महानगरों में,
ऊँची उँची इमारते,
यहाँ कोई पिछवाड़ा नहीं,
ना कोई सामने का दरवाज़ा,
इमारत के चारों तरफ़ ,
बाल्कनी का नज़ारा,
धुले हुए कपड़े………
बाल्कनी में लहराते सूखते,
कभी झाड़न पोछन सूखते,
कभी कालीन या रजाई को धूप मिलती,
घर के फालतू सामान को पनाह
देती है ये बाल्कनी,
घर का अहम हिस्सा है बाल्कनी,
फिर भी घर के बाहर है बाल्कनी।
लो इन्होने तो बाल्कनी ही बन्द करली
शीशे लगाकर….
अब ये आसमान कमरे से ही देखेंगें,
अब आँगन कहाँ है जो कभी,
गेंहू सूखते या साबूदाने के पापड़ बनते।
हाँ कहीं कहीं दिखती है बाल्कनी निराली,
फूलों से लदी, पत्तों से भरी,
बेलबूटों वाली बाल्कनी!
भागती दौड़ती शहरी ज़िन्दगी मे
दिख जाती हैं कभी सुन्दर सी बालकनी,
पर सोचती हूँ
ये कपड़े कंहां सुखाते होंगे
झाड़ू पोंछा और उसकी बाल्टी कहाँ रखेंगे,
ड्रायर लगा लिया होगा,
या लौंन्ड्री पर देते होंगे कपड़े
वैक्यूम क्लीनर से घर की सफ़ाई होती होगी,
तभी तो सजी है उपवन सी बाल्कनी।