरे के साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर खड़े हो गए हैं। असलियत यह है कि अमेरिका कभी ऐसा भारत विरोधी नहीं होना चाहता था जैसा उसे अतीत में होना पड़ा। लेकिन पंडित जवाहरलाल नेहरू और श्रीमती इंदिरा गांधी की सोवियत रूस परस्त नीतियों के चलते अमेरिका और यहां तक कि पश्चिमी दुनिया को पाकिस्तान के साथ खड़े होना पड़ा। ‘गड़े मुर्दे उखाड़ने’ का कोई मतलब नहीं लेकिन यह एक ज्वलंत सच्चाई है कि भारत और अमेरिका के बीच यह सैन्य समझौता और विशेष संबंध सिर्फ भारत और अमेरिका के ही हित में नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के हित में है। यह तो सभी को पता है कि चीन दक्षिणी सागर के मामले में जिस ाने के नाम पर भारत को इस विषय पर कभी फुसलाने और धमकाने का काम कर रहा है, पर भारत जानता है कि अपने सबसे बड़े दुश्मन के साथ मौका गंवाना कतई उचित नहीं। वैसे भी चीन चाहे मो. हाफिज, सईद और मो. सलाउद्दीन जैसे आतंकियों का मामला हो या एनएसजी का मामला हो सभी में भारत के खिलाफ ही खड़ा होता रहा है। कुल मिलाकर उसका रवैया भारत के प्रति शत्रुत्रा पूर्ण ही रहा है। तभी तो ‘‘शत्रु-का-़शत्रु मित्र’’ चाणक्य की इस उक्ति की तर्ज पर भारत चीन विरोधी राष्ट्रों के साथ विशेष मैत्री स्थापित कर रहा है, चाहे वह वियतनाम, जापान, फिलीपींस, ताइवान, मलेशिया हो या फिर दूर-दराज स्थित अमेरिका हो। इतना ही नहीं भारत ने अपनी आक्रामक नीति के तहत उत्तर पूर्वी सीमाओं पर ब्रम्होस जैसी मिसाइलें तैनात करना तय किया है, जिसका चीन के पास कोई काट नहीं है। चीनी सीमाओं पर पहंुचने के लिए सड़क और रेल मार्ग का द्रुत गति से विस्तार किया जा रहा है। सिर्फ इतना ही नहीं मोदी चीन में जाकर यह कहने का हौसला जुटाते हैं कि चीन-पाकिस्तान गलियारा जो पी.ओ.के. से होकर गुजरेगा, उसका निर्माण उचित नहीं है, क्योंकि पी.ओ.के. मूलतः भारत का हिस्सा है। मोदी सरकार की इस आक्रामक और सफल कूटनीति का परिणाम ये है कि नेपाल, वर्मा और श्रीलंका जो हाल के वर्षों में चीनोन्मुखी हो गए थे, फिर भारत के नजदीक आ रहे हैं। कहने का तात्पर्य यह कि जो भारत कभी चीन और कमोबेश पाकिस्तान के सामने भीगी बिल्ली बना रहता था। चीनी सैनिक आएदिन भारत की सीमाओं में कई कि.मी. तक घुस आते थे, और भारत उसका कोई प्रतिरोध नहीं करता था, मोदी सरकार के दौर में वह एक तरह से अतीत की बात हो गई है। सिर्फ इतना ही नहीं, अपनी कुशल नीतियों और समझौतों से मोदी सरकार ने जिस ढंग से चीन और पाकिस्तान की घेराबंदी की है, उसे देखते हुए यही कहा जा सकता है कि ‘‘अटैक इज दा बेस्ट डिफेंस।’’ यानी कि आक्रमण ही बेहतर प्रतिरक्षा है। इसका आशय मात्र सैन्य आक्रमण से नहीं, दृदारी से है।

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