दिल्ली के संसद मार्ग पर योग गुरु बाबा रामदेव की संस्था भारत स्वाभीमान ट्रस्ट द्वारा एक दिवसीय अनशन व धरने के आयोजन में गांधीवादी समाजसेवी अन्ना हजारे व उनकी टीम द्वारा सहयोग देने की घोषणा में मुझे तो कुछ विशेष बात नहीं लगी. पिछले वर्ष अन्ना हजारे के सबसे पहले अनशन पर बैठने की घोषणा भी फरवरी माह में रामलीला मैदान में बाबा रामदेव द्वारा बुलाई गयी एक सभा के मंच से की गयी थी. जबकि उस समय भी यह दोनों अलग-अलग संस्थाओं से जुड़े हुए थे. हाँ, मीडिया में अवश्य ही गाहे-बगाहे इन दोनों के संगठनों में मतभेद की चर्चाएँ चलती रहती हैं. निहित स्वार्थों के चलते अब फिर किसी न किसी बहाने इस एक दिवसीय अनशन व धरने के दौरान उठाये गए मुद्दों की चर्चा की अपेक्षा बाबा रामदेव व अन्ना हजारे का एक मंच पर आने व एक दूसरे के आन्दोलन को समर्थन देने के संकल्प को संशय की दृष्टि देखने का प्रयास किया जा रहा है. कोई दोनों के एक दूसरे को सहयोग देने व मंच साँझा करने को जरूरी बता रहे हैं तो कोई दोनों की घटती लोकप्रियता के चलते इसे इनकी मजबूरी का नाम दे रहे हैं. इसी बीच कुछ ने अरविन्द केजरीवाल और बाबा राम देव के मध्य कुछ मुद्दों पर मतभेद के समाचार को हवा देने का प्रयत्न किया. जब कि इस एक दिवसीय अनशन धरने के मध्य अपने संबोधन में योग गुरु बाबा रामदेव ने जो विशेष खुलासा किया वह था प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के रास्ते विदेशी बैंकों में जमा भारतीयों का काला धन गैर कानूनी तरीके से वापिस भारत में आने की सम्भावना. मीडिया में इस विषय पर विश्लेषण करने की अपेक्षा दोनों जन नायकों के सहयोग करने के समाचार को जरूरी या मजबूरी का नाम देकर तरजीह दी जा रही है. जो भी हो, आवश्यकता इस बात को समझने की है कि जनआकांक्षाओं के मुद्दों को लेकर दबाव बनाने के लिए चलाये जाने वाले जनांदोलनों को तमाम प्रकार के विरोद्ध-गतिरोध का सामना करना पड़ता है. रामदेव और टीम अन्ना द्वारा चलाये जा रहे जनसरोकारों के आन्दोलन को शासन के साथ-साथ देश की राजनीति का भी विरोद्ध सहना पड़ रहा है. देश को तो इन दोनों के साहस की दाद देनी चाहिए कि तमाम तरह की कठिनाइयों के बावजूद भी इन दोनों ने देश हित में चलाये जा रहे आंदोलनों को जारी रखा हुआ है.
देश में भ्रष्टाचार रुपी राक्षस के बढ़ते आतंक से देशवासियों को बचाने के लिए ही दोनों अलग-अलग और अपने-अपने स्तर पर संघर्ष कर रहे हैं. एक ओर श्वेत धवल धोती-कुर्ते और गांधी टोपी में एक साधारण, बाल सुलभ और सौम्य प्रवृति वाले शांति और सात्विकता के प्रतीक अन्ना हजारे हैं और दूसरी ओर आदि अनंत काल से त्याग, तपस्या, समर्पण, श्रद्धा और क्रांति का परिचायक भगवा रंग के वस्त्रों में लिपटे हुए देश के लिए कुछ करने की भावना से ओत-प्रोत योग गुरु बाबा रामदेव. देश की भ्रष्ट सत्ता और शासन तंत्र को चुनौती देते इन दोनों का वर्तमान परिस्थितियों में मिलन अवश्य ही कुछ लोगों की आंख की किरकिरी बना होगा. विगत लगभग एक वर्ष के घटनाक्रम पर यदि दृष्टिपात किया जाये तो इस मिलन पर शंकाएं उत्पन्न होना स्वाभाविक भी है. संसद मार्ग पर आयोजित एक दिवसीय अनशन व धरने के आयोजन पर अन्ना हजारे का अपनी टीम के अरविन्द केजरीवाल, मनीष सिशोदिया व किरण बेदी सहित प्रमुख सदस्यों का सम्मिलित होना व मंच को साँझा करने के समाचार पर एक बड़ा प्रश्न अवश्य ही पैदा होता है कि समान लक्ष्य की प्राप्ति के लिए असफलताओं और गतिरोधों के मध्य क्या यह मिलन जरूरी हो गया था या जैसा प्रचारित किया जा रहा है कि यह घटती लोकप्रियता को पुनः प्राप्त करने के लिए दो विभिन्न विचारधाराओं का मजबूरी में दिखावे की निकटता है ?
चर्चा करने से पहले सर्वप्रथम हमें गांधीवादी अन्ना हजारे व योगगुरु बाबा रामदेव की पृष्ठभूमि को समझना होगा. जहाँ एक ओर दोनों में बड़ी समानता यह है कि ग्रामीण पृष्ठ भूमि और बहुत ही सामान्य परिवारों से आये यह दोनों व्यक्ति देश में बड़ रहे भ्रष्टाचार पर अविलम्ब रोकथाम के लिए संघर्ष करने के साथ ही शासन व राजनीतिक प्रतिरोध सहते हुए देशवासियों में आशा की किरण जगाने में सफल हुए हैं. जनलोकपाल अधिनियम की मांग को लेकर १३ दिनों तक रामलीला मैदान पर अनशन करनेवाले अन्ना हजारे की टीम अन्ना या इंडिया अगेंस्ट करप्शन के जहाँ अधिकतर समर्थक पढ़े-लिखे प्रतियोगिता युग के शहरी युवक-युवतियां हैं जो हर समस्या का त्वरित हल चाहते हैं. वहीँ योगगुरु रामदेव की भारत स्वाभीमान संस्था में समाज के सभी क्षेत्रों से धार्मिक भावना और इश्वर में आस्था रखनेवाले सभी आयु के स्त्री-पुरुष हैं. आस्था और धार्मिक भावना रखनेवाले लोग बहुत ही धैर्यवान व दृड़ निश्चयी होते हैं जिसके चलते नाना प्रकार की कठिनाइयाँ झेलने के बाद भी लक्ष्य प्राप्ति के लिए बार-बार प्रयत्न करना उनके लिए तनिक भी कठिन नहीं होता.
रामलीला मैदान में अन्ना के अनशन के दौरान दिल्ली व देश भर में सड़कों पर उतरे स्वतः स्फूर्त जनसैलाब में देश के तमाम राजनीतिक दलों, संस्थाओं व विचारधाराओं के समर्थक थे जो भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए जनलोकपाल अधिनियम बनाये जाने के समर्थन में घरों से बाहर निकले थे. अब यह टीम अन्ना की नासमझी थी जिसने अपनी बेवजह बयानबाजी के चलते जहाँ एक ओर देश के पूरे राजनीतिक समाज को अपने विरुद्ध कर लिया वहीँ दूसरी ओर दिल्ली में मिली सफलता के चलते गाहे-बगाहे हर फटे में टांग फंसा कर देश की आम जनता को भी अपने से दूर कर लिया था. इन्हीं कुछ कारणों के चलते मुंबई और दिल्ली में दुबारा बुलाये गए तीन दिवसीय अनशन व धरने से आम जनता द्वारा पल्ला झाड़ने के फलस्वरूप जग हंसाई से बचाने के लिए उसे एक ही दिन में समाप्त करना पड़ा था. वैसे भी दुर्भाग्यवश देश में आज ऐसी राजनीतिक परिस्थिति का निर्माण हो चुका है कि चाहे जितनी इमानदारी से जनता के सरोकारों के मुद्दों पर कोई जनआन्दोलन चलाया जाये, निहित स्वार्थों के चलते उसे किसी न किसी राजनीति या धर्मं के रंग से जोड़ असफल करने का पूरा प्रयास किया जाता है. जिसके फलस्वरूप मुद्दे पीछे रह जाते हैं और राजनीति व टांग खिचाई शुरू हो जाती है. ऐसे कार्यों में मीडिया सबसे बड़ा खेल खेलती है. बाबा राम देव और टीम अन्ना के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. टीम अन्ना के सदस्यों को वामपंथी विचारधारा से और बाबा रामदेव को संघ परिवार से जोड़ जनसरोकार के उनके आन्दोलन को तारपीडो करने के लिए तमाम तरह के षड़यंत्र अभी भी किये जा रहे हैं.
देश की आम जनता जिसे वर्तमान भ्रष्ट शासन व्यवस्था और गंदी राजनीति से कुछ लेना देना नहीं है, आन्दोलन के दमन के लिए चलाये जा रहे इस प्रकार के कुचक्रों को भली-भांति समझ गई है. बाबा और अन्ना का मिलन, जरूरी या मजबूरी का प्रश्न उसके लिए बेमानी है. आन्दोलन को रंगों में बाँटने का कुत्सित प्रयास या फिर जरूरी या मजबूरी के प्रश्न खड़े कर आन्दोलनकारियों को हतोत्साहित करने का षड़यंत्र अब अधिक दिनों तक नहीं चलने वाला. निहित स्वार्थ वाली शक्तियों को यह सब समझ लेना चाहिए कि देश की जनता अंततः चाहती क्या है ? वैसे संसद मार्ग पर एक दिवसीय धरना व अनशन में सम्मिलित लोगों के उत्साह व आक्रोश से इस प्रश्न का उत्तर स्पष्ट परिलक्षित हो रहा था.
धन्यवाद इकबाल जी…मेरी भी राय कुछ ऐसी ही है. हमारे देश के राजनीतिज्ञ ऐसा कठोर और कारगर कोई भी कानून बनाने की जहमत नहीं उठाएंगे जिसमें उनके स्वयं के फंसने की आशंका हो. चक्रव्यूह की रचना विरोधियों या दुश्मनों के लिए की जाती है न की स्वयं फंसने के लिए……!
अन्ना और बाबा की आन्दोलन चलाने की कोई मजबूरी नही है हाँ कांग्रेस को एक के बाद एक चुनावी हर से लोकपाल बिल पास करने की मजबूरी जरूर समझ में आ रही है.