बाधाओं के बीच बजट-सत्र

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budgetप्रमोद भार्गव

भ्रष्टाचारों के स्थायी मुददों के चलते इस बार आम बजट को कर्इ बाधाएं पार करनी होंगी। इसी क्रम में सरकार का नरम रुख सामने आने लगा है। आम बजट पेश करते वक्त असहमतियां अतिवाद की हद तक न उभरें, इस नजरिये से लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार ने सर्वदलीय बैठक बुलाकर सहमति पर जोर दिया है। दूसरी तरफ विपक्ष के कड़े तेवरों का अंदाजा लगाते हुए संसदीय कार्यमंत्री कमलनाथ ने हवार्इ घोटाले की जांच संयुक्त संसदीय समिति ;जेपीसी से कराने की इच्छा प्रकट की है। जबकि अभी यह मांग किसी राजनीतिक दल ने पुरजोरी से नहीं उठार्इ है। लेकिन चुनावी साल है और इस आम बजट में 2014 में होने वाले लोकसभा चुनाव की लोक-लुभावन पृष्ठभूमि रची जानी है। इस लिहाज से सरकार चाहती है कि संसद सुरुचिपूर्ण ढंग से चले और वह उन लंबित विधेयकों को पारित करा ले जाए, जो सरकार की लोकहितकारी चिंता की तस्दीक करने वाले हैं।

संसद का बजट-सत्र शुरु होने के ऐन पहले अपने पूर्व अध्यक्ष नितिन गडकारी के मामले को लेकर बचाव की रणनीति का चक्रव्यूह रचने में जुटी भाजपा को सरकार के खिलाफ हमला बोलने के लिए दो बड़े मुददे मिल गए हैं। एक अति विशिष्टों की आवाजाही के लिए हेलिकाप्टर खरीद घोटाला और दूसरा गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे द्वारा हिंदुओं को आतंकवादी ठहराने संबंधी दिया गया बयान। हालांकि इन दोनों ही मामलों में ऐसे तार्किक हालात निर्मित हो रहे हैं, जिनके चलते भाजपा भी कटघरे में है। क्योंकि पूर्व वायु सेना अध्यक्ष एसपी त्यागी ने साफ कर दिया है कि मेरे पद संभालने से पहले 2003 में ही हेलिकाप्टरों के लिए स्टाफ क्वालिटेटिव जरुरतें समाप्त कर दी गर्इं थीं और इसके बाद भारतीय वायुसेना ने किसी शर्त में कोर्इ बदलाव नहीं किया। इसी सिलसिले में दूसरी खबर यह भी है कि वाजपेयी सरकार के सुरक्षा सलाहकार ब्रजेश मिश्र की एक चिटठी के आधार पर तकनीकी जरुरतों में बदलाव किए गए थे। यही बदलाव, इटली की अगस्ता वेस्टलैंड कंपनी से सौदे का पुख्ता आधार बने। लेकिन भाजपा का पक्ष यहां इसलिए मजबूत है, क्योंकि खरीद के आदेश संप्रग सरकार के कार्यकाल में दिए गए, लिहाजा भ्रष्टाचार के छींटे वाजपेयी सरकार तक नहीं पहुंचते। जाहिर है भाजपा इस उड़ान घोटाले को उछालकर आसानी से संसद नहीं चलने देगी। शिंदे का बयान बेतुका इसलिए है क्योंकि जब हम इस्लामिक आतंकवाद को गलत मानते हैं तो हिंदू आतंकवाद को सही कैसे ठहराया जा सकता है ? बहरहाल यह बाधा तभी दूर होगी, जब शिंदे संसद में माफी मांग लें ? और आखिर में होगा भी यही। चूंकि यह बजट इसी साल होने जा रहे पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों का ख्याल रखते हुए भी पेश किया जाना है, इसलिए इसके लोक-लुभावन होने की उम्मीद है। लेकिन पिछले दिनों गुजरात और हिमाचल प्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव के जो नतीजे सामने आए हैं, उनका नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों के संदर्भ में आकलन जरुरी है। कांग्रेस नेतृत्व वाले संप्रग गठबंधन की सोच में भी ये परिणाम उथल-पुथल मचा रहे होंगे। आम बजट पर इनका असर भी दिखार्इ दे सकता है। दरअसल ये विधानसभा चुनाव उस समय हुए थे, जब देश में आर्थिक सुधार संबंधी नीतियों पर जोरदार बहस चल रही थी। चुनाव के ठीक पहले संप्रग सरकार ने पेटोलियम पदार्थों की कीमतें बढ़ार्इं। हरेक कनेक्षन पर रसोर्इ गैस सिलेण्डरों की संख्या सीमित की और खुदरा कारोबार समेत कर्इ क्षेत्रों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश ;एफडीआर्इ की मंजूरी दी। खुदरा और रसोर्इ गैस को लेकर बड़ा विवाद व हल्ला हुआ। मंहगार्इ बड़ा चुनावी मुददा बना। हिमाचल में भाजपा ने मतदाताओं को रसोर्इ गैस और इन्डक्षन कुकर देने का लालच भी दिया। बावजूद कांग्रेस ने भाजपा से सत्ता छीन ली। यदि कांग्रेस हिमाचल में हार जाती तो कांग्रेस के भीतर ठीकरा, आर्थिक सुधार संबंधी फैसलों पर फोड़ा जाता। अलबत्ता इस परिणाम से कांग्रेस में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की नीति की पुष्टि हुर्इ। जाहिर है, आम बजट में कड़े आर्थिक सुधारों की रुपरेखा दिखार्इ देगी। इस नजरिये से निवेश को ध्यान में रख रखकर योजनाएं बनार्इ जाएंगी। साथ ही शिक्षा, दवा निर्माण रियल स्टेट और षोध तथा विकास के क्षेत्रों के लिए विदेशी निवेशकों को लुभाने के उपक्रम बजट में दिखार्इ देंगे। पिछले वित्तीय साल में बड़े उधोगपतियों को विभिन्न कर प्रावधानों में पांच लाख करोड़ की छूटें दी गर्इ थीं। इस बजट में ये और बढ़ सकती हैं। तभी सरकार की जो अपेक्षाएं हैं वे फलीभूत हो सकती हैं।

आर्थिक मंदी, गति में आए इसके लिए सरकार कि मंशा है कि सकल घरेलू उत्पाद दर तेज हो। विकास में निजी क्षेत्रों की हिस्सेदारी बढ़े। जन आपूर्ति में आ रहीं दिक्कतें दूर हों। कुपोषण की शर्मनाक स्थिति को दूर करने की दृष्टि से खाध सुरक्षा विधेयक इसी बजट सत्र में पारित हो और भ्रष्टाचार से मुकित व प्रशासनिक सुधारों के मददेनजर लोकपाल विधेयक भी पारित हो। हालांकि इन दो विधेयकों के अलावा भूमि अधिग्रहण, न्यायिक जवाबदेही, अनुसूचित जाति व जनजाति के कर्मचारियों की पदोन्नति में आरक्षण और महिलाओं से दुष्कर्म विरोधी आरक्षण विधेयक भी लंबित हैं। सरकार इन्हें भी पारित कराने की कोशिश करेगी। जिससे आगामी विधानसभा चुनाव में उसे लाभ मिले और लोक-लुभावन छवि निर्मित हो। सरकार कृषि क्षेत्र में भी उल्लेखनीय पहल कर सकती है। इस हेतु कृषि उपकरणों पर कर कम किए जा सकते हैं। हालांकि कुछ सालों में देखने में यह आया है कि कृषि विश्व विधालयों से उतने महत्वपूर्ण और बड़ी संख्या में षोध व अनुसंधान सामने नहीं आ रहे हैं, जितने निजी स्तर पर आ रहे है। कर्इ लोगों ने ऐसे उपयोगी कृषि उपकरण तैयार किए हैं। सिंचार्इ से जुड़े ऐसे उपकरण वैकलिपक उर्जा की मिशाल है। किंतु ये बिना पढ़े अथवा कम पढ़े-लिखे नवाचारों द्वारा र्इजाद किए गए हैं, इसलिए न तो ऐसे जरुरी अनुसंधानों को वैज्ञानिक मान्यता मिल रही है और न ही इन्हें प्रोत्साहित किया जा रहा है। सरकार को चाहिए इन नवाचारियों को आर्थिक मदद के साथ इन्हें वैज्ञानिक मान्यता दिए जाने के रास्ते भी खोले ?

सामाजिक व ग्रामीण विकास से जुड़े मुददों को भी सरकार तरजीह देगी। इनमें कुपोषण दूर करने के उपाय प्रमुख होंगे। क्योंकि भुखमरी और कुपोषण के परिप्रेक्ष्य में भारत के हालात कर्इ गरीब अफ्रीकी देषों से भी ज्यादा भयावह हैं। प्रधानमंत्री तक इसे राष्ट्रीय शर्म बता चुके हैं। इसी दृष्टि से देश की दो तिहार्इ आबादी को सस्ता अनाज उपलब्ध कराने का वैधानिक अधिकार दिलाने के लिए खाध सुरक्षा विधेयक लंबित है। इस विधेयक को लेकर सोनिया गांधी भी संवेदनशील हैं। लेकिन इस प्रस्तावित विधेयक के कर्इ बिंदुओं पर राज्य सरकारें जबरदस्त आपतितयां जता चुकी हैं। जाहिर है, इन असहमतियों से पार पाना केंद्र को आसान नहीं होगा। यदि सरकार इसी सत्र में इस विधयक को पारित कराने में कामयाब हो जाती है, तो लोक को लुभाने के लिए उसे निषिचत तौर से एक बड़ा हथियार हाथ लग जाएगा और संप्रग प्रथम की वैतरणी पार कराने में जिस तरह से मनरेगाा ने अहम भूमिका निभार्इ थी, इस बार इसी भूमिका का निर्वाह खाध सुरक्षा विधेयक कर सकता है। सरकार मनरेगा, राष्ट्रीय शहरी स्वास्थ्य मिशन, ग्रामीण आवास योजना और महिला सशक्तीकरण जैसे मुददों पर इस बजट में ध्यान देगी। सरकार आयकर सीमा को बढ़ाकर तीन लाख रुपए कर सकती है। जिससे 2013 का आम बजट, आम आदमी की उम्मीदों पर खरा उतरे। लेकिन वास्तविक मुददों पर सरकार विपक्षी दलों की कितनी सहमति जुटा पाती है, यह तो संसद में ही पता चलेगा ?

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