बकलोल उपासकों ने ‘हिंदी’ का कबाड़ा किया !

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■ डॉ. सदानंद पॉल

1949 के 14 सितम्बर को संविधान सभा ने हिंदी को राजभाषा के रूप में अपनाया, इसलिए इस तिथि को ‘हिंदी दिवस’ के रूप में मनाये जाने का प्रचलन है, कोई उल्लिखित नियम नहीं ! भारतीय संविधान में हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप कहीं कोई उल्लेख नहीं है । परंतु हिंदी के लिए देवनागरी लिपि का उल्लेख संवैधानिक व्यवस्था लिए है, किन्तु भारतीय संविधान में अँग्रेजी लिखने के लिए किसी लिपि का उल्लेख नहीं है । गृह मंत्रालय, भारत सरकार ने भी एक RTI जवाब में अँग्रेजी की ऐसी स्थिति को लेकर मुझे पत्र भेजा है । बुरी स्थिति हिंदी के लिए नहीं अँग्रेजी के लिए है, क्योंकि भारतीय संविधान के अनुसार उसकी कोई लिपि नहीं है । इसतरह से अंतरराष्ट्रीय अँग्रेजी और भारतीय अँग्रेजी में अंतर है । चूँकि भारत से बाहर अँग्रेजी रोमन लिपि में है और भारत में यह किसी भी लिपि में लिखी जा सकती है । ( अँग्रेजी के ‘लिङ्ग’ पर मैंने ध्यान नहीं दिया है ! ) 

ये लिङ्ग, ये वचन, ये संज्ञा, ये सर्वनाम, ये क्रिया-कर्म, संधि-कारक (अलंकार और समास की बात छोड़िये ) ने तो हिंदी के विकास को और चौपट किया है, इनमें संस्कृतनिष्ठ शब्द उसी भाँति से पैठित है, जिस भाँति से जो-जो आक्रमणकारी भारत आये, वे अपनी भाषा को भी कुछ-कुछ यहाँ देते गए, तो यहाँ की भाषा को कुछ-कुछ ले भी गए । ‘आधुनिक हिंदी व्याकरण और रचना’ (23 वाँ संस्करण) में लिखा है कि हिंदी,हिन्दू और हिन्दुस्तान जैसे शब्दों को पारसियों ने लाया है, ये तीनों शब्द ‘जेंदावस्ता’ ग्रन्थ में संकलित हैं । अमीर ख़ुसरो और मालिक मुहम्मद जायसी ने इसे ‘हिन्दवी’ कहा । इस हिन्दवी के पहले की हिंदी को कोई आरंभिक हिंदी कहा, तो प्रो0 नामवर सिंह ने ‘अपभ्रंश’ कहा, जबकि कई ने कहा – ऐसी कोई हिंदी नहीं है, जब अपभ्रंश का अर्थ बिगड़ा हुआ रूप होता है, तो उस लिहाज़ से संस्कृत का बिगड़ा रूप हिंदी हो, किन्तु जिस भाँति के संस्कृत के वाक्य-विन्यास है, उससे नहीं लगता कि वर्तमान हिंदी ‘संस्कृत’ से निकला हो । हाँ, अच्छा लिखा जाने के लिए संस्कृत के शब्दों को लिया गया । इसके साथ ही मुझे यह भी कहना है, पारसियों की भाषा-विन्यास से यह कतई नहीं लगता कि हिंदी, हिन्दू, हिन्दुस्तान जैसे शब्द-त्रयी पारसियों की देन हो सकती है ! क्योंकि सिंधु-सभ्यतावासियों की अबूझ लिपि, महात्मा बुद्ध काल के पालि भाषा या ब्राह्मणत्व संस्कृत से विलग हो संस्कृत की गीदड़ी लोकभाषा लिए समाज से बहिष्कृत पार्ट दलित और बैकवर्ड की भाषा के रूप में ‘हिंदी’ निःसृत हुई , जैसा मेरा मानना है । क्या यह आश्चर्य नहीं है, दलित-बैकवर्ड की भाषा ‘हिंदी’ पर भी भारत के कथित सवर्ण व ‘ब्राह्मण’ की नज़र गड़ गया– पंडित कामता प्रसाद गुरु ने ‘हिंदी व्याकरण’ को संभाला, तो पंडित रामचंद्र शुक्ल ने ‘हिंदी साहित्य के इतिहास’ को सरकाने का ठीका ले लिया, आज इसी ठीकेदारों की प्रस्तुत तथाकथित ठीकेदारी को मॉडर्न आलोचक, समीक्षक अपनाने का एवेरेस्टी बीड़ा उठा रखे हैं । हाँ, उर्दू के लिए कुंजड़िन की बोली- ‘भिवरु ले लई’ से आगे बढ़कर मोमिन, राईन आदि ने शेखु, सैय्यद आदि को पछाड़ते हिंदी के समानांतर वो आबद्ध हुई । हाँ, दोनों में अंतर सिर्फ लिपि का रहा ।

भारतीय आज़ादी से पूर्व हिंदी स्वतंत्रता प्राप्तार्थ एक आंदोलन के रूप में था, आज की हिंदी स्वयं में एक त्रासदी है । तब पूरे देश को हिंदी ने मिलाया था , आज हम चायवाले की हिंदी, खोमचेवाले की हिंदी, गोलगप्पेवाले की हिंदी के स्थायी और परिष्कृत रूप हो गए हैं । हमें ‘नेकटाई’ वाले हिंदी के रूप में कोई नहीं जानते हैं । हम अभी भी जनरल बोगी के यात्री हैं… कुंठाग्रस्त और अँग्रेजी कमिनाई के वितर । क्लिष्ट हिंदी में पंडित कहाओगे, सब्जीफरोशी उर्दू के बनिस्पत कोइरीमार्का हिंदी के प्रति अंग्रेजीदाँ लोग नाक-भौं सिकोड़ते हैं ! हिंदी से असमझ लोग वैसे ही हैं, जैसे कोई नर्स की स्टैंडर्डमार्का को देख उन्हें माँ कह उठते हैं । आज़ादी से पहलेे हिंदी के लिए कोई समस्या नहीं थी, आज़ादी के बाद हिंदी की कमर पर वार उन प्रांतों ने ही किया, जिनके आग्रह पर वहाँ हिंदी प्रचारिणी सभा गया था – मद्रास हिंदी सोसाइटी, असम हिंदी प्रचार सभा, वर्धा हिंदी प्रचार समिति, बंगाल हिंदी एसोसिएशन, केरल हिंदी प्रचार सभा इत्यादि । 

मेरा मत है, भारत की 80 फ़ीसदी आबादी किसी न किसी रूप में या तो हिंदी से जुड़े हैं या हिंदी अथवा सतभतारी हिंदी जरूर जानते हैं , बावजूद 80 फ़ीसदी कार्यालयों में हिंदी में कार्य नहीं होते हैं, सिर्फ़ एक पंचलाइन लिखकर टांग दिया जाता है कि ‘यहाँ हर कार्य, वार्त्तालाप तथा पत्रोत्तर तक में हिंदी में कार्य होते हैं ।’ अब तो हिंदी के अंग एकतरफ ब्रज, अवधी, तो मैथिली, भोजपुरी, मगही, बज्जिका इत्यादि अलग भाषा बनने को लामबंदी किए हैं । संविधान की 8 वीं अनुसूची की भाषा भी हिंदी के लिए खतरा है । हमें हिंदी के लिए खतरा नामवर सिंहों से भी है, जो सिर्फ नाम बर्बर हैं या नाम गड़बड़ हैं । हिंदी में मोती चुगते ‘हंस’ निकालने वाले भी हिंदी के लिए भला नहीं सोचते हैं । ये सरकारी केंद्रीय हिंदी संस्थान भी मेरे शोध-शब्द ‘श्री’ को हाशिये में डाल दिए हैं । 10 सालों की मेहनत के बाद लिखा 2 करोड़ से ऊपर तरीके से लिखा हिंदी शब्द  ‘श्री’ और ‘हिंदी का पहला ध्वनि व्याकरण’ को हिंदी गलित विद्वानों ने एतदर्थ इसके लिए अबतक अपने विधर्मी रुख अपनाये हुए हैं । … और हिंदी में भी फॉरवर्ड हिंदी है, तो बैकवर्ड हिंदी है । इधर दैनिक जागरण ने ‘बेस्ट सेलर’ अभियान के तहत ‘नई वाली हिंदी’ को जोर-शोर से प्रचार – प्रसार कर रखा है । युवा प्रकाशक शैलेश भारतवासी भी इस हेतु अपना दम-खम भिड़ा चुके हैं । इधर इ-मैगज़ीन ‘मैसेंजर ऑफ आर्ट’ ने एक अभियान चला रखा है– ‘एक राष्ट्र, एक भाषा, एक तिरंगा’ । यहाँ भाषा से तात्पर्य हिंदी है । बकौल, मैसेंजर ऑफ आर्ट….

“भारत धर्मनिरपेक्ष, पंथनिरपेक्ष देश है, हम ऐसे देश में रहते हैं, जहां भाषाई विविधताएँ हैं, लेकिन धर्म, भाषा व बोलियों में विविधता होने के बावजूद भी हमारा देश महान है, इसके कारण तो यहाँ की सामाजिक संस्कृति है ! हमारे देश में ऐसी महान संस्कृतियाँ विराजमान हैं, परंतु यहाँ पर ऐसे लोग भी हैं, जो ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ जैसे नारों को भी ईजाद कर डालते हैं, वो भी देश के एक बड़े यूनिवर्सिटी के प्रांगण में ! ऐसे लोग कैसे और किन कारणों से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का जुलूस निकालकर भी जमानत पाकर देश में छुट्टा साँड़ की तरह घूमते हैं और कभी देश के अंदर अन्य तिरंगों की बात भी गाहे बगाहे करते रहते है ! 

डाइवर्सिटी….. !!! हमारी पहचान है, लेकिन जब बिहार के लोग पश्चिम बंगाल व तमिलनाडु घूमने निकल जाते हैं, तो हिंदी भाषा में अगर हम उसके प्रांतीय बंधुओं से उनके राज्य में भ्रमणार्थ कहीं जाने हेतु ‘पता’ पूछते हैं, तो वे लोग हिंदी जानकर भी क्रमशः बांग्ला अथवा तमिल में ही जवाब देते है ! जबकि हिंदी किसी एक राज्य विशेष की भाषा आखिर है कहाँ ? भारतीय संविधान में 2 ही राजभाषा है, एक हिंदी और दूजे अंग्रेजी । किन्तु हिंदी के विशेष प्रचारार्थ संविधान में अलग से अनुच्छेद भी है । वैसे भारत मे कुल 1652 बोलियाँ  हैं और संवैधानिक रूप से, किन्तु सानुच्छेद नहीं व संशोधित व जोड़कर  ’22’ भाषायें उपलब्ध हैं ! मैं इन सभी भाषाओं के प्रति सम्मान की नज़र से नतमस्तक हूँ, लेकिन हमारी प्राथमिकता हिंदी भाषा है,क्योंकि हिंदी किसी एक राज्य की भाषा नहीं है, परंतु वैश्विक परिदृश्य लिए भारत सहित पूरी दुनिया में 90 करोड़ लोग हिंदी को बोलते व समझते हैं, यही कारण है, यह भाषा हर भारतीय लोगों को अच्छी तरह से जानना नहीं, तो समझ में अवश्य आनी चाहिए ! अन्यथा ऐसा नहीं हो कि ‘साउथ स्टेट्स’ में जब हिंदी भाषी लोग घूमने जाय,तो उन्हें अपना देश ही बेगाना न लगने लग जाय ! महाराष्ट्र की बात ही छोड़िये, वहाँ मराठियों के लिए जो भी हो, किन्तु वहाँ हिंदी सिनेमा का ‘वोलीवुड’ विस्तार है । अगर हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी सम्पूर्ण देश के लिए नहीं हो पाई, तो संविधान में इन्हें विशेष सम्मानित करने का मतलब ही नहीं रह जाता है, न ही प्रति वर्ष हिंदी दिवस मनाने का मतलब रह जाता है ।!

उसी भाँति से कोई देश अखंड तभी रह सकता है, जब उस देश के एक राष्ट्रध्वज हो, किन्तु यहाँ जम्मू-कश्मीर के बाद कर्नाटक के लिए अपना ‘ध्वज’ अपनाने के लिए जो नाटक हो रही है, यह किसी देश की अखंडता और अक्षुण्णता के लिए अच्छी बास्त नहीं कही जाएगी ! तभी तो आप सभी दोस्त जब मेरे अभियान को हमारा अभियान बनाऐंगे और अपने टाइमलाइन में कैप्शन के साथ लिखेंगे-  
#एकराष्ट्र_एकभाषा_एकतिरंगा 
तभी हमारे मन को ‘मन की बातें ‘ आ पाएंगी ! जय भारत !”

इसप्रकार से हम हिंदी को आज के उन बकलोल साहित्यकारों व उपासकों के जिम्मे बड़ा-बरगद होने के  लिए छोड़ दिए है, जो कि सरलीकरण के बजाय क्लिष्ट हिंदी को ही परोसने में लगे हैं । इससे हमें निजात पाना होगा और वर्त्तमान हिंदी में गैर हिन्दीभाषी भारतीय राज्यों के सफल और सुफल शब्दों को भी शामिल करना होगा , तभी हिंदी के लिए जनभागीदारी बढ़ पाएगी । इस जनभागीदारी की अप्रत्याशित सफलता पर ही ‘हिंदी दिवस’ मनाने का कोई ढंग का औचित्य समझा जा सकेगा !

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