-उमेश चतुर्वेदी
भारतीय और खासकर भाषाई मीडिया की भूमिका को लेकर इन दिनों राजनीति से लेकर समाज के प्रमुख वर्गों की ओर से सराहना के बोल सुनने को मिल रहे हैं। बीस साल पहले अयोध्या के मसले को लेकर भाषाई मीडिया पर उकसाने वाली रिपोर्टिंग के आरोप लगे थे। भूत-प्रेतों की ऐय्यारी दुनिया और एलियनों के जरिए गायों के गायब करने की हैरत अंगेज अविश्वसनीय रिपोर्टिंग करने वाले मीडिया ने अयोध्या पर जिस संयम का परिचय दिया है, वह काबिल-ए- गौर है। इसके साथ ही मीडिया ने जिस तरह राष्ट्रमंडल खेलों मची लूट-खसोट पर सवाल उठाए हैं। उसने भी समाज के सचेत वर्गों को मीडिया के लिए प्रशंसा के सुर सुनाने के लिए मजबूर कर दिया।
1780 से शुरू आलोचना की पत्रकारीय परंपरा को जिस तरह किनारे किया जा रहा है, कई अर्थों में किया जा चुका है, उससे अब सही सवाल उठाना भी खतरे से खाली नहीं है। अगर गलतियां हैं, सार्वजनिक हितों की बलि चढ़ाई जा रही है तो मीडिया का काम ऐसे माहौल में स्वस्थ आलोचनात्मक रूख रखना ही होता है। जिंदगी के तमाम मोर्चों पर हमें आदर्श और विकासवादी पैमाने हमेशा विकसित देशों में ही नजर आते हैं। लेकिन जब पत्रकारीय परंपराएं और सामाजिक सुरक्षा जैसे शाश्वत सवालों की बात आती है, हमारे पैमाने बदल जाते हैं। उस वक्त हमें अमेरिका और ब्रिटेन की पत्रकारीय परंपराएं या सामाजिक सुरक्षा और सरकारी दायित्व याद नहीं आते। यही वजह है कि आज की मीडिया में स्वस्थ आलोचना की गुंजाइश कम रह गई है। अगर आलोचना होती भी है तो उसकी असल वजह भारतीय और भारतीय लोगों के हित कम होते हैं, बल्कि विकसित पश्चिमी समाज की चिंताएं कहीं ज्यादा होती हैं। कॉमनवेल्थ खेलों में मची लूट-खसोट पर अगर सवाल उठे तो इसकी असल वजह यही रही। 617 करोड़ की अनुमानित लागत से शुरू होने वाले कॉमनवेल्थ गेमों की तैयारी खर्च का बढ़ते-बढ़ते 70 हजार करोड़ हो जाना मीडिया के आक्रामक सवालों की वजह नहीं बन पाया। लेकिन खेल गांव के फर्श पर हल्का पीलापन या टॉयलेट का फ्लश ठीक नहीं होना बड़ी खबर बनता नजर आया। इसकी वजह यह नहीं रही कि भारतीय मीडिया को फर्श बनाने या फ्लश लगाने में गोलमाल नजर आया। वैसे भी करीब सत्तर फीसदी भारतीयों को आज भी टॉयलेट उपलब्ध नहीं है। साफ फर्श को छोड़िए, पीली फर्श वाले घर भी करोड़ों भारतीयों को मुहैया नहीं हो पाए हैं। अस्पतालों में बिस्तरों के नीचे कुत्ते सोते मिलते हैं, अस्पतालों के बाहर जाड़े और बरसात की रातें गुजारने के लिए लोग मजबूर रहते हैं। लेकिन आज के मीडिया की आक्रामक खबरों की परिधि में ये दृश्य नहीं हैं। लेकिन वही मीडिया अगर कॉमनवेल्थ के लिए बने खेल गांव की पीली फर्श के लिए आक्रामक खबर बनाता है तो दरअसल वह विदेशी लोगों की चिंताएं जता रहा होता है। उसे अपने लोगों से ज्यादा विदेशियों की चिंता सता रही होती है। उसे पता है कि भारतीय तो इसी तरह जीने-मरने के लिए बने हैं। लेकिन पश्चिमी दुनिया इसके लिए नहीं बनी है। लिहाजा उनके लोगों के सरोकार उसे परेशान करते हैं। इसीलिए कॉमनवेल्थ खेलों में लूट-खसोट की खबरें बड़ी खबरें बनती हैं। हालांकि उसके लिए जिम्मेदार लोगों पर मीडिया के सवाल उतने आक्रामक नहीं रहे, जैसे होने चाहिए।
जैसी बहे बयार तैसी पीठ कीजै की तर्ज पर चलने में ही सफलता का लक्ष्य साधने की जुगत में जुटे मीडिया ने अयोध्या मसले पर संयम दिखाया है। हालांकि फैसले को लेकर मीडिया के एक वर्ग से आरोप जरूर लगा। फैसले को लेकर मीडिया के रूख पर भी सवाल उठे। मीडिया में हिंदूवादी सांप्रदायिक सोच से ग्रसित लोगों की भीड़ होने का आरोप नया नहीं हैं। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि तीनों जजों ने विवादित जमीन पर रामलला के जन्म को माना है तो मीडिया इस पर कैसे सवाल उठा सकता है। अदालती फैसले को लेकर आग्रह-पूर्वाग्रह हो सकते हैं। लेकिन उसकी आलोचना क्या खबरों में की जा सकती हैं। आग्रहों-पूर्वाग्रहों के बावजूद मीडिया ने अगर अयोध्या मसले पर संयत सुर में रिपोर्टिंग की है तो उसकी प्रशंसा की जानी चाहिए। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या मीडिया का सुर बदलने लगा है। एक चावल से पूरे भगोने में बनने वाले भात का अंदाजा तो लगाया जा सकता है। लेकिन महज एक घटना की रिपोर्टिंग को लेकर मीडिया में आ रहे हैरतअंगेज बदलाव को नहीं समझा जा सकता। मीडिया में आ रहे बदलावों को जांचने के लिए भविष्य के ट्रेंड को भी देखना-परखना होगा। तभी बदलावों को लेकर मुकम्मल विचार बनाया जा सकेगा। हम कैसे भूल सकते हैं कि कॉमनवेल्थ को लेकर मीडिया में उठे आलोचना के सुरों की वजह क्या रही है।
अयोध्या और कॉमनवेल्थ के बीच मीडिया – by – उमेश चतुर्वेदी
कॉमनवेल्थ :
* 617 करोड़ की लागत से शुरू कॉमनवेल्थ गेमों की तैयारी खर्च 70 हजार करोड़ –
मीडिया के सवाल नहीं ?
* मीडिया कॉमनवेल्थ खेल गांव की पीली फर्श के लिए आक्रामक खबर ?
अयोध्या
* तीनों जजों ने विवादित जमीन पर रामलला के जन्म को माना है. मीडिया के इस पर सवाल क्यों ?
* दूसरी ओर, मीडिया ने अयोध्या पर संयत रिपोर्टिंग की.
उपर के विश्लेषण पर मीडिया की नियत पर शक न करके, मीडिया के भविष्य के व्यवहार का इंतज़ार करना चाहिए.
– अनिल सहगल –
सही विश्लेषण उमेश जी…कारण चाहे जो हो पर वास्तव में अयोध्या रिपोर्टिंग ने भारत के मीडिया का एक ऐसा शानदार स्वरुप प्रस्तुत किया है जो आजादी के बाद अब तक नहीं देखा गया था.निश्चित ही भविष्य में जब भारत के मीडिया की बात होगी तो Pre Ayodhya और Post Ayodhya की बात ही की जायेगी.सादर.