वीरव्रत

राकेश “माहेश्वरी”
श्रीमद् भगवदगीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं –
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्म संस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।।
(भक्तों का उद्धार, दुष्टों का विनाश तथा धर्म की स्थापना करने मैं प्रत्येक युग में प्रकट होता हूं।)
इस श्लोक का एक भावार्थ यह भी हो सकता है कि ईश्वर का कार्य है धर्म की स्थापना, दुष्टों का नाश और भक्तों का कल्याण। हम संघ के स्वयंसेवक भी अपनी प्रार्थना में ‘त्वदीयाय कार्याय बद्धा कटीयम्’ कहते हैं। अर्थात हे परमेश्वर, तेरे कार्य के लिए हम कटिबद्ध हैं और इसकी पूर्ति के लिए हमें आशीष दे। इसे करने का एक ही साधन है वीरव्रत। वीरव्रत अर्थात जीवन के अन्तिम क्षण तक संघर्ष करते रहना, बिना किसी शंका के, चाहे परिणाम कुछ भी मिले।
हमारी सनातन संस्कृति के इतिहास में वीरव्रत के कई उदाहरण मिलते हैं। जिन्होेंने शीश कटा दिये, देह जर्जर हो गयी, वंश निरवंश हो गये, पर अन्तिम समय तक धर्म की रक्षा के लिए दुष्ट आक्रांताओं के विरुद्ध डटे रहे। कवि शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ लिखते हैं –
क्या हार में क्या जीत में, किंचित नहीं भयभीत मैं कर्तव्य पथ पर जो मिला, यह भी सही वह भी सही।
महाभारत में एक प्रसंग आता है। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि अश्वथामा के पास नारायण अस्त्र है। अतः उसे परास्त करने के लिए तुम भगवान शिव की आराधना कर पाशुपतास्त्र प्राप्त करो। अर्जुन ने भगवान शिव की आराधना की। भगवान प्रसन्न हुए। अर्जुन की परीक्षा लेने के लिए वे किरात के रूप में प्रकट होकर उस पर बाणों की वर्षा करने लगे। अर्जुन ने भी डट कर युद्ध किया। उसे पता नहीं था कि वह भगवान शिव से लड़ रहा है। उसके धनुष, गदा, तलवार सब छिन्न-भिन्न हो गयेे, पर उसने हार नहीं मानी। भगवान शिव ने प्रसन्न होकर अर्जुन को पाशुपतास्त्र देते हुए कहा, ‘‘मैं तुम्हारी परीक्षा ले रहा था कि तुम निराश तो नहीं होते ? पराजय पर पराजय भी यदि मिलती रहे, तो भी कहीं तुम विचलित तो नहीं होते ?’’
कोई संकल्प लेना और दृढता से उसका पालन करना, चाहे उसके लिए स्वयं भी समर्पित हो जायें, तो भी अफसोस नहीं। वीरव्रती त्याग की अग्नि में तपता है। वह प्रेय से श्रेय की ओर जाता है। कठोपनिषद में यमराज नचिकेता को समझाते हुए कहते हैं कि
श्रेयच्श्र प्रेयच्श्र मनुष्यमेत
स्तौ सम्परीत्य विविनक्ति धीरः।
श्रेयो हि धीरो भि प्रेयसो वृणीते
प्रेयो मन्दो योग क्षेमाद वृणीते ।। 2।।
(प्रथम अध्याय द्वितीय वल्ली)

‘श्रेय और प्रेय दोनों मनुष्य के पास आते हैं। वीरव्रती धीर पुरुष दोनों की परीक्षा कर श्रेय का वरण करता है, पर मन्दबुद्धि पुरुष धनलोभ व आसक्ति के कारण प्रेय को चुनता है।’
वस्तुतः वीरव्रत क्षण भर के सुख को प्राप्त करने का साधन नहीं, अपितु समुत्कर्ष और निःश्रेयस अर्थात अभ्युदय और निःश्रेयता को प्राप्त करने का साधन है। पिछली सदी में संविधान निर्माता डा. बाबा साहेब अम्बेडकर का जीवन भारी संघर्षो से भरा था, परन्तु उन्होंने भी हार नहीं मानी। बाल्यकाल से ही छुआछूत के शिकार हुए। विद्यालय में अलग बैठा दिये जाते थे। उनकी जाति वालों का मन्दिरों में प्रवेश वर्जित था। गांव में अलग जलाशय था। समाज की अनेक कुरीतियों के वे शिकार हुए। 1907 में जब मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की और बम्बई विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया, तो उस समय वे वि.वि. में पढ़ने वाले अस्पश्र्य जाति के प्रथम भारतीय थे।
कल्पना से परे है कि अध्ययन में कुशाग्र, हर ओर से समाज की बराबरी करने के बाद भी समाज ने उनसे भेदभाव किया। लेकिन लगातार प्रताड़ित होने के बाद भी उन्होंने संघर्ष नहीं छोड़ा। विधि, अर्थशास्त्र व राजनीति शास्त्र में अध्ययन, कोलंबिया वि.वि. और लंदन स्कूल आॅफ इकाॅनोमिक्स से कई डाक्टरेट डिग्रियां लीं। कुल 32 डिग्रियां बाबासाहेब ने प्राप्त कीं। जीवन भर समाज के दलित, पिछड़े और शोषित वर्ग की आवाज बने रहे। उन्होंने अपने समाज को शैक्षिक, आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक आदि रूपों में समान करने का अथक प्रयास किया। मृत्यु के 34 वर्ष उपरान्त 1990 में उन्हें ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया।
एक सर्वश्रेष्ठ विद्यार्थी, एक महान नेता, समदर्शी, दलितों व शोषितों के उद्धारक, जीवन के सभी आयामों में जिनका दूर-दूर तक कोई सानी न हो, ऐसे अपने डा. अम्बेडकर वीरव्रती ही तो थे। ईश्वर के कार्य के लिए ही तो उनका जन्म हुआ था। किसी ने ठीक ही लिखा है –
वन में खिलते पुष्प अपार, सूख भूमि में होते क्षार
कब किसने उनको गाया है, उनका जीवन व्यर्थ असार।
पर जो पुष्प गजेन्द्र उठाया, भक्ति भाव हरि चरण चढ़ाया
कमल पुष्प वह धन्य हो गया, मुक्ति पा गया मोक्ष पा गया।।

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