भिक्षा, जल त्याग और भागीरथी इको संसेटिव ज़ोन

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gangaभिक्षा, जल त्याग और भागीरथी इको संसेटिव ज़ोन
अथवा
भीख मांगकर भरपाई और प्रस्तोता का पश्चाताप
अरुण तिवारी

प्रो जी डी अग्रवाल जी से स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद जी का नामकरण हासिल गंगापुत्र की एक पहचान आई आई टी, कानपुर के सेवानिवृत प्रोफेसर, राष्ट्रीय नदी संरक्षण निदेशालय के पूर्व सलाहकार, केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के प्रथम सचिव, चित्रकूट स्थित ग्रामोदय विश्वविद्यालय में अध्यापन और पानी-पर्यावरण इंजीनियरिंग के नामी सलाहकार के रूप में है, तो दूसरी पहचान गंगा के लिए अपने प्राणों को दांव पर लगा देने वाले सन्यासी की है। जानने वाले, गंगापुत्र स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद को ज्ञान, विज्ञान और संकल्प के एक संगम की तरह जानते हैं।

मां गंगा के संबंध में अपनी मांगों को लेकर स्वामी ज्ञानस्वरूप सांनद द्वारा किए कठिन अनशन को करीब सवा दो वर्ष हो चुके हैं और ’नमामि गंगे’ की घोषणा हुए करीब डेढ़ बरस, किंतु मांगों को अभी भी पूर्ति का इंतजार है। इसी इंतजार में हम पानी, प्रकृति, ग्रामीण विकास एवम् लोकतांत्रिक मसलों पर लेखक व पत्रकार श्री अरुण तिवारी जी द्वारा स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद जी से की लंबी बातचीत को सार्वजनिक करने से हिचकते रहे, किंतु अब स्वयं बातचीत का धैर्य जवाब दे गया है। अतः अब यह बातचीत को सार्वजनिक कर रहे हैं। हम प्रत्येक शुक्रवार को इस श्रृंखला का अगला कथन आपको उपलब्ध कराते रहेंगे; यह हमारा निश्चय है।

इस बातचीत की श्रृंखला में पूर्व प्रकाशित कथनों कोे पढ़ने के लिए यहंा क्लिक करें।
छठा कथन आपके समर्थ पठन, पाठन और प्रतिक्रिया के लिए प्रस्तुत है:

स्वामी सानंद गंगा संकल्प संवाद – छठा कथन

वर्ष 2010 में हरिद्वार का कुंभ अपेक्षित था। शंकराचार्य जी वगैरह सब सोच रहे थे कि कुंभ में कोई निर्णय हो जायेगा। कई बैठकें हुईं। अखाङा परिषद के अध्यक्ष ज्ञानदास जी ने घोषणा की कि यदि परियोजनायें बंद नहीं हुई, तो शाही स्नान नहीं होगा। लेकिन सरकार ने उन्हे मना लिया और कुंभ में शाही स्नान हुआ। कुंभ के दौरान ही शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद जी के मण्डप में एक बङी बैठक हुई। मेरे अनुरोध पर शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद जी भी आये। अंततः यही हुआ कि आंदोलन होना चाहिए।

भीख मांगकर, परियोजना नुकसान भरपाई की घोषणा

….फिर तीन मूर्ति भवन में मधु किश्वर (मानुषी पत्रिका की संपादक) व राजेन्द्र सिंह जी ने एक बैठक की। उसमें जयराम रमेश (तत्कालीन वन एवम् पर्यावरण मंत्री) भी थे और स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद जी (शंकराचार्य श्री स्वरूपानंद सरस्वती जी के शिष्य प्रतिनिधि) भी थे।

जयराम जी ने कहा – ’’600 करोङ खर्च हो गया है; क्या करें ’’
इस पर अविमुक्तेश्वरानंद जी ने कहा – ’’एक महीने का समय दो। हम पैसा इकट्ठा करके दे देंगे। हम भीख मांगकर देंगे।’’
जयराम रमेश ने मज़ाक में कहा – ’’मेरा कमीशन ?’’
अविमुक्तेश्वरानंद जी बोले – ’’ बताओ कितने ? वह भी देंगे ?’’

कमीशन का तो मज़ाक था, लेेकिन जयराम जी ने माना कि नुकसान की भरपाई की बात कही जाये, तो रास्ता निकल सकता है। तय हुआ कि यही बात लिखकर सरकार को दी जाये। ड्राफ्ट बना; अविमुक्तेश्वरानंद जी ने जि़म्मेदारी ली। स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद जी के जि़म्मेदारी लेने से उनके प्रति मेरी श्रृद्धा कुछ ऐसी बनी कि मुझे ऐसा लगा कि जितना स्नेह मुझे पिता व परिवार से नहीं मिला, वह उन्होने दिया। मैने सोचा कि यदि भिक्षा मांगकर देने को कहा है, तो यह गंगाजी और मेरे… दोनो के प्रति उनका स्नेह है, लेकिन कुछ नहीं हुआ।

वैकल्पिक योजना के अभाव में पुनः अनशन का निर्णय

जुलाई में फिर बैठक हुई। उसमें मधु किश्वर, राजेन्द्र सिंह के अलावा स्वामी शिवानंद जी (मातृ सदन, हरिद्वार) भी थे। सब मानते थे कि धोखा हुआ है, लेकिन किसी के पास कोई वैकल्पिक योजना नहीं थी। मैने कहा कि मैं अब और इंतजार नहीं कर सकता। मैने अपने जन्मदिन – 20 जुलाई को उपवास पर बैठने का निर्णय लिया। मैने मातृ सदन में बैठने की अनुमति ली। मैने ऐलान किया; अविमुक्तेश्वरानंद जी हंसे। उस दिन स्वरूपानंद जी भी दिल्ली आ गये थे। अविमुक्तेश्वरानंद जी नोएडा गये। मैं भी गया। स्वरूपानंद जी ने मैने बताया कि मैने तय कर लिया है। उन्होने आशीर्वाद दिया।

2010 के 24 जुलाई से चातुर्मास शुरु होना था। अविमुक्तेश्वरानंद जी ने अपना चातुर्मास हरिद्वार में ही रहकर संपन्न करने की अनुमति, स्वरूपानंद जी मांगी; ताकि वह मेरे साथ रह सकें। उन्होने शंकराचार्य जी से यह भी कहा कि यदि अनुमति हो, तो वह भी अनशन करें।

शंकराचार्य जी ने कहा – ’’ नहीं, नहीं। तुम्हारे वहां रहने से लगेगा कि तुम ही करा रहे हो।’’

केन्द्र पर निष्प्रभावी स्थानीय समर्थन

मुझे खुशी हुई कि उन्होने सावधानी बरती। मैं किसी का बंधन होने से बच गया। मैं शंकराचार्य जी से मिलकर मुजफ्फरनगर चला गया। आगे तय समयानुसार, मातृसदन जाकर मैने यज्ञ किया और अनशन शुरु कर दिया। उन्होने प्रेस वाले बुला लिए थे। अगले दिन रामदेव जी पहुंच गये। रामदेव जी ने हाइवे जाम करने की बात की। हंसदेवाचार्य जी आ गये। समर्थन मिला, लेकिन इस समर्थन का केन्द्र पर कोई प्रभाव नहीं था; सो, सारा समर्थन हरिद्वार से आगे नहीं बढ़ पाया। यह दिख ही रहा था कि मसला, कंाग्रेस बनाम भाजपा हो गया है। इस बीच स्वरूपानंद जी का कोई सक्रिय समर्थन नहीं आया। एक आनंद पाण्डेय जी उनकी ओर से आते थे; लगता था कि वह बीच में गोलमोल करते हैं।

जलत्याग की तैयारी

कुछ हो नहीं रहा था; तब हंसदेवाचार्य, प्रमोद कृष्णम वगैरह 12-14 लोगों का समूह आया। उन्होने कहा कि वे दिल्ली
जायेंगे। 12 अगस्त को वे शिंदे (तत्कालीन केन्द्रीय ऊर्जा मंत्री, भारत सरकार) के यहां गये। शिंदे ने कहा कि गवर्नमें ट लागत हजार करोङ पहुंच चुकी है; काम बंद नहीं होगा। वे प्रणव मुखर्जी से मिले। राजेन्द्र सिंह, प्रमोद
कृष्णम (कभी कांग्रेस के पदाधिकारी थे, अब संभल स्थित कल्कि पीठाधीश्वर के रूप में धर्मक्षेत्र में सक्रिय) उनके संपर्क में रहे। प्रणव मुखर्जी ने प्रधानमंत्री से बात करके उत्तर देने की बात की। 17 अगस्त तक कोई जवाब नहीं आया। मैने कहा कि यदि 20 अगस्त तक कुछ नहीं हुआ, तो जल भी त्याग दूंगा। स्वामी शिवानंद जी ने कहा कि आप निश्चिंत रहें। जहां लगे, वहां स्थगित कर दें। किंतु तब तक मेरा वजन मात्र दो किलो गिरा था; इसलिए मैं सेहत को लेकर आश्वस्त था।

पलटा घटनाक्रम: सक्रिय हुए जयराम

20 अगस्त को जयराम रमेश, मातृसदन आये। जयराम रमेश के पिता बांबे बीजीटीआई में सिविल इंजीनियरिंग के अध्यक्ष थे; सी टी रमेश – हम उन्हे प्रोफेसर रमेश कहते थे। वह हमारे मित्र थे।

जब जयराम रमेश आये, तो मैने पूछा – ’’आप किस रूप में आये हैं ? मित्र के रूप में, मित्र के पुत्र के रूप में, मंत्री के रूप में या प्रधानमंत्री जी के दूत के रूप में ?’’

जयराम ने कहा – ’’मैं आपसे व्यक्तिगत मित्र के रूप में आया हूं।’’

उन्होने बताया कि सरकार क्या-क्या कर सकती है। उस पर मेरी आपत्तियां थी। पहली आपत्ति कि किस कारण से गंगाजी पर परियोजनायें करें ? कोई एक स्पेशिफिक कारण तो हो। मैं बांधों के विरुद्ध हूं, किंतु मैं नहीं कहता कि मैं सब बांधों के विरुद्ध हूं। सब बांधों के विरुद्ध लङना है, तो कोई और लङे। मैने कहा कि जो ड्राफ्ट बने, उसका पहला पैरा गंगा पर हो। गंगोत्री से 130 किलोमीटर उत्तरकाशी तक विशेष ज़ोन डिक्लेयर करें। उसमें गंगाजी का नैसर्गिक स्वरूप बनाकर रखने की बात हो।

मानी गई इको संेसेटिव ज़ोन की मांग

जयराम ने अगले दिन ड्राफ्ट बनाकर भेजा। मैने इम्पू्रव करके दिया। उस पर प्रणव मुखर्जी ने साइन करे दिए। उसमें
ऊपर से उत्तरकाशी तक भागीरथी का इको संसेटिव ज़ोन घोषित करने की बात थी। मैने 22 अगस्त को अपना उपवास तोङ दिए। मेरे लिए यह जानना महत्वपूर्ण था कि 17 तक जहां कोई सुनने को राजी नहीं था, आखिर क्या हुआ कि 20 को सब हो गया। एक नया चित्र आया, प्रमोद कृष्णम का। वह अखिल भारतीय संत समिति के अध्यक्ष थे।

( प्रस्तोता का पश्चाताप: आदरणीय पाठकगण, इस संवाद का प्रस्तोता इस मौके का स्वयं गवाह भी है और जिम्मेदारी के निर्वाह में संकल्पहीनता की कमी का भागीदार भी। मुझे याद है; जलपुरुष श्री राजेन्द्र सिंह जी, ’सीएमएस वातावरण फिल्म फेस्टिवल’ में बतौर जूरी भाग लेने दिल्ली आये थे। आयोजकों ने रुकने का इंतजाम, मौर्य शेरटन होटल में किया था। मेरी वह रात, राजेन्द्र भाई से यही अनुरोध करते बीती थी कि स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद जी संकल्प निभायें या न निभायें, हमें उनका तथा स्वामी सानंद का गंगा संकल्प निभाने के लिए ’गंगा भिक्षा आंदोलन’ के लिए निकल पङना चाहिए।

हालांकि नुकसान भरपाई के पत्र पर सरकार की ओर से भी कोई जवाब नहीं आया था; इसलिए औपचारिक तौर पर इसकी कोई आवश्यकता नहीं थी। किंतु स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद जी की घोषणा के तुरंत बाद, बीच बैठक में करीब पांच लाख रुपये के दानदाता सामने आ गये थे, उससे इस घोषणा की शक्ति का स्पष्ट थी। यूं भी मैं इसे गंगा
अविरलता और निर्मलता के मसले से जन-जुङाव के अनोखे अवसर की तौर पर देख रहा था। मेरे मन में एक ओर काशी हिंदू विद्यापीठ के लिए स्व. मदन मोहन मालवीय जी द्वारा चलाये भिक्षा अभियान की कल्पना आकार ले रही थी, तो दूसरी ओर स्वतंत्रता आंदोलन में झोली फैलाये गांधी का चित्र, शक्ति दे रहा था।

मेरा विचार था कि गंगा के लिए कुर्बान करने को शासन के पास 600 करोङ रुपये नहीं है; यह बात जनता के पौरुष को जगा देगी। जनता इसे एक ललकार की तरह लेगी। मैं, इसमें मीडिया के लिए भी चुम्बकीय तत्व की उपलब्धता भी देख रहा था। मेरा विश्वास था कि राजेन्द्र भाई में तमाम नामी-गिरामी गंगा प्रेमियों को इस आंदोलन से जोङने की
क्षमता है। मेरा यह भी विश्वास था कि जब नामी-गिरामी लोग, अपनी-अपनी झोली फैलाकर गांव-गांव, मोहल्ला-मोहल्ला..गंगा टोलियों में निकलेंगे, तो गंगा मैया के नाम पर शहरी ही नहीं, गरीब-गुरबा ग्रामीणों के हाथों से इतना पैसा बरसेगा कि भारत की केन्द्र सरकार भी शरमा जायेगी। इसकी गूंज व्यापक होगी और गंगा के लिए प्रभावी भी।

इसके दो लाभ होंगे: पहला, सरकार के पास बहाना नहीं बचेगा और जन दबाव इतना अधिक होगा कि वह चाहकर भी परियोजनाओं को आगे बढ़ा नहीं सकेगी। दूसरा, गंगा को हम भारतीयों से जिस सक्रिय संवेदना की दरकार है, ’गंगा
भिक्षा आंदोलन’ उसे जागृत कर सकेगा।

मैं यह भी सोच रहा था कि ’गंगा भिक्षा आंदोलन’ सिर्फ धन नहीं मांगेगा, वह गंगा निर्मलता और प्रवाह की समृद्धि
में सहयोगी कदमों के संकल्प के दान की भी मांग करेगा। इस तरह ’गंगा भिक्षा आंदोलन’, बिना कहे ही गंगा
निर्मलता-अविरलता के रचनात्मक आंदोलन में तब्दील हो जायेगा। राजेन्द्र भाई ने तो खैर अपना जीवन ही नदियों
और तालाबों के लिए दान कर दिया है; मैं स्वयं भी इसके लिए अगले तीन महीने देने के लिए तैयार था। राजेन्द्र भाई तैयार दिखे और उत्साहित भी। क्या करेंगे ? कैसे करेंगे ?? इस पर भी विस्तार से चर्चा हुई। मैं प्रतीक्षा करता रहा, किंतु वह बात, बात से आगे नहीं गई; जैसे रात का देखा सपना, भोर होते ही अपना प्रकाश खो देता है, वैसे ही मेरे जैसों की संकल्पहीनता ने गंगा जन-जागरण का एक अनुपम अवसर गंवा दिया। उस अवसर को गंवा देने का मुझे, आज भी अफसोस है। – अ. ति.)
संवाद जारी…

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