– लोकेन्द्र सिंह
हमें स्वाधीनता जरूर 15 अगस्त, 1947 को मिल गई थी, लेकिन हम औपनिवेशिक गुलामी की बेडिय़ाँ नहीं तोड़ पाए थे। अब तक हमें औपनिवेशिकता जकड़े हुए थी। पहली बार हम औपनिवेशिकता से मुक्ति की ओर बढ़ते दिखाई दे रहे हैं। हम कह सकते हैं कि भारत नये सिरे से अपनी ‘डेस्टिनी’ (नियति) लिख रहा है। यह बात ब्रिटेन के ही सबसे प्रभावशाली समाचार पत्र ‘द गार्जियन’ ने 18 मई,2014 को अपनी संपादकीय में तब लिखा था, जब राष्ट्रीय विचार को भारत की जनता ने प्रचंड बहुमत के साथ विजयश्री सौंपी थी। गार्जियन ने लिखा था कि अब सही मायने में अंग्रेजों ने भारत छोड़ा है (ब्रिटेन फाइनली लेफ्ट इंडिया)। आम चुनाव के नतीजे आने से पूर्व नरेन्द्र मोदी का विरोध करने वाला ब्रिटिश समाचार पत्र चुनाव परिणाम के बाद लिखता है कि भारत अंग्रेजियत से मुक्त हो गया है। अर्थात् एक युग के बाद भारत में सुराज आया है। भारत अब भारतीय विचार से शासित होगा।
गार्जियन का यह आकलन सच साबित हो रहा है। हम देखते हैं कि पिछले ढाई साल में भारतीय ज्ञान परंपरा को स्थापित करने के महत्त्वपूर्ण प्रयास हुए हैं। जिस ज्ञान के बल पर कभी भारत का डंका दुनिया में बजता था, उस ज्ञान को फिर से दुनिया के समक्ष प्रस्तुत करने की तैयारी हो रही है। हालाँकि भारतीय ज्ञान-विज्ञान परंपरा में अपना उत्थान देखने के प्रयास स्वाधीनता मिलने के साथ ही किए जाने चाहिए थे, लेकिन औपनिवेशक मानसिकता और उसकी दासता के कारण हमने अपने गौरवशाली इतिहास के पन्ने कभी पलटकर देखने की कोशिश ही नहीं की। बल्कि यह कहना अधिक उचित होगा कि किसी सुनियोजित षड्यंत्र के तहत भारत के प्राचीन विज्ञान को नजरअंदाज किया गया, उसे इतिहास के पन्नों में हमेशा के लिए दफन करने का प्रयास किया गया। पोथियों पर धूल जमा होने दी। बहरहाल, आजादी के ६८ साल बाद आई राष्ट्रीय विचार की सरकार ने एक बार पुन: भारतीय ज्ञान के प्रति दुनिया में आकर्षण पैदा कर दिया है। केन्द्र सरकार ने सबसे पहले अंतरराष्ट्रीय स्तर पर योग की उपयोगिता को स्थापित किया। यह सिद्ध किया कि योग दुनिया के लिए भारत का उपहार है। इसी क्रम में केन्द्र सरकार भारत की चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद को स्थापित करने का प्रयास कर रही है। अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के बाद मोदी सरकार ने राष्ट्रीय आयुर्वेद दिवस मनाने का निर्णय लिया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनकी सरकार के इस फैसले का स्वागत किया जाना चाहिए।
देश में पहली बार धनतेरस के दिन वास्तविक धन (भारत की समृद्ध ज्ञान परंपरा) की स्तुति की गई। मैंने आयुर्वेद के चिकित्सकों से जब इस परिवर्तन पर बात की तब उन्होंने माना कि सुखद बदलाव की आहट सुनाई दे रही है। उनका मानना था कि जिस चिकित्सा पद्धति को भारत की मुख्य चिकित्सा पद्धति होना चाहिए था, वह वर्षों से वैकल्पिक बनी हुई है। शायद ही कोई देश अपनी ज्ञान-परंपरा का इतना अनादर करता होगा। आयुर्वेद चिकित्सकों ने भरोसा जताया है कि केंद्र सरकार आयुर्वेद को विश्व में भारतीय चिकित्सा पद्धति के रूप में स्थापित करने के प्रयास करेगी। उनका भरोसा अकारण नहीं है। बल्कि आयुर्वेद के प्रति वर्तमान सरकार की प्रतिबद्धता देखकर उनकी उम्मीदें जागी हैं। आयुर्वेद चिकित्सा से वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति का ठप्पा हटाने और उसके विस्तार एवं विकास के लिए केंद्र सरकार ने सबसे पहले आयुष मंत्रालय को स्वास्थ्य मंत्रालय से स्वतंत्र कर दिया गया है, ताकि आयुर्वेद सहित भारतीय चिकित्सा पद्धतियों को पाश्चात्य चिकित्सा पद्धतियों के मुकाबले दमदारी से खड़ा किया जा सके। हम उम्मीद करते हैं कि सरकार के प्रयास रंग लाएंगे। हालाँकि अभी इस दिशा में बहुत काम बाकी है। पिछले 65-70 वर्षों में आयुर्वेद को लेकर जितना शोध होना चाहिए था, उसका एक प्रतिशत भी नहीं हुआ है। आयुर्वेद को स्थापित करना है, तब इस क्षेत्र में शोध की महती आवश्यकता है। दुनिया के अनेक देश आयुर्वेद में शोध कर रहे हैं, जड़ी-बूटियों के पेटेंट करा रहे हैं, लेकिन हमने अब तक महज 200 पेटेंट ही कराए हैं। आज हमारे समक्ष स्थिति ऐसी बन पड़ी है कि न केवल हमें अपने ज्ञान को स्थापित करना है, बल्कि उसे दूसरे के हाथों से बचना भी है। यह सब करने के लिए औपनिवेशिक मानसिकता की जंजीरें टूटनी चाहिए, जो टूट रही हैं।
भोपाल में 12, 13 और 14 नवंबर को ‘लोकमंथन’ का आयोजन हो रहा है। लोकमंथन-2016 में भी ‘औपनिवेशिकता’ पर गंभीरता से विमर्श किया जाना है। ‘औपनिवेशिकता से भारतीय मानस की मुक्ति’ इस अनूठे आयोजन का एक केंद्रीय विषय है, जिसके तहत विभिन्न प्रकार की औपनिवेशिकता पर न केवल चर्चा होगी, बल्कि उनसे मुक्ति पाने के रास्ते भी तलाश किए जाएंगे। मानसिक गुलामी नहीं छोड़ पाने के कारण सब क्षेत्रों में उसका प्रभाव दिखाई देता है। हम अपने प्राचीन ज्ञान-परंपरा से न केवल अनजान हैं, बल्कि उसे हीन भी समझते हैं। समाज में एक लोकोक्ति प्रचलित है – ‘अपनी माँ को कोई भट्टी नहीं कहता।’ लेकिन, हम इतनी नाकारा संतानें हैं कि अपनी माँ (भारतीय ज्ञान परंपरा) को हेय और संदेह की दृष्टि से देखते हैं। भारतीय ज्ञान-विज्ञान को गल्प मानकर उस पर बात ही नहीं करना चाहते। दरअसल, औपनिवेशिक मानसिकता ने हमें एक भ्रम में बाँधकर रखा है कि भारत सपेरों और गड़रियों का देश है,जबकि ज्ञान-विज्ञान का प्रकाश पश्चिम से दुनिया में फैला है। यह औपनिवेशिक मानसिकता विषबेल की तरह हमारे साहित्य, शिक्षा,राजनैतिक विमर्श, समाज जीवन, कला और संस्कृति में पसर गई है, जिसने किसी भी क्षेत्र में भारतीय ज्ञान परंपरा को आगे नहीं आने दिया। इन सब क्षेत्रों से औपनिवेशिक मानसिकता को खुरचकर निकाल फेंकने का अभ्यास लोकमंथन है। खैर, आज देश में जिस प्रकार का सकारात्मक वातावरण बना है, उसका सदुपयोग होना ही चाहिए। यकीनन अब समय आ गया है कि हम औपनिवेशक गुलामी की जंजीरें तोड़कर फेंक दें।