चमत्कारों के बूते संत बनीं मदर टेरेसा

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मदर टेरेसा
मदर टेरेसा
मदर टेरेसा

प्रमोद भार्गव
आखिरकार दो अलौकिक चमत्कारों के बूते मानव सेवा के लिए समर्पित और करुणा की प्रतिमूर्ति मदर टेरेसा को संत की उपाधि से विभूषित कर दिया गया। रोमन कैथोलिक चर्च के वेटिकन सिटी स्थित सेंट पीटर्स में पोप फ्रांसिस ने टेरेसा को संत घोषित किया है। कोलकाता में 45 साल तक अनाथों, गरीबों और बीमार लोगों की सेवा करने वाली टेरेसा का निधन 5 सितंबर 1997 को 87 साल की उम्र में हो गया था। संत बनने से पूर्व उन्हें पीड़ित मानवता की सेवा के लिए नोबेल पुरस्कार और भारत रत्न से भी सम्ननित किया जा चुका है। टेरेसा ने कुष्ठ रोगियों की जिस आत्मीयता से सेवा की उस नाते उन्हें भारत में ही नहीं, पूरी दुनिया में ‘जीवित संत‘ का दर्जा स्वाभाविक रूप से दे दिया गया था। बावजूद उन्हें दो अलौकिक चमत्कारों से जोड़कर संत का दर्जा दिया गया है। जबकि वे अलौकिक चमत्कारों की बजाय मानव की प्रत्यक्ष सेवा से जुड़ी थीं। भारत में मानव सेवा के लिए लंबा जीवन गुजारते हुए मदर टेरेसा ने यह कभी दावा नहीं किया कि वे किसी अलौकिक शक्ति की सिद्धी के चलते सेवा कर रही हैं।
दरअसल रोमन कैथोलिक ईसाई धर्म में किसी व्यक्ति को संत घोषित करने के लिए उसके दो चमत्कारों की पुष्टि जरूरी है। इन चमत्कारों को स्वीकृति बेटिकन देता है। यह प्रक्रिया किसी महान व्यक्ति के निधन के बाद 5 से 50 साल के भीतर शुरू की जा सकती है। 1999 में पोप जाॅन पाॅल द्वातिय ने टेरेसा के लिए ‘केननिजैषण‘ की इजाजत दी थी। क्योंकि उन्हें संत मानने से पहले ही जीवीत संत मान लिया गया था। इस प्रक्रिया के तहत पहले चरण में ईश्वर का सेवक घोषित किया जाता है। दूसरे चरण में पूज्य, तीसरे चरण में पोप द्वारा धन्य और चौथे अथवा अंतिम चरण में संत घोषित किया जाता है। इन प्रक्रियाओं की पूर्ति के बाद ही मदर को संत घोषित किया गया है।
मदर टेरेसा से जुड़ा पहला चमत्कार 2003 में सामने आया था। इस चमत्कार के अनुसार पश्चिम बंगाल के रायगंज की मोनिका बेसरा के पेट में मौजूद ट्यूमर के ठीक होने के बारे में दावा किया गया कि यह ट्यूमर टेरेसा का लाॅकेट मोनिका के गले में डालने से ठीक हुआ है। इस चमत्कार का विवरण 450 पृष्ठों में ‘मिश्नरीज आॅफ चैरिटी‘ ने वेटिकन को भेजा था। यह संस्था 1963 में टेरेसा ने मानव सेवा के लिए अलख जगाने की दृष्टि से टेरेसा ने स्थापित की थी। वेटिकन ने इस चमत्कार की पुष्टि करते हुए टेरेसा को ‘धन्य‘ घोषित कर दिया। टेरेसा के संत बनने की दिशा में यह महत्वपूर्ण चरण था। इसके बाद टेरेसा से जुड़ा दूसरा चमत्कार 2008 में सामने आया। ब्राजील के एक नागरिक ने दावा किया कि मदर की चमत्कारिक अनुकंपा से उसका ट्यूमर ठीक हुआ है। इस चमत्कार को 2015 में वर्तमान पोप फ्रांसिस ने टेरेसा की अलौकिक शक्ति माना और वेटिकन के धर्मगुरूओं एवं चिकित्कों के एक संयुक्त दल ने इस चमत्कार की पुष्टि कर दी। इन्हीं चमत्कारों के परिप्रेक्ष्य में टेरेसा को अलौकिक महिमा रूपी संत के रूप में अलंकृत कर दिया गया।
दरअसल मदर टेरेसा के पहले वेटिकन सिटी में पोप ने दिवंगत सिस्टर अल्फोंजा को संत की उपाधि से अलंकृत किया था। क्योंकि अल्फोंजा का जीवन उनकी छोटी उम्र से ही भ्रामक दैवीय व अतीन्द्रीय चमत्कारों का दृष्टांत बन गया था। सिस्टर अल्फोंजा से जुड़े चमत्कार बाद में किंवदंती भी बनने लग गए। हालांकि यथार्थ की कसौटी पर इन्हें ईसाई धर्मावलंबियों के अलावा किसी अन्य व्यक्ति या समूह ने कभी नहीं परखा ? अब इस चमत्कार में कितनी सच्चाई है कि अल्फोंजा की समाधि पर प्रार्थना करने से एक बालक के मुड़े हुए पैर बिना किसी उपचार के ठीक हो गए। यह समाधि कोट्टयम जिले के भरनांगणम् गांव में बनी हुई है। यदि इस अलौकिक घटना को सही मान भी लिया जाए तो भी इसके सापेक्ष यथार्थ के धरातल पर मदर टेरेसा की निर्विकार सेवा से तो हजारों कुष्ठ रोगियों को शारीरिक संताप व मानसिक संतुष्टि पहुंची हैं। इस दृष्टि से संख्यात्मक भौतिक उपलब्धियां भी मदर टेरेसा के पक्ष में थीं। जबकि टेरेसा की तरह प्रत्यक्ष मानव सेवा से उनका कोई वास्ता नहीं था। इस नाते ईसाई मूल के कुछ लोग टेरेसा को संत की उपाधि से विभूषित किए जाने की पहल कर रहे थे। ऐसा इसलिए भी था, क्योंकि टेरेसा अपने जीवन काल में ही एक तो जीवित संत कहलाने लग गई थीं, दूसरे वे ईसाई मूल की थीं। इससे स्पष्ट होता है कि धर्म चाहे ईसाई हो, इस्लाम हो या हिन्दू, उनके नीति नियंत्रक धर्मों को यथार्थ से परे चमत्कारों से महिमामंडित कर कूपमंडूकता के ऐसे कट्टर अनुयायिओं की श्रृंखला खड़ी करते रहें हैं जिनसे विवेक पर अंधविश्वास की पट्टी बंधी रहे और वे आस्था व अंधविश्वास के बीच गहरी लकीर के अंतर को समझ पाने की सोच विकसित ही न कर पाएं ? धर्म के बहाने मानव मस्तिष्क में स्थापित कर दी जाने वाली यही नासमझ अक्सर अराजकता क्रूरता और हिंसा की निष्ठुरता रच देती है। जातीयता, नस्लीयता और सांप्रदायिकता को आधार बनाकर विस्तार पा रहा आतंकवाद इसी प्रछन्न कटुता का प्रतीक है।
मानवीय सरोकारो के लिए जीवन अर्पित कर देने वाले व्यक्तित्व की तुलना में अलौकिक चमत्कारों को संत शिरोमणि के रुप में महिमामंडित करना, किसी एक व्यक्ति को नहीं पूरे समाज को दुर्बल बनाने का काम करता है। बावजूद धर्म के ठेकेदार अलौकिक चमत्कारों को महिमामंडित करने में लगे हैं। यही अलौकिक कलावाद धर्म के बहाने व्यक्ति को निष्क्रिय व अंधविश्वासी बनाता है। यही भावना मानवीय मसलों को यथास्थिति में बनाए रखने का काम करती है और हम ईश्वरीय तथा भाग्य आधारित अवधारणा को प्रतिफल व नियति का कारक मानने लग जाते हैं।

ईसाई धर्म को प्रचारित करने वाली लघु पुस्तिकाओं में आश्चर्यजनक चमत्कारिक घटनाएं भरी पड़ी हैं। यीशू की प्रार्थना में अंधों को रोशनी, गूंगों को बोलना, बहरों को सुनना, लूलों को हाथ, लंगड़ों को पैर और मन चाही संतान मिल जाती हैं। असाध्य रोगी, रोग मुक्त हो जाते हैं। ये यीशू के याचकों को वरदान हैं या चमत्कारियों के ढ़ांेग, इसे रेखांकित कौन कर पाया है ? लेकिन चमत्कारों के कपोल-कल्पित आर्कषण मनुष्य को सम्मोहित कर उसे कमजोर, धर्मभीरु व सोच के स्तर पर अवैज्ञानिक जरुर बना रहें हैं। अमेरिका और ब्रिटेन स्वयं को कितना ही आधुनिक कहें, अंततः तर्कवाद को स्वीकृति वहां भी नहीं है। रजनीश अर्थात ओशो ने जब अमेरिका में गीता और उपनिषदों को बाइबिल से तथा राम, कृष्ण, बुद्ध और महावीर को जीसस से श्रेष्ठ घोषित करना शुरु किया और धर्म तथा अधर्म की अपनी विशिष्ठ शैली में प्रवचनों के माध्यम से व्याख्या की तो रजनीश के आश्रमों में अमेरिकी लेखक, कवि, चित्रकार, मूर्तिकार, वैज्ञानिक और प्राध्यापकों के साथ आमजनों की भी भीड़ उमड़ने लगी। उनमें यह जिज्ञासा भी पैदा हुई कि पूरब के जिन लोगों को हम हजारों मिशनरियों के जरिये शिक्षित करने में लगें हैं उनके ज्ञान का आकाश तो कहीं बहुत उंचा है। यही नहीं जब रजनीश ने व्हाइट हाउस में राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन जो ईसाई धर्म को ही एकमात्र धर्म मानते थे और वेटिकन सिटी में पोप को धर्म पर शास्त्रार्थ करने की चुनौती दी तो ईसाइयत पर संकट छा गया और देखते ही देखते रजनीश को उनके कैंपेन समेत अमेरिका की सरजमीं से बेदखल कर दिया गया। मौजूदा हाल में तो अमेरिका में पाखण्ड का यह आलम है कि डार्बिन के विकासवादी सिद्धांत को शालेय पाठ्यक्रम से हटाये जाने की मांग इसलिए जोर पकड़ती जा रही है क्योंकि डार्बिन को ईसाई धर्म का विरोधी और नास्तिक माना जाता है। इससे जाहिर होता है कि पूरी दुनिया में अंधविश्वास, कर्मकाण्ड और जड़ता के उन्मूलन के सापेक्ष वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करने की कवायदें धराशायी होती सामने आ रहीं है।

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