अयोध्या अर्थात अवधपुरी रही है कभी संपूर्ण विश्व की राजधानी

unnamedबाबर की वकालत करते इतिहास के लेखक

बाबर को पूर्णत: पंथनिरपेक्ष सिद्घ करते हुए एक इतिहास लेखक सतीशचंद अपनी पुस्तक ‘मध्यकालीन भारत’ के पृष्ठ 204 पर लिखते हैं :-

‘‘बाबर रूढि़वादी सुन्नी था,  पर वह धर्मांध नही था। न ही वह इस्लाम के धर्माचार्यों से प्रेरित होता था। जब ईरान और तूरान में शिया और सुन्नियों के मध्य भयानक लड़ाईयां होती थीं, तब भी उसका दरबार धार्मिक और पंथिक टकरावों से मुक्त था। उसने सांगा से लड़ाई को जिहाद ठहराया और जीतने के पश्चात गाजी की उपाधि धारण की, पर इसके स्पष्ट रूप से राजनीतिक कारण थे। यद्यपि उसका काल युद्घों का काल था, पर मंदिरों के विध्वंस की कुछ ही मिसालें मिलती हैं। इसका कोई प्रमाण नही है कि स्थानीय सूबेदारों द्वारा संभल और अयोध्या में बनवायी गयीं मस्जिदें हिंदू मंदिरों को तोडक़र बनवायी गयी थीं। संभवत: उन्होंने कुछ मौजूदा मस्जिदों की मरम्मत कराई और फिर उन पर बाबर के सम्मान में शिलालेख लगा दिये।’’

ए.एस. बैवरिज क्या कहते हैं

भारतीय इतिहासकारों के ऐसे प्रयासों के सर्वथा विपरीत जाते हुए ‘बाबरनामा’ के अनुवादक ए.एस. बैवरिज (पृष्ठ 370-71) पर बाबर द्वारा 1519 ई. में उत्तर पश्चिम सीमा प्रांत के एक छोटे से राज्य बिजौरी पर आक्रमण करने के समय का वर्णन करते हुए स्पष्ट किया है कि बाबर ने किस प्रकार अपने आपको मुजाहिद घोषित किया था? वह लिखते हैं-‘‘चूंकि बिजौरी वासी इस्लाम के शत्रु थे और इनके मध्य विधर्मी और विरोधी रीति रिवाज और परंपराएं प्रचलित थीं, उनका सर्व समावेशी नरसंहार किया गया। उनकी पत्नियों और बच्चों को बंदी बना लिया गया। एक अनुमान के अनुसार तीन हजार व्यक्ति मौत के घाट उतार दिये गये। दुर्ग को विजय कर हमने उसमें (बाबर अपने लिए स्वयं लिख रहा है) प्रवेश किया और उसका निरीक्षण किया। दीवालों के सहारे घरों में, गलियों में, गलियारों में असंख्य संख्या में हिंदू मृतक पड़े हुए थे, आने जाने वाले सभी लोगों को शवों के ऊपर से ही जाना पड़ रहा था,….मुहर्रम के नौवें दिन मैंने आदेश दिया कि मैदान में हिंदू मृतकों के सिरों की एक मीनार बनायी जाए।’’

बाबर की आत्म-स्वीकारोक्ति

बाबर की यह आत्म-स्वीकारोक्ति भी आंख खोलने वाली है, जिसमें वह स्वयं को गाजी होने पर धन्यभाग समझता है-
‘‘इस्लाम के निमित्त में जंगलों में भटका।
मूत्र्तिपूजकों व हिंदुओं के विरूद्घ प्रस्तुत हुआ।।
शहीद की मृत्यु पाने का मैंने निश्चय किया।
अल्लाह का धन्यवाद कि मैं गाजी हो गया।’’
(संदर्भ : बैवरिज की उपरोक्त पुस्तक पृष्ठ 574-75)

राम मंदिर और बाबर

अब हम बाबर के द्वारा अयोध्या में स्थित राममंदिर के विध्वंस तथा वहां पर एक मस्जिद (जिसे ‘बाबरी मस्जिद’ के नाम से जाना गया) के निर्माण की कहानी पर आते हैं। के.एस. लाल अपनी पुस्तक ‘मुस्लिम स्टेट इन इंडिया’ के पृष्ठ 656 पर लिखते हैं-‘‘1528-29 में बाबर के आदेशानुसार मुगल सैन्य संचालक मीरबकी ने भगवान राम की रामजन्म भूमि की स्मृति में बने अयोध्या मंदिर का विध्वंस कर दिया और उसके स्थान पर एक मस्जिद बनवा दी।’’

गुरूनानक जी कहते हैं-…..

बाबर के नरसंहारों और हिंदू संस्कृति के विनाश को लेकर गुरू नानक देव जैसी महान विभूति को भी अति कष्ट हुआ था। जो लोग आज पंथनिरपेक्षता के नाम पर इतिहास के तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करने में ही भलाई देख रहे हैं, उन्हें तनिक गुरू नानकदेव को भी समझना चाहिए। वह लिखते हैं :-‘‘हे प्रभो! आप ऐसे नरसंहार, ऐसी यातनाओं और पीड़ाओं को कैसे सहन कर पाते हैं, (जैसी यातनाएं बाबर ने हिंदुओं को दी थीं) वह आगे कहते हैं-ईश्वर ने अपने पंखों के नीचे खुरासन लगा रखा है, यानि कि समाधिस्थ हो गये हैं और भारत को बाबर के अत्याचारों के लिए खुला छोड़ दिया है।

हे जीवन दाता! आप अपने ऊपर कोई कैसा भी दोष नही लपेटते, अर्थात आप निर्लिप्त रहे आते हो। क्या यह मृत्यु ही थी जो मुगल के रूप में हमसे युद्घ करने आयी। जब इतना भीषण नरसंहार हो रहा था इतनी भीषण कराहें निकल रही थीं, क्या तुम्हें पीड़ा नही हुई।’’ (‘गुरू नानक’ पृष्ठ 125)

गुरू नानकदेव के ये शब्द उस समय के पूरे हिंदू समाज की पीड़ा के प्रतिनिधि हैं। बाबर ने राम जन्मभूमि पर ही बाबरी मस्जिद बनायी थी। रामजन्म भूमि की स्वतंत्रता के लिए हिंदुओं के द्वारा लड़ी गयी लड़ाई भी एक महत्वपूर्ण अभिलेख है जो हिंदुओं के स्वातंत्रय प्रेम आत्मगौरव और संस्कृति की रक्षा के लिए सर्वस्व होम करने की उत्कृष्टतम् भावना को स्पष्ट करती है। अब हम इसी पर चर्चा करेंगे।

अयोध्या के इतिहास पर विचार

हमारे वेदों में इतिहास नही है।  क्योंकि वेद अपौरूषेय हैं और सृष्टि प्रारंभ में ही उनकी रचना हुई। हां, वेदों में वर्णित कुछ स्थलों या घटनाओं को हमारे ऋषियों ने यथार्थ रूप में स्थापित करने का प्रयास अवश्य किया। जिसमें कइयों को यह भ्रांति उत्पन्न हो गयी कि वेदों में इतिहास है। जैसे अथर्ववेद का यह मंत्र है :-

अष्टाचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या,
तस्यां हिरण्यमय: कोश स्वर्गोज्योतिषावृता।।

(अथर्व 10/2/32)

यहां पर आठ चक्रों और नवद्वारों वाली इस मानवदेह को एक ऐसी पुरी की संज्ञा दी गयी है जो कि ‘अवध’ है, अर्थात जिसमें मानसिक, वाचिक या कायिक किसी भी प्रकार की हिंसा नही होती है।

बसाई ऐसी ही अवधपुरी

अब हमारे ऋषियों ने ऐसी ही एक अवधपुरी को इस भूमंडल पर  बसाने का उद्यमपूर्ण प्रयास किया। जिसमें 8 चक्र और नौ द्वार बनाये गये। मनु महाराज के ज्येष्ठ पुत्र इक्ष्वाकु इस अवधपुरी के शासक बने। उन्हीं के नाम से इक्ष्वाकु-वंश की स्थापना हुई। अवध (अयोध्या) कभी विश्व राजधानी थी। उस समय के ऋषियों और हमारे पूर्वजों का चिंतन देखिए कि उन्होंने विश्व राजधानी का नाम ही अवध रख दिया। कहने का अभिप्राय है कि वे ऋषि लोग विश्व में वास्तविक शांति स्थापित करने के लिए तथा ‘कृण्वन्तो विश्वमाय्र्यम्’ और ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के अपने वैदिक आदर्श की प्राप्ति के लिए आवश्यक मानते थे कि विश्व की राजधानी ‘अवधपुरी’ हो। जिससे यह संदेश प्रतिध्वनित हो कि विश्व-शांति के लिए हर व्यक्ति मनसा-वाचा-कर्मणा अहिंसक होगा। इसका अभिप्राय था कि सारे विश्व को ही ‘अवध’ बनाने के लिए अवधपुरी बसायी गयी।

राम की अयोध्यानगरी

इसी अवधपुरी में इक्ष्वाकुवंशीय राजाओं की लंबी श्रंखला ने शासन किया। इसी इक्ष्वाकु-कुल में राजा दशरथ हुए जिनके चार पुत्र राम, भरत, शत्रुघ्न और लक्ष्मण थे। इनमें राम सबसे  बड़े थे। राम की जन्मस्थली अयोध्या का ‘रघुवंश रामायण के बालकाण्ड’ में बड़ा सजीव चित्रण किया गया है-

प्रासादै रत्नविकृतै पर्वत: शोभिताम्
कूटागारैश्च संपूर्ण इंद्रस्येवामरावतीम्
चित्रामष्टापदाकारां नरनारी गणैर्युताम्
सर्वरत्न-समाकीर्ण-विमान गृह शोभिताम्
विमानमिव सिद्वानां तप साधिगत दिवि,
सुनिवेशित वेश्मानां नरोत्तम समावृताम्।।

अर्थात उच्च रत्नजडि़त महलों से पर्वत के समान नगरी शोभायमान थी। महलों में स्त्रियों के क्रीड़ागृह बने हुए थे। जिनकी सुंदरता इंद्र की अमरावती के समान थी। राजभवन का रंग सुनहरा था। अनेक लावण्यमयी स्त्रियां वहां निवास करती थीं। जहां-तहां रत्नों के ढेर लगे हुए थे, जिधर दृष्टि दौड़ाई जाये, सभी ओर सप्त मंजिलें भवन दिखायी देते थे। वे ऐसे लगते थे जैसे तप द्वारा स्वर्ग गये सिद्घपुरूषों के विमानगृह बने हों। उन भव्य भवनों में उत्तम कोटि के प्राणियों का वास था।’’

ऐसी थी राम जन्मस्थली अयोध्या। इस वर्णन में भारतीय स्थापत्य कला को बड़ी उत्तमता से पिरोया गया है। जिससे स्पष्ट होता है कि इस प्राचीन नगरी का इतिहास कितना गौरवपूर्ण और यशस्वी रहा है? विश्व की हर सभ्यता इसके समक्ष बौनी है, इसकी प्राचीनता भी विश्व की हर सभ्यता के समक्ष सर्वाधिक प्राचीन है।

राम का सूर्यवंश

विश्व ने सभ्यता का सूर्य सूर्यवंशी राम के पूर्वजों की राजधानी अयोध्या में ही उदित होते देखा है। कदाचित राम के राजवंश के साथ सूर्य लगने का एक कारण यह भी रहा होगा कि अयोध्या से उदित होने वाला सूर्य (राजवंश) समस्त भूमंडल पर अपनी स्वर्णिम ज्ञान रश्मियों को बिखेर कर संपूर्ण संसार को एक संस्कृति और एक सभ्यता से आलोकित करता था, सबको एकता के सूत्र में बांधकर मानवतावाद का प्रचार और प्रसार करता था।

राम ने अपने राज्य का अपने जीवन काल में ही अपने तीनों भाईयों के पुत्रों और स्वयं अपने पुत्रों के मध्य विभाजन कर दिया था। उनके अपने पुत्र कुश ने कुशावती और लव ने शरावती (श्रावस्ती) से शासन किया था। इस प्रकार यहां से अयोध्या राम के अपने वंशजों से छूट गयी, यद्यपि शासन सूर्यवंश का ही रहा। बाद में कुश ने यहीं से शासन किया था। इसके पश्चात धीरे-धीरे अयोध्या का अवसान होना आरंभ हुआ।

राम ने भरत के पुत्र तक्ष (जिसने तक्षशिला की स्थापना की) का राज्य दिया। लक्ष्मण के पुत्र चंद्रकेतु और अंगद को मध्यपूर्व का क्षेत्र, मल्लदेश तथा कारूपथ को सौंपा था। मल्ल क्षेत्र की राजधानी चंद्रकांतपुरी तथा कारूपथ की अंगदीया अथवा अंगदपुरी बनी। शत्रुघ्न पुत्र सुबाहु को किष्किंधा व दक्षिणापथ और विभीषण को लंका का राज्य दिया था।

साम्राज्य का विभाजन चाहे कितनी ही अच्छी भावना से क्यों न किया गया था पर उसने अयोध्या की चमक को शनै: शनै: फीका करना आरंभ कर दिया। अगले शासकों का ध्यान इस ‘विश्व राजधानी’ से हटकर अपनी-अपनी राजधानियों की ओर जाने लगा। पर अयोध्या का स्थान उनके लिए एक तीर्थ बनने लगा। क्योंकि सबका उदगम् स्थल अयोध्या ही थी, और यह भी कि उससे उनके पूर्वजों के सम्मान और गौरव की स्मृतियां जुड़ी हुई थीं।

आज भी हम देखते हैं कि जब कोई व्यक्ति अपने गांव को छोडक़र किसी अन्य स्थल पर जाकर बसता है, तो उसकी स्वाभाविक श्रद्घा अपने पूर्वजों के गांव से जुड़ी रहती है, और उसकी पीढिय़ां भी अपने मूल गांव से संबंध बनाये रखने का प्रयास करती हैं।

राम संपूर्ण भूमंडलवासियों के लिए आदरणीय थे

राम एक ऐसे महान व्यक्तित्व थे जिनके प्रति कभी संपूर्ण भूमंडल के लोग श्रद्घाभाव रखते थे। उनकी मृत्यु के पश्चात उनके द्वारा स्थापित अपने भाईयों के पुत्रों के राज्यों के आगामी शासकों ने उन्हें अपना सर्वमान्य और सर्वसम्मानित पूर्वज स्वीकार किया और इसी रूप में उन्हें देखना आरंभ किया। कालांतर में देश के कितने ही राजवंशों ने स्वयं को सूर्यवंशी कहा, क्योंकि इससे उन्हें गर्व और गौरव की अनुभूति होती थी।

जब सारे देश के शासक राम के समक्ष दण्डवत होकर उन्हें अपना सर्वमान्य पूर्वज घोषित कर रहे थे तब राम की अयोध्या के जीर्णोद्घार और वहां पर राम मंदिर का निर्माण कर उनके प्रति अपना सम्मान भाव प्रकट करने की प्रेरणा भी लोगों में अवश्य ही उठती रही होगी।

महाभारत के युद्घ के समय यहां का शासक बृहत्बल था। जिसने कौरवों की ओर से युद्घ में भाग लिया था और उसे अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु के द्वारा मार दिया गया था।

राजा विक्रमादित्य ने किया अयोध्या का उद्घार

बहुत काल तक वीरान पड़ी रही अयोध्या का उद्घार महाराजा विक्रमादित्य ने कराया। राजा विक्रमादित्य अपने जीवन काल में अपनी राजधानी अवंतिकापुरी से एक दिन चलकर आखेट के लिए आये। स्वाभाविक था कि भारत की संस्कृति और धर्म से प्रेम करने वाले इस प्रजावत्सल राजा के हृदय में राम और राम की नगरी के प्रति श्रद्घाभाव उमडऩे लगा।

मानव जैसे परिवेश और परिस्थितियों में जाकर खड़ा होता है, वैसे ही परमाणु उस पर अवश्य प्रभावी होते हैं। राजा ने वीरान पड़ी अयोध्या नगरी से भी संवाद स्थापित किया। तब अयोध्या का कण-कण महाराजा विक्रमादित्य से संवाद करने लगा। मानो, राजा को आखेट के लिए आगे बढऩा ही कठिन हो गया।

रामजन्मभूमि पर कराया राम मंदिर का निर्माण

राजा विक्रमादित्य के साथ कई पौराणिक कथाएं भी जोड़ दी गयीं हैं। उसके विषय में यहां इतना ही उल्लेखित करना पर्याप्त है कि उसके द्वारा ही रामजन्मभूमि की खोज विशेष अभियान के द्वारा की गयी और तत्पश्चात वहां एक भव्य मंदिर का निर्माण कराया गया। ईसा से लगभग एक शतक पहले की यह घटना है।

कालिदास रामायण की साक्षी

कालिदास रामायण ‘रघुवंश’ में उल्लेख है कि राम के पश्चात उनके दोनों पुत्रों ने ही सर्वप्रथम यहां श्रीराम जन्मभूमि पर एक विशाल मंदिर का निर्माण करा दिया था। परंतु यह तर्क उचित नही लगता, क्योंकि उस समय भारत में मंदिर-संस्कृति या मूत्र्ति पूजा का कोई प्रचलन नही था। यह प्रचलन बौद्घ-धर्म के आगमन के पश्चात अधिक प्रसारित हुआ है। उससे पूर्व इस देश में गुरूकुलीय परंपरा थी, और गुरूकुल कई बार किसी महान व्यक्ति के स्मारक स्थल के रूप में भी कार्य करते थे।

एक अनुमान यह भी हो सकता है कि राम के दोनों पुत्रों ने यहां अपने पिता के शुभकार्यों और उत्कृष्टतम् मर्यादित जीवन के दृष्टिगत उन्होंने कोई गुरूकुल जैसी संस्था स्थापित की हो। यह कार्य चैत्र शुक्ल नवमी को किया गया था। तब रामनवमी को एक राष्ट्रीय पर्व के रूप में मान्यता मिली।

महाभारत युद्घ के पश्चात

महाभारत युद्घ के पश्चात अयोध्या के श्रावस्ती के राजा दिवाकर ने जीतकर इसे अपनी राजधानी बनाया और यहीं से शासन करना आरंभ कर दिया। नंद वंश के काल में भी अयोध्या का वैभव बना रहा। इसके पश्चात चाणक्य ने जब नंदवंश का विनाश कर यहां चंद्रगुप्त का शासन स्थापित किया तो चंद्रगुप्त ने भी अयोध्या के वैभव को बनाये रखने की ओर विशेष ध्यान दिया। रामजन्म भूमि के प्रति लोगों की आस्था और श्रद्घा निरंतर बनी रही।

अयोध्या पर पहला आक्रमण

ईसा से लगभग डेढ़ सौ वर्ष पूर्व विदेशी यवन राजा मिनेण्डर या मिलिंद ने (इसे मिहिरकुल भी कहा गया है) अयोध्या पर पहला विदेशी आक्रमण किया।

उसका विचार था कि भारत में जब तक यह रामजन्म भूमि और उस पर निर्मित गुरूकुलीय मंदिर स्थापित है तब तक भारत को जीतना असंभव है। वह स्वयं भी बौद्घ बन गया था। हमें ज्ञात होता है कि मिहिरकुल ने अपनी एक बड़ी सेना के माध्यम से इस मंदिर को गिरा दिया था। (संदर्भ : ‘पातंजलि महाभाष्य’ पृष्ठ 119)

लोगों ने किया मिहिरकुल का विरोध

तब हिंदू समाज ने अथवा संपूर्ण देश के राजवंशों और प्रजा के लिए समान रूप से समादरणीय और पूजनीय चरित्र के प्रतीक राम के प्रति भारत के आस्थावान समाज ने एक साथ उठकर राजा मिहिरकुल के उक्त कृत्य का विरोध किया और शुभवंशीय शासक द्युमत्सेन ने उस राजा पर प्रबल प्रहार कर उसकी राजधानी कौशांबी पर अधिकार कर लिया। मिहिरकुल को अपने किये का दण्ड मिला और वह इस युद्घ में मारा गया। इस प्रकार मात्र साढ़े तीन माह के पश्चात ही भूमिसात किया गया मंदिर पुन: खड़ा कर दिया गया।

मंदिर को मिला पुराना वैभव

राजशक्ति के सहयोग से मंदिर का निर्माण किया गया। इस मंदिर को देश में प्रारंभ से ही राज्याश्रय प्राप्त था और अब पुन: राज्याश्रय मिल जाने से इसका खोया हुआ वैभव लौट आया। अत: हम कह सकते हैं कि मिहिरकुल पहला विदेशी शासक था, जिसने राममंदिर पर पहला आक्रमण किया और उसे यहां के रामभक्त आर्यों (हिंदुओं) ने मार गिराया। रामजन्म भूमि को लेकर यह पहला युद्घ था और  पहला रण था जिसमें अनेकों रामभक्तों ने अपना बलिदान दिया था।

अयोध्या पर कुषाणों का आक्रमण

इसके पश्चात भारत की विश्व संस्कृति की प्रतीक रामजन्म भूमि पर कुषाणों ने आक्रमण करना आरंभ किया। इनके काल में यह मंदिर पुन: उजाड़ दिया गया, पर रामभक्त लोग रामनवमी के दिन एक खण्डहर में एक वृक्ष के नीचे अपनी पूजा पाठ करते रहे। तब यहां महाराजा विक्रमादित्य का आगमन हुआ।

उनको 50-60 वर्ष पूर्व ही नष्ट किये गये मंदिर और रामजन्मभूमि को पहचानने या खोजने में अधिक उद्योग की आवश्यकता नही पड़ी होगी। क्योंकि 50-60 वर्ष पुराने खण्डहर तो बता सकते हैं कि यहां पर क्या था? महाराज विक्रमादित्य राजा भर्तृहरि के लघु भ्राता थे, जो राजपाट को त्यागकर गोरखधाम चले गये थे।

‘लोमस रामायण’ की साक्षी

‘लोमस रामायण’ के अनुसार (विक्रमादित्य के द्वारा) ‘‘लक्ष्मण घाट के पास एक टीले का उत्खनन प्रारंभ हुआ। खुदाई में महाराज कुश द्वारा निर्मित रामजन्म भूमि मंदिर के अवशेष चिन्ह एक-एक करके मिलने आरंभ हो गये, 84 दुर्लभ कसौटी के पत्थर भी प्राप्त हुए। वे भूगर्भ में समाये हुए थे। कुछ ही वर्षों में उन्हीं कसौटी के पत्थरों के स्तंभों पर पुन: गौरवशाली रामजन्म भूमि मंदिर खड़ा हो गया।

कहा जाता है कि उस समय वह मंदिर 600 एकड़ भूमि के विस्तृत मैदान में फैला हुआ था। उसमें बड़े सुंदर मनोहारी उद्यान थे। बड़े-बड़े विशाल कूप थे और वहां अनेक मंदिर खड़े किये गये।’’

बाबर से पहले भी चलता रहा  संघर्ष

बाबर के काल तक पहुंचने के लिए हमें राम जन्मभूमि के इतिहास को संक्षिप्त रूप में समझ लेना आवश्यक है।

क्योंकि राम जन्मभूमि को मुक्त करने के लिए इस देश की जनता बाबर के पूर्व से ही संघर्ष करती रही है। इस मंदिर के साथ और अयोध्या के साथ हमारे देश का का गौरवपूर्ण इतिहास जुड़ा है, राम हमारी राष्ट्रीयता के प्रतीक मर्यादा पुरूषोत्तम हैं, जिन्हें देश के हर आंचल के हर राजा और उसकी प्रजा ने समान रूप से सम्मानित किया है और अयोध्या ने हमारी वह राजधानी है जिसने हमारी संस्कृति के प्राणतत्व ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ और ‘कृण्वन्तो विश्वमाय्र्यम्’ के संदेश को विश्व के कोने-कोने में फैलाया। अभी इसके इतिहास पर संक्षिप्त चर्चा हम अगले अंक में भी जारी रखेंगे।

क्रमश:

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राकेश कुमार आर्य
उगता भारत’ साप्ताहिक / दैनिक समाचारपत्र के संपादक; बी.ए. ,एलएल.बी. तक की शिक्षा, पेशे से अधिवक्ता। राकेश आर्य जी कई वर्षों से देश के विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। अब तक चालीस से अधिक पुस्तकों का लेखन कर चुके हैं। वर्तमान में ' 'राष्ट्रीय प्रेस महासंघ ' के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं । उत्कृष्ट लेखन के लिए राजस्थान के राज्यपाल श्री कल्याण सिंह जी सहित कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित किए जा चुके हैं । सामाजिक रूप से सक्रिय राकेश जी अखिल भारत हिन्दू महासभा के वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और अखिल भारतीय मानवाधिकार निगरानी समिति के राष्ट्रीय सलाहकार भी हैं। ग्रेटर नोएडा , जनपद गौतमबुध नगर दादरी, उ.प्र. के निवासी हैं।

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