-अरुण तिवारी-
-संदर्भ: दावोस पर्यावरण प्रदर्शन सूचकांक-
सांगठनिक स्तर पर देखें तो पर्यावरण की चिंता करना पर्यावरणीय संगठनों का काम है और शिक्षा की चिंता करना शैक्षिक संगठनों का। किंतु क्या आपको यह देखकर ताज्जुब नहींं होता कि भारत में शैक्षिक संस्थानों की रैंकिंग का काम राजनीतिक पत्रिकाओं ने संभाल लिया है। औद्योगिक रैंकिंग करते ऐसे संगठन करते देखे गये हैं, जिन्होंने खुद कभी उद्योग नहींं चलाये। देश और मुख्यमंत्री से लेकर बिजली, दवा, रियल ईस्टेट, मीडिया, शिक्षण संस्थाान तक; रैंकिंग का यह खेल कई स्तर पर है। यही खेल पदक से लेकर पुरस्कार लेने-देने में भी चलता है। पुरस्कार पाने वाले को खुद पुरस्कार पाने के लिए आवेदन करना पड़ता है कि मुझे पुरस्कार दो। अपने काम के गुणगान के दस्तावेज खुद जुटाने पङते हैं। यह उलटबांसी नहीं तो और क्या है ? इसी तरह की उलटबांसी पर्यावरण के क्षेत्र में भी दिखाई दे रही है। पिछले दो दशक से कई अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संगठन, दुनिया भर की पर्यावरण रेटिंग करने में बङी शिद्दत से जुटे दिखाई दे रहे हैं। हम भी हकीकत से रुबरु हुए बिना, रैंकिंग के आधार पर अपने भविष्य के निर्णय करने लगे हैं।
निरर्थक नहींं उलटबांसियां
क्या ये सब उलटबांसियां निरर्थक हैं ? नहींं! गौर करें तो पता चलेगा कि इनका मकसद येन-केन-प्रकारेण सिर्फ और सिर्फ कमाना है। रैंकिंग देने वाले भारतीय संगठनों के खेल किसी से छिपे नहींं है। सीधे-सीधे कहूं तो ये सगठन ऐसी बाजारु ताकते हैं, जो अपना माल बेचने के लिए दुनिया भर में अफवाहों का विज्ञापन करती हैं। मौजूदा को नकारने-बिगाड़ने और नये को सर्वश्रेष्ठ समाधान बताना ही इनकी मार्केटिंग का आधार है।
रैंकिंग के आधार पर गौर करें
गौर करने की बात है कि यह आधार हाल ही दावोस में जारी पर्यावरणीय प्रदर्शन सूचकांक का आधार इस खेल से बहुत मेल खाता है। हम सब जानते हैं कि असल चिंता तो पर्यावरणीय क्षति की होनी चाहिए। मूल कारक तो वही है। जिन कारणों से पर्यावरणीय क्षति होती है, उन्हें रोकने के प्रयासों को आधार बनाना चाहिए था। लेकिन सूचकांक का आधार इसे न बनाकर पर्यावरणीय क्षति से मानव सेहत तथा पारिस्थितिकीय क्षति को रोकने के प्रयासों को बनाया गया है। हमने तो हमेशा यही पढ़ा था – ’’इलाज से बेहतर है रोग की रोकथाम।’’ उक्त आधार रोकथाम को पीछे और इलाज को आगे रखता है। क्या यह सही है ? इस आधार पर जारी पर्यावरणीय प्रदर्शन सूचकांक में शामिल कुल 178 देशों की सूची में भारत को 155वें पायदान पर रखकर फिसड्डी करार दिया गया हैै; पड़ोसी पाकिस्तान (148) और नेपाल (139) से भी पीछे। यह सूचकांक वल्र्ड इकोनाॅमी फोरम की पहल पर येल और कोलंबिया विश्वविद्यालय ने विशेषज्ञों ने तैयार किया है। सैमुअल फैमिली फाउंडेशन और काॅल मेकबेन फाउंडेशन ने इसमें मदद की हैं।
सुधरती हुई आर्थिकी वाले देशों पर निगाह
गौर करने की बात है कि सुधरती आर्थिकी वाले चीन, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, रूस और भारत जैसे किसी भी देश को रैंकिंग में आगे नहींं रखा गया। ऐसे देशों में भी भारत को सभी से पीछे रखा गया है। दक्षिण अफ्रीका को 72, रूसी को 73, ब्राजील को 78 और चीन को 118 वें पायदान पर रखा गया है। भारत को मात्र 31.23 अंक दिए गये हैं। स्विटरजरलैंड, लक्समबर्ग, आस्ट्रेलिया, सिंगापुर और चेक रिपब्लिक के नाम प्रथम पांच के रूप में दर्ज किए गये हैं। उल्लेखनीय है कि उभरती आर्थिकी वाले देशों को खास तौर पर इंगित करते हुए सूचकांक रिपोर्ट कहती है कि ये वे देश हैं, 2009 से 2012 के बीच जिनकी आर्थिकी में 55 प्रतिशत तक तरक्की हुई। सावधान करता तथ्य यह भी है कि दावोस में पेश रिपोर्ट हैती, सोमालिया, माली, लियोथो और अफगानिस्तान को ऐसे देशों के रूप में चिन्हित करती है, जहां अशांति और राजनीतिक उथल-पुथल है। भारतीय राजनीति में दावोस की दिलचस्पी का एक मतलब, उथल-पुथल करना भी हो सकता है।
यह बात ठीक है कि नई आर्थिक तरक्की वाले देशों में पर्यावरणीय क्षेत्र में काफी कुछ खोया है। खराब नीति और प्रदर्शन के लिए आंकङेबाजी और माप क्षमता में कमजोरी नीति, प्रदर्शन और प्रकृति पर खराब असर डाल सकती है। यह भी सही है कि हवा, जैव विविधता और मानव सेहत के लिए जरूरी इंतजाम किए बगैर शहरीकरण बढ़ाते जाना खतरनाक है; बावजूद इसके क्या यह सच नहींं है कि संयुक्त राष्ट्र संघ के विकास कार्यक्रमों की पूरी श्रृंखला दुनिया को शहरीकरण की तरफ ही ले धकेल रही है ? गांव को गांव बना रहने देने का संयुक्त राष्ट्र संघ का एक कार्यक्रम हो तो बताइये।
खुद की खोज पर करें भरोसा
उक्त रिपोर्ट की सुनें तो यदि भारत इस सूचकांक में ऊपर स्थान चाहता है, तो उसे दुनिया भर की शोधन संयंत्रों, सूचना प्रणालियों और दवाओं को अपने यहां खपाने को तैयार रहना चाहिए। क्या हम ऐसा करें ? नहींं। ऐसी रिपोर्टों को सावधानी से पढे और गुनने से पहले हजार बार सोचें। जुलाई में अगला सत्र शुरु होगा। विद्यार्थियों के बीच डिग्री काॅलेजों में प्रवेश को लेकर तैयारियां तेज हो गईं है। खासकर प्रोफेशनल पाठ्यक्रमों में सरकारी काॅलेजों की कमी है। हर निजी काॅलेज स्वयं को श्रेष्ठ बताने में नहंी चुकता। ऐसे में विद्यार्थी दिखाई जा रही रैंकिंग और भिन्न वेबसाइटों पर दर्ज टिप्पणियों का सहारा लेते हैं। इस लेख की सलाह यही है कि प्रवेश के लिए स्कूल/काॅलेज खोजते वक्त, खरीददारी के वक्त उत्पाद खोजते वक्त और यात्रा के दौरान होटल खोजते वक्त हमें भी चाहिए कि हम रैंकिंग से ज्यादा, खुद की खोज पर भरोसा करें। ध्यान रहे कि खुद की खोज सिर्फ इंटरनेट आधारित नहींं हो सकती; आमने-सामने ही हो सकती है। यह व्यावहारिक कैसे हो ? आइये, इस सोच को व्यवहार बनायें।