बिहार में अहम राजनीतिक मुद्दों की बात की जाए तो जातिवाद बहुत ही हावी है। हर पार्टी एक खास जाति को साथ लेकर चलती है और ज्यादातर मामलों में उसी जाति को सहयोग देती नजर आती है। ऐसा यहां एक पार्टी नहीं बल्कि सभी पार्टियां करती हैं। लालू जहां यादवों के हितों को महत्व देते हैं तो नीतीश कुर्मी-कोयरी को प्राथमिकता देते नजर आते हैं, रामविलास जी की प्राथमिकताएं स्वाभाविक तौर पर स्वजाति पासवानों के लिए है, कुछ जातियां जैसे भूमिहार, कायस्थ, ब्राह्मण इत्यादि और वैश्य भारतीय जनता पार्टी की प्रायोरिटी लिस्ट में हैं। उपरोक्त उदाहरणों का तात्पर्य ये है कि बिहार के संदर्भ में हरेक राजनीतिक दल या महत्वपूर्ण राजनेता अपने राजनीतिक हितों को पोषित करने के लिए जातिगत खेमों पर आश्रित दिखता है।
ऐसे में समाज का एक अहम वर्ग यानी आम जनता सुविधाओं से वंचित नजर आता है। वोट बैंक की खातिर हर क्षेत्र से टिकट देते समय हरेक पार्टी जाति का अहम ध्यान रखती है। भारतीय संविधान कहता है कि हम जातिवाद से परे हैं लेकिन बिहार की राजनीति को देखते हुए लगता है यहां बिना जाति के राजनीति हो ही नहीं सकती। जातिवाद रहित राजनीति की कल्पना भी शायद ‘कोरी-कल्पना’ मात्र साबित हो।
क्षेत्रवाद और जातिवाद में फंसी राजनीति की वजह से ही प्रदेश में वास्तविक विकास की गाड़ी प्लेटफॉर्म पर खड़ी ही नजर आ रही है। बिहार में अधिकतर गांव हैं और उनकी स्थिति बेहद चिंताजनक है। गांवों का विकास न लालू राज में हुआ था न ही आज नीतीश जी के तथाकथित सुशासनी राज में हो रहा है। आज भी गांवों में लोग शिक्षा, स्वास्थ्य, सिंचाई और रोजगार जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए सरकार की तरफ आंख लगाए हुए हैं। न जाने कब बिहारी ग्रामीणों का इंतजार खत्म होगा !
बिहार में विकास के कार्यों का निष्पादन जातिगत समीकरणों को ध्यान में रखकर किया जाता रहा है। विकास की कमी की वजह से ही आज बिहार से सबसे अधिक पलायन होता है। बिहार का हरेक राजनीतिक तबका यह बात कहता है कि अगर वह सत्ता में आएगा तो राज्य से पलायन जरूर खत्म या कम कर देगा। लेकिन सालों से यहां की जनता जिस तरह अपने राज्य को छोड़कर जा रही है, उससे यह अनवरत जारी प्रकिया बिना किसी सार्थक पहल के खत्म हो जाए, इसकी उम्मीद कम ही है।
बिहार की राजनीति में लगभग हरेक जाति के अपने-अपने बाहुबली नेता हैं और ऐसे बाहुबली नेता सभी राजनीतिक दलों की जरूरत हैं। इसी तर्ज पर इन बाहुबली नेताओं को चुनावों में राजनीतिक दलों के द्वारा जातिगत समीकरणों को ध्यान में रखकर प्रत्याशी भी बनाया जाता है। मामला साफ है, कमोबेश सभी राजनीतिक दल बिहार में बाहुबलियों का सहारा लेती हैं क्योंकि जातिगत बाहुबल और पैसे की ताकत राजनीति की बिसात में अहम भूमिका जो निभाती है।
स्वतंत्रता के कुछ सालों बाद से ही राजनीति में जाति की दूषित अवधारणा को प्रश्रय दे कर बिहार के राजनीतिज्ञों ने ये साबित कर दिया है कि वो स्वहित के लिए जनहित की बलि देने में तनिक भी परहेज नहीं करते हैं। आज बिहार की स्थिति ऐसी है कि जाति आधारित विचारधारा की जड़ें इतनी मजबूत हो चुकी हैं कि इसे उखाड़ पाना वर्तमान परिवेश में नामुमकिन प्रतीत होता है। जनहित, सामाजिक उत्थान , समग्र विकास व समभावी समाज जैसी अवधारणाएं भी जाति की दूषित और संकुचित राजनीति से संक्रमित नजर आती हैं। इन परिस्थितियों में एक आम बिहारी जिन्दगी की जिन जद्दोजहदों से नित्य जूझ रहा है, उससे निजात पाना “दिवा-स्वप्न” के समान है।