बेज़ार मैं रोती रही, वो बे-इन्तेहाँ हँसता रहा।
वक़्त का हर एक कदम, राहे ज़ुल्म पर बढ़ता रहा।
ये सोच के कि आँच से प्यार की पिघलेगा कभी,
मैं मोमदिल कहती रही, वो पत्थर बना ठगता रहा।
उसको खबर नहीं थी कि मैं बेखबर नहीं,
मैं अमृत समझ पीती रही, वो जब भी ज़हर देता रहा।
मैं बारहा कहती रही, ए सब्र मेरे सब्र कर,
वो बारहा इस सब्र कि, हद नयी गढ़ता रहा।
था कहाँ आसाँ यूँ रखना, कायम वजूद परदेस में,
पानी मुझे गंगा का लेकिन, हिम्मत बहुत देता रहा।
बन्ध कितने ढंग के, लगवा दिए उसने मगर,
‘मशाल’ तेरा प्रेम मुझको, हौसला देता रहा।
बहुत बढ़िया दोस्त ….. दिल के तार को छेड़ गई …..
बहुत ही सुंदर गजल . भविष्य में लिखते रहे
वोह—लाजबाब बधाई
दीपक और मशाल दोनो जलती रखें। सुंदर।
बहुत सुन्दर आपके अल्फाज जो आपने इस सुन्दर गजल में प्रयोग किये है दिल खुश हो गया क्या बात कही है अपने,
उसको खबर नहीं थी कि मैं बेखबर नहीं,
मैं अमृत समझ पीती रही, वो जब भी ज़हर देता रहा।
वाह वाह बहुत शानदार,
“ये बात सच है की तू समझता है हमे बेखबर ,
शायद इसी लिए तू करता नही हमारी कदर ,
हम ना है नादान, करते है नज़रअंदाज़ तेरी हरकते ,
ये ना समझ की हम कुछ नही जानते .!”
bahut sundar…………badhia prastuti
apki gajal dil k tar ko chedati hai bahut khubsurat likha apane u hi likhate rahe ap love you.
बहुत खूब लिखा है।
मुझे आपकी ग़ज़ल बहुत-बहुत पसंद आई|
आपकी ग़ज़ल के सारे बंद बहुत अच्छे है |
लेकिन मुझको आख़िरी बंद समझ में नहीं आया,
‘बन्ध कितने ढंग के, लगवा दिए उसने मगर,
‘मशाल’ तेरा प्रेम मुझको, हौसला देता रहा|
हो सके तो समझाने की कोशिश करना|
मुझे आपकी ग़ज़ल बहुत-बहुत पसंद आई|
आपकी ग़ज़ल के सारे बंद बहुत अच्छे है |
लेकिन मुझको आख़िरी बंद समझ में नहीं आया,
‘बन्ध कितने ढंग के, लगवा दिए उसने मगर,
‘मशाल’ तेरा प्रेम मुझको, हौसला देता रहा|
हो सके तो समझाने की कोशिश karna
बहुत बढिया गज़ल है बधाई स्वीकारें।