सच से दूर अमेरिकी रिपोर्ट

-आर. एल. फ्रांसिस-

alpsankhyak

अमरीका के अतंरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता आयोग (यूएससीआइआरएफ) ने अपनी 2015 की वार्षिक रिपोर्ट में भारत के अल्पसंख्यकों की धार्मिक स्वतंत्रता के बारे में अपनी जो राय जाहिर की है उसमें कोई सच्चाई नहींं है। यूएससीआइआरएफ ने कहा है कि वर्ष 2014 में मोदी सरकार के सत्ता संभालने के बाद धार्मिक अल्पसंख्यकों को हिंसक हमलों और जबरन धर्मांतरण का सामना करना पड़ा है। आयोग ने ओबामा प्रशासन से कहा है कि वह बहुलतावादी देश में धार्मिक स्वतंत्रता के मानकों को बढ़ावा देने के लिए मोदी सरकार पर दबाव बढ़ाये।

अमेरिकी आयोग की इस रिपोर्ट में भारत की धार्मिक स्वतंत्रता को लेकर जो भी निष्कर्ष निकाले गए हैं, उससे यहीं लगता है कि रिपोर्ट चर्च नेताओं और चर्च से जुड़े सामाजिक संगठनों द्वारा उपल्बध करवाई गई जानकारी के आधार पर ही तैयार की गई है। अपने अस्तित्व में आने के समय से ही यूएस कमीशन ऑन इंटरनेशनल रिलीजीयस फ्रीडम भारत के धार्मिक मामलों में अति सक्रिय रहा है। जून 1998 में आयोग के सदस्यों द्वारा भारत में धार्मिक स्वतंत्रता पर सुनवाई के लिए भारत में आने की कई तरकीबे अजमाई गई थी। भारत सरकार द्वारा इजाजत न दिए जाने के बाद आयोग ने भारत को टीयर-2 सूची में रखा है। इस सूची में उन देशों को रखा जाता है जहां धार्मिक स्वतंत्रता के उल्लंघन में कथित तौर पर सरकारें या खुद लिप्त होती हैं या ऐसे उल्लंघन को बर्दाश्त करती हैं।

‘अतंरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता आयोग’ (यूएससीआइआरएफ) बात तो भले ही मनावाधिकारों की करे लेकिन उसका मुख्य कार्य चर्च के साम्राज्वाद को मजबूत बनाना है। इसी रणनीति के तहत दुनिया के देशों को तीन विभिन्न विभिन्न श्रेणियों में बांट कर यह आयोग कार्य करता है। आयोग की नजर में जहां धार्मिक स्वतंत्रता एवं मानवाधिकारों का सबसे ज्यादा खतरा है उनमें बर्मा, चीन, ईरान, इराक, वेतनाम, नार्थ कोरिया, क्यूबा, उजबेकिस्तान आदि देश है। दूसरी श्रेणी में बेलारुस, तुर्की, समोलिया जैसे देश है आयोग की तीसरी श्रेणी में भारत, श्रीलंका, बगंला देश, कजाकिस्तान जैसे देश है। जहां धार्मिक स्वतंत्रता को कभी भी खतरा पैदा हो सकता है।

इस तरह का संदेश पूर्व पोप बेडिक्ट 16वें और वर्तमान पोप फ्रांसिस भी दे चुके हैं, पूर्व पोप बेडिक्ट 16वें ने तो वेटिकन स्थित भारतीय राजदूत को बुला कर भारत में कुछ राज्य सरकारों द्वारा ‘धर्मातंरण विरोधी’ बिल लाने पर अपनी नराजगी जाहिर की थी। उनका मानना था कि इस तरह के बिल लाने से चर्च के ‘मानव उत्थान’ कार्यक्रम में रुकावट आती है। निसंदेह ‘अतंरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता आयोग’ (यूएससीआइआरएफ) उन्हीं देशों में हस्तक्षेप करने की योजना बनता है जहां चर्च को आगे बढ़ने में रुकावट दिखाई देती हो।

अब प्रश्न खड़ा होता है कि क्या भारत में चर्च या ईसाई समुदाय के सामने ऐसी स्थिति आ गई है कि वह अपने धार्मिक कर्म-कांड, पूजा-पद्वति तक नहीं कर पा रहा? क्या ईसाइयों की जान/माल की सुरक्षा करने में देश का तंत्र असफल हो गया है? क्या विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका में इनकी सुनवाई नहीं हो रही? क्या विदेशी सरकारो एवं अंतराष्ट्रीय संगठनों के सामने जाने के अलावा और कोई मार्ग नहीं बचा?

एक साल पहले सत्ता में आई मोदी सरकार ने ऐसा कौन सा कार्य किया हैं जिससे धार्मिक अल्पसंख्यकों विशेषकर भारतीय ईसाइयों की धार्मिक स्वतंत्रता पर कोई आँच आई हो। वेटिकन द्वारा दो कैथोलिकों को संत घोषित करने के अवसर पर नवम्बर 2014 में राज्यसभा के उपसभापति पीजे कुरीयन के नेतृत्व में तीन सदसीय प्रतिनिधिमंडल को वेटिकन भेजा था जिसमें तीन बार नागालैंड के मुख्यमंत्री रहे निपुयीराव भी शामिल थे। फरवरी 2015 में कैथोलिक संतों को सम्मानित करने के अवसर पर हुए एक समारोह में खुद प्रधानमंत्री ने शामिल होकर संदेश दिया कि उनकी सरकार धार्मिक स्वतंत्रता को हर कीमत पर सुनिश्चित करेगी।

हां यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि मोदी सरकार के आने के बाद चर्चोंं को अपवित्र किये जाने की कुछ घटनाएं सामने आई हैं। लेकिन किसी भी जांच में उनका संबंध साप्रदायिकता से नहींं जोड़ा जा सकता उसके पीछे कुछ समाज विरोधी तत्व शामिल पाए गए है। जिन पर कानून के मुताबिक कार्यवाही की जा रही है। हालांकि चर्च नेताओं, कुछ बुद्विजीवियों और मीडिया के एक हिस्से द्वारा इनका संबंध राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और राष्ट्रवादी संगठनें के साथ जोड़ने के प्रयास किसे गए, लेकिन धीरे-धीरे अरोपियों के पकड़ में आते जाने से इन घटनाओं की सच्चाई सामने आने लगी है।

पश्चिम बंगाल के रानाघाट में एक नन के साथ हुई दुर्घटना और आगरा में मदर मेरी की मूर्ती में तोड़फोड़ और दिल्ली में कुछ चर्चों को अपवित्र किये जाने के मामले पर पश्चिम देशों समेत वेटिकन ने अपनी नराजगी जताई थी। सरकार ने इन सभी मामलों के अरोपियों की पहचान कर उन्हें कानून के हवाले कर दिया है। मजेदार बात यह है कि पश्चिम बंगाल, आगरा-उतर प्रदेश या फिर दिल्ली इन तीनो ही राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की सरकार नहींं है कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की है। इसके बावजूद समाज के एक वर्ग द्वारा जानबूझ कर मोदी सरकार को और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को बदनाम करने की रणनीति अपनाई गई।

अमेरिकी आयोग यूएस कमीशन ऑन इंटरनेशनल रिलीजीयस फ्रीडम के लिए अच्छा होता अगर वह यह तथ्य भी देखता कि भारत में चर्च कितनी तेजी से अपना विस्तार कर रहा है, वेटिकन के राजदूत नये डायसिसों का निर्माण एवं बिशपों की नियुक्तियाँ कर रहे हैं। पोप फ्रांसिस ने 26 मार्च को दिल्ली से सटे गुड़गाँव में सिरो मलांकरा डायसिस बनाने की घोषणा की है, इसके कुछ समय पहले ही हरियाणा के फरीदाबाद में भी नई डायसिस बनाई गई थी। चर्च को ऐसी स्वतंत्रता हमारे पड़ौसी देशों चीन, बर्मा, भूटान, नेपाल, पकिस्तान, बंगला देश, अफगानिस्तान आदि में नहीं है।

भारत में ‘अल्पसंख्यक अधिकारों’ की आड़ में चर्च लगातार अपना विस्तार कर रहा है। हालाकि उसके अनुयायी आज भी दयनीय स्थिति में है। भारत में चर्चों के पास अपार संपत्ति है। जिसका उपयोग वह अपने अनुयायियों की स्थिति सुधारने की उपेक्षा अपना साम्राज्वाद बढ़ाने के लिए कर रहा है। धर्म-प्रचार के नाम पर चलाई जा रही गतिविधियों के कारण होने वाले तनाव में क्या चर्च की कोई भूमिका नहीं होती?

भारत के कुछ चर्च नेता अंतराष्ट्रीय संस्थाओं के सामने ढोल पीटकर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं, इससे देश का चाहे कितना भी अपमान क्यों न हो।

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