बुलाती है गलियों की यादें मगर , अब अपनेपन से कोई नहीं बुलाता । इमारतें तो बुलंद हैं अब भी लेकिन , छत पर सोने को कोई बिस्तर नहीं लगाता । बेरौनक नहीं है चौक – चौराहे पर अब कहां लगता है दोस्तों का जमावड़ा । मिलते – मिलाते तो कई हैं मगर हाथ के साथ दिल भी मिले , इतना कोई नहीं भाता । पीपल – बरगद की छांव पूर्व सी शीतल मगर अब इनके नीचे कोई नहीं सुस्ताता । घनी हो रही शहर की आबादी लेकिन महज कुशल क्षेम जानने को अब कोई नहीं पुकारता