ऊसर कटोरी, बंज़र थाली,
बदतर बोली, जैसे गाली।
सोचो मत बस बोले जाओ,
जैसे भी हो, सत्ता कुंजी पाओ!
दिवास्वप्न देखो और दिखलाओ,
सच्चाई को सौ सौ पर्दो में छुपाओ।
पहले उनसे सुनो स्वप्न साकार के,
मखमल लिपटे सुन्दर भाषण।
फिर देखो समझौतों के हज़ारों,
नए पुराने आधे अधूरे आसन!
सुनो फिर मज़बूरी में डूबे कई राग,
अभी सुनामी है अभी लगी है आग!
कम अनाज, गन्दा पानी वही होगा,
डसेंगे तब भी यूं ही महंगाई के नाग!
लालसा के इन कलुषित साधनों के,
नाम जो भी हों भिन्न–विभिन्न।
पांचवां साल आते–आते यही सब,
बन जाते हैं भ्रष्टाचार के जिन्न !