बाबरी ढांचा का गिरना साजिश कैसे हो गया ?

डॉ. मयंक चतुर्वेदी

इस प्रश्न को कोर्ट की अवमानना न माना जाए, देश का आम नागरिक होने के नाते यह प्रश्न सहज ही उत्पन्न हुआ, जब सुना और देखा भी कि बाबरी विध्वंस मामले में सीबीआई की विशेष अदालत ने केस में सभी 12 आरोपियों पर 120 बी के तहत आरोप तय करते हुए आपराधिक साजिश का केस चलाने का निर्णय लिया है । जिसमें कि आरोपियों के वकील ने कोर्ट में जो डिस्चार्ज याचिका लगाई थी उसे भी खारिज कर दिया गया । इस पूरी प्रक्रिया में भले ही सभी नियमों का पालन हुआ होगा किंतु जो बात समझ नहीं आ रही है, वह यही है कि कैसे एक सार्वजनिक आन्दोलन को आप साजिश करार दे सकते हैं ?

 

वस्तुत: जो अब तक इस शब्द के बारे में जाना है वह यही है कि साजिश बंद कमरे में होती है, वह तो चतुराई से किया गया षड्यंत्र है जिसके बारे में प्राय: किसी को भनक तक नहीं हो पाती । घटना घटने के बाद पता चलता है कि फँला मामले में साजिश रची गई थी । जो कार्य खुले मैदान में हो, सब के सामने कोई घटना घट रही हो, उसे फिर कैसे साजिश कहा जा सकता है, जबकि बाबरी ढांचे गिराने को लेकर तो यही हुआ है। वह सर्वमान्य रूप से,  सर्व स्वीकृति से हिन्दू स्वाभि‍मान को कमजोर करने का प्रतीक बन जाने के बाद, उसे देश की आम जनता कार सेवकों ने एक पल में ही भस्म‍िभूत कर दिया था। फिर यह मामला साजिश की श्रेणी में कैसे शुमार हो गया ? गौर इस पर भी किया जाए कि बात यहां हिन्दू स्वाभि‍मान की हो रही है । इसके इतिहास को एक नजर देखें तो बहुत कुछ स्वत: ही स्पष्ट है।

 

वस्तुत: यह बात इतिहास के पन्नों में दर्ज है कि 1527 में जब मुस्लिम सम्राट बाबर आया तो उसने अपने सेनापति मीर बाकी को वहां का सूबेदार बना दिया था । मीर बाकी ने अयोध्या में बाबरी मस्जिद का निर्माण कर इसका नामकरण बाबर के नाम पर किया। समकालीन तारीख-ए-बाबरी के अनुसार बाबर की सेना ने बहुत सारे हिंदू मंदिरों को ध्वस्त कर दिया था। 1528 में राम जन्म भूमि पर मस्जिद बनायी गयी थी । इसके बाद हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच इस जमीन को लेकर पहली बार 1853 में विवाद हुआ । विवाद को देखते हुए 1859 में अंग्रेजों ने पूजा और नमाज के लिए मुसलमानों को अन्दर का हिस्सा और हिन्दुओं को बाहर का हिस्सा उपयोग करने को कहा। उसके बाद 1885 में मामला पहली दफे अदालत पहुंचा जिसमें कि महंत रघुबर दास ने फैजाबाद अदालत में बाबरी मस्जिद से लगे एक राम मंदिर के निर्माण की इजाजत के लिए अपील दायर की थी । बाद में 23 दिसंबर 1949 को करीब 50 हिंदुओं ने मस्जिद के केंद्रीय स्थल पर भगवान राम की मूर्ति रख दी और यहां हिन्‍दू नियमित रूप से पूजा करने लगे ।

 

इस स्‍थान को लेकर पुरातात्‍विक तथ्‍यों को भी देखा जा सकता है, वस्‍तुत: जब 1970, 1992 और 2003 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) द्वारा विवादित स्थल के आसपास खुदाई की गयी तो उस स्थल पर हिंदू परिसर मौजूद होने का संकेत मिला । 1992 में ध्वस्त ढांचे के मलबे से निकले एक मोटे पत्थर के खंड के अभिलेख से उस स्थल पर एक पुराने हिंदू मंदिर के पैलियोग्राफिक (लेखन के प्राचीनकालीन रूप के अध्ययन) प्रमाण प्राप्त हुए। विध्वंस के दिन 260 से अधिक अन्य कलाकृतियां और प्राचीन हिंदू मंदिर का हिस्सा होने के और भी बहुत सारे तथ्य भी निकाले गये। शिलालेख में 20 पंक्तियां, 30 श्लोक (छंद) हैं और इसे संस्कृत में नागरी लिपि में लिखा गया है। ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी में ‘नागरी लिपि’ प्रचलित थी। प्रो॰ ए. एम. शास्त्री, डॉ॰ के. वी. रमेश, डॉ॰ टी. पी. वर्मा, प्रो॰ बी.आर. ग्रोवर, डॉ॰ ए.के. सिन्हा, डॉ॰ सुधा मलैया, डॉ॰ डी. पी. दुबे और डॉ॰ जी. सी. त्रिपाठी समेत पुरालेखवेत्ताओं, संस्कृत विद्वानों, इतिहासकारों और पुरातत्वविदों के दल द्वारा गूढ़ लेखों के रूप में संदेश के महत्वपूर्ण भाग को समझा गया।

 

शुरू के बीस छंद राजा गोविंद चंद्र गढ़वाल (1114-1154 ई.) और उनके वंश की प्रशंसा करते हैं। इक्कीसवां छंद इस प्रकार कहता है: “वामन अवतार (बौने ब्राह्मण के रूप में विष्णु के अवतार) के चरणों में शीश नवाने के बाद अपनी आत्मा की मुक्ति के लिए राजा ने विष्णु हरि (श्री राम) के अद्भुत मंदिर के लिए संगमरमर के खंबे और आकाश तक पहुंचनेवाले पत्थर की संरचना का निर्माण करने और शीर्ष चूड़ा को बहुत सारे सोने से मढ़ दिया और वाण का मुंह आकाश की ओर करके इसे पूरा किया – यह एक ऐसा भव्य मंदिर है जैसा इससे पहले देश के इतिहास में किसी राजा ने नहीं बनाया.” इसमें आगे भी कहा गया है कि यह मंदिर, मंदिरों के शहर अयोध्या में बनाया गया था। इस तरह यदि अब तक प्राप्‍त सभी साक्ष्‍यों पर गौर करें तो यह स्‍पष्‍ट है कि विवादित स्‍थान श्रीराम जन्‍मभूमि परिसर है, जहां पहले राम मंदिर बना हुआ था और जिसे हिन्‍दू समुदाय सदियों से श्रीराम के जन्‍मस्‍थान के रूप में पूजता आ रहा है।

 

1992 विवादित ढंचे के भस्‍मिभूत हो जाने के बाद जिस तरह का फैसला इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 30 सितंबर 2010 को सुनाया था, उसमें भी विवादित स्थल के दो हिस्से निर्मोही अखाड़ा और रामलला के ‘मित्र’ को दिए गए और एक हिस्सा मुसलमानों को, दिया गया था जिनका प्रतिनिधित्व उत्तर प्रदेश का सुन्नी सेंट्रल बोर्ड करता है। जब हाईकोर्ट के इस फैसले में यह माना गया है कि हिंदू मान्यताओं के अनुसार मस्जिद के गुंबद के नीचे की जगह रामलला की जन्मस्थली है, इसलिए वह हिंदुओं को मिलनी चाहिए। एक बड़ा प्रश्‍न यह भी है कि अयोध्‍या के जिस स्‍थान को भारत की बहुसंख्‍यक जनता अपने आराध्‍य श्रीराम का जन्‍म स्‍थल मानती है, वहां उनका भव्‍य मंदिर नहीं होगा तो कहां होगा ?
इस जमीन के स्वामित्व को लेकर सुप्रीम कोर्ट में लगी याचिका पर फैसला होने में कितना समय लगेगा, अभी कहना मुश्किल है, किंतु जब भारत सरकार द्वारा 1992 में अयोध्या में विवादित ढांचे बाबरी मस्जिद के विध्वंस की जांच पड़ताल के लिए लिब्रहान आयोग का गठन किया गया, जिसने कि अपनी रिपोर्ट 30 जून 2009 को तत्‍कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को सौंपी थी । उसमें मस्जिद के विध्वंस के लिए 68 लोगों को दोषी ठहराया गया था, रिपोर्ट कहती है कि भाजपा नेताओं ने भड़ाकाऊ भाषण दिए थे, जिसके कारण से ढांचा गिरा दिया गया । किंतु प्रश्‍न इसमें फिर वही है कि इसमें साजिश कहां है ? जो हो रहा था वह सभी के सामने हो रहा था। कोई छिपा हुआ एजेंडा नहीं था। यह एक खुला आंदोलन था।

 

आज भले ही अयोध्या में विवादित ढांचा ध्वस्त किये जाने के मामले में पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी, भारतीय जनता पार्टी के पूर्व अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी और केंद्रीय मंत्री उमा भारती सहित 12 आरोपियों पर केन्द्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) की विशेष अदालत ने आरोप तय करते हुए उन पर आपराधिक साजिश का मुकदमा चलाना तय किया हो, जिसकी कि सुनवाई प्रतिदिन होगी। किंतु सच यही है कि इस पूरे प्रकरण को कोई साजिश कैसे सिद्ध कर सकता है ? जबकि सब जानते हैं कि छह दिसम्बर 1992 को छावनी में तब्दील अयोध्या में पूर्वान्ह 10 बजकर 55 मिनट पर हुआ क्‍या था । सामने की हकीकत यही है कि सैकड़ों कारसेवक विवादित ढांचे पर चढ़ गये थे और तीन बजते-बजते तीनों गुम्बद मय दीवार धराशायी कर दिये गये। ढांचा ध्वस्त होने के समय विवादित ढांचे से करीब 100-150 मीटर की दूरी पर स्थित रामकथा कुंज के भवन की छत को मंच बनाकर भारतीय जनता पार्टी और विहिप के नेता कारसेवकों को सम्बोधित कर रहे थे। सम्बोधन करने वालों में आडवाणी, जोशी,उमाभारती, साध्वी ऋतम्भरा, अशोक सिंघल, शेषाद्रि, विनय कटियार, परमहंस रामचन्द्रदास, नृत्यगोपाल दास सरीखे लोग और मंदिर आन्दोलन के अगली कतार के नेता मौजूद थे, जिन्‍होंने कहीं छिप कर बाबरी ढांचा गिराने की कोई साजिश नहीं रची थी, जो हो रहा था, सभी कुछ सामने था ।

 

उस दिन विवादित ढांचे और उसके आसपास अधिग्रहीत परिसर में दो लाख से अधिक कारसेवक मौजूद थे। करीब 20 हजार सुरक्षाकर्मियों की मौजूदगी के बावजूद कारसेवकों में जरा भी भय नहीं था। वापस लौट रहे कारसेवकों को अतिप्रसन्‍नता के साथ ढांचे के छोट-छोटे अवशेष साथ ले जाते देखा गया।
इतिहास का सच यही है कि लाखों कारसेवक चाहते थे कि ढांचा गिरे इसलिये वह ध्वस्त हुआ। उच्च न्यायालय ने भी विवादित स्थल को रामलला का बताया है। इसलिये अब तो कोई विवाद रह ही नहीं गया है। फिर भी बहुसंख्‍यक भारतीय समाज की धारणा आज यही है कि बाबरी ढांचा का गिरना कोई साजिश नहीं, बल्कि इसके ढहने का समय हिन्‍दू स्‍वाभिमान का प्रतीक बन चुका गौरवपूर्ण क्षण था, इसलिए इसे साजिश न कहा जाए ।

 

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मयंक चतुर्वेदी
मयंक चतुर्वेदी मूलत: ग्वालियर, म.प्र. में जन्में ओर वहीं से इन्होंने पत्रकारिता की विधिवत शुरूआत दैनिक जागरण से की। 11 वर्षों से पत्रकारिता में सक्रिय मयंक चतुर्वेदी ने जीवाजी विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के साथ हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर, एम.फिल तथा पी-एच.डी. तक अध्ययन किया है। कुछ समय शासकीय महाविद्यालय में हिन्दी विषय के सहायक प्राध्यापक भी रहे, साथ ही सिविल सेवा की तैयारी करने वाले विद्यार्थियों को भी मार्गदर्शन प्रदान किया। राष्ट्रवादी सोच रखने वाले मयंक चतुर्वेदी पांचजन्य जैसे राष्ट्रीय साप्ताहिक, दैनिक स्वदेश से भी जुड़े हुए हैं। राष्ट्रीय मुद्दों पर लिखना ही इनकी फितरत है। सम्प्रति : मयंक चतुर्वेदी हिन्दुस्थान समाचार, बहुभाषी न्यूज एजेंसी के मध्यप्रदेश ब्यूरो प्रमुख हैं।

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