–मनमोहन कुमार आर्य,
देश की आजादी में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की महत्वपूर्ण व प्रमुख भूमिका है। वह देश की आजादी के नायकों में एक प्रमुख नायक हैं। देश में उनको उनके त्याग और कार्यों के अनुरूप स्थान नहीं मिला। आज भी वास्तविक लोकप्रियता में वह आजादी के अन्य नायकों से बहुत आगे हैं। 15 अगस्त, 1947 को प्राप्त देश की आजादी में उनकी अग्रणीय भूमिका है। उन्होंने अपनी देशभक्ति और आजादी के लिए जो कार्य किये हैं वह महान एवं अपूर्व हैं। उनको स्मरण कर देश के हर नागरिक का सीना गर्व से तन जाता है। यह तथ्य है कि उनको विदेशों में जाकर आजादी का कार्य करने की प्रेरणा एक अन्य महान देशभक्त, लेखक, इतिहाज्ञ, विचारक तथा देश की आजादी के लिए दो जन्मों का कालापानी की सजा भोगने वाले भारत मां के महान पुत्र वीर सावरकर ने दी थी। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने अत्यन्त विपरीत परिस्थितियों में देश को आजाद करने के लिए जो प्रशंसनीय काम किये हैं वैसा देश की आजादी में उनके जैसा दूसरा उदाहरण देखने को नहीं मिलता। सारा देश उनका ऋणी है और हमेशा रहेगा। ‘ऐ मेरे वतन के लोगों जरा आंख में भर लो पानी जो शहीद हुए हैं उनकी जरा याद करो कुर्बानी। तुम भूल न जाओ उनको, इसलिये सुनो ये कहानी, जो शहीद हुए हैं उनकी जरा याद करो कुर्बानी’ इस गीत की पंक्तियां उनके देश पर बलिदान की घटना पर सटीक बैठती हैं। इस लेख में हम आजाद हिन्दी फौज में आर्यसमाज की भूमिका के विषय में चर्चा कर रहे हैं।नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने देश को आजाद कराने के लिए विदेशों में रहकर आजाद हिन्द फौज का गठन किया था और इसके माध्यम से आजादी में महत्वपूर्ण योगदान किया। नेताजी ने अत्यन्त विपरीत परिस्थितियों साहसिक कार्य के जो उदाहरण प्रस्तुत किया उससे देश का बच्चा-बच्चा स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करता है। नेताजी से पूर्व महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, गुरु गोविन्द सिंह जी और महाराणी लक्ष्मी बाई ने भी आर्य संस्कृति को गौरवान्वित किया था। रामायण काल में मर्यादा पुरुषोत्तम राम, महाभारत युद्ध में योगेश्वर कृष्ण और आचार्य चाणक्य की भूमिकायें भी अत्यन्त गौरवपूर्ण थी। हमें लगता है कि नेताजी ने इन्हीं महापुरुषों से प्रेरणा लेते रहे होंगे।
नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की सेना में भर्ती होकर विदेशियों की दासता से देश को मुक्त कराने के लिए बलिदान का संकल्प लेने वाले युवकों में आर्यसमाजी युवक कोई कम संख्या में नहीं थे। आजाद हिन्द सेना के प्रमुख नायकों में कर्नल प्रेम कुमार सहगल प्रत्यक्ष आर्यसमाजी थे। उनके पिता महाशय अछरूराम जी पंजाब के माने हुये कानूनदा थे। श्री अछरूराम जी का आर्यसमाज क्षेत्रों में बहुत महत्वपूर्ण तथा ऊंचा स्थान था। महाशय जी स्वयं कहा करते थे कि उन्हें अपने आर्यसमाजी होने पर गर्व है क्योंकि आर्यसमाज से प्राप्त हुई प्रेरणा के कारण उन्होंने अपने बेटे को स्वाधीनता संग्राम की भट्टी में झोंक दिया है। जो व्यक्ति यह बात कहे इससे अधिक आर्यसमाजी होने का प्रमाण नहीं हो सकता। कर्नल प्रेम कुमार सहगल भारतीय नैशनल आर्मी में आने से पहले ब्रिटिश इण्डियन आर्मी के सदस्य थे। कर्नल प्रेम कुमार सहगल ने आईएनए में बहुत महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया। उन्होंने बर्मा युद्ध में आईएनए का नेतृत्व किया था। उसके बाद उन्हें आत्मसमर्पण करना पड़ा था। अपने अन्य साथी कमांडरों के साथ ब्रिटिश सरकार द्वारा उन पर भी लाल किले में देशद्रोह का मुकदमा चला था। कर्नल प्रेम कुमार सहगल की पत्नी श्रीमती लक्ष्मी सहगल भी आईएनए की उच्च पदाधिकारी थी। श्रीमती सहगल भी आईएनए में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की निकट सहयोगी थी।देश के स्वाधीनता संग्राम में भाग लेने वाले युवकों में बहुत बड़ी संख्या आर्यसमाजी युवकों की थी। कीर्तिशेष आर्यसमाज के विद्वान श्री सत्यप्रिय शास्त्री, हिसार लिखते हैं कि 15 अगस्त, 1947 को सूर्योदय के साथ स्वाधीनता देवी ने जिसकी वर्षों से बड़ी अधीरता के साथ भारतवासी प्रतीक्षा कर रहे थे, भारत के प्रांगण में प्रवेश किया परन्तु यह स्वाधीनता हमारे देश भारत के लिये बहुत ही मंहगा सौदा सिद्ध हुआ। कुछ समय पूर्व आईएनए पर तीन दिवसीय एक सेमिनार हुआ था। इस सेमिनार के उद्घाटन समारोह में जनरल जी.डी. बक्शी का उद्बोधन हुआ। अपने उद्बोधन में जनरल बख्शी ने कहा था कि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के कारण ही अंग्रेजों ने भारत छोड़ा था।