भक्ति रस से उपजा वीर रस

guru arjun devडा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

भारत पर विदेशी हमलों की शोकगाथा बहुत पुरानी है । उतनी ही पुरानी इसकी संघर्ष गाथा है । लेकिन संघर्ष और शत्रु से मुक़ाबला कितना ही शौर्यपूर्ण क्यों न रहा हो , अन्ततः भारत के भाग्य में परवश होना ही वदा था । शायद इसीलिए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ,भारतीय साहित्य, ख़ासकर हिन्दी साहित्य का अध्ययन करने के बाद कहते हैं कि संघर्षकाल में वीरगाथाएं साहित्यकारों का प्रिय विषय बनीं लेकिन एक के बाद एक ,देशी राजाओं के पतन के बाद भारतीय साहित्य में भक्ति के स्वर प्रमुख होने लगे । हारे को हरिनाम । पूर्व मध्यकाल का भारतीय साहित्य भक्ति रस से सरोवार है । लगा कि अब भारत उठ नहीं पायेगा । उसने ज़मीनी हक़ीक़त से आँखें मूँद ली हैं और अपनी निराशा व पराजय को वह भक्ति की ओट दे रहा है । मध्यकाल की भक्ति रचनाओं में एक और आश्चर्य है । रामचन्द्र शुक्ल इसे पराजय की निराशा में उपजी प्रतिक्रिया बताते हैं । यह केवल हिन्दी साहित्य की बात नहीं है । इस काल खंड में सभी भारतीय भाषाओं में प्रमुख स्वर भक्ति का ही सुनाई देता है । लेकिन इस प्रतिक्रिया में कहीं भी प्रत्यक्ष तौर पर विदेशी विजेताओं के ख़िलाफ़ कोई संकल्प दिखाई नहीं देता । ताज़ा हुए घाव का दर्द या उस दर्द से उपजी टीस कहीं भी सुनाई नहीं देती । क्या इसे भारतीय इतिहास का निराशा काल कहा जाए ?
लेकिन यह निराशा काल तो किसी भी पैमाने से नहीं कहा जा सकता । यह भविष्य की तैयारी का कालखंड है । इस खंड के भक्ति स्वर के भीतर छिपी प्रचण्ड उर्जा और तेज़ को सबसे पहले मध्यकालीन दश गुरु परम्परा के पाँचवे गुरु श्री अर्जुन देव जी ने पहचाना था । उन्होंने देश भर में प्रवाहित हो रहे मध्यकालीन भक्ति रस की रचनाओं को एक स्थान पर एकत्रित किया । पूर्व पश्चिम उत्तर दक्षिण , सभी दिशाओं के भक्त कवियों की वाणी को उन्होंने क्रमबद्ध किया । जिस दशगुरु परम्परा से वे स्वयं सम्बंध रखते थे , उस परम्परा के प्रथम चार गुरुओं की वाणी को भी उन्होंने एकत्रित किया । इस प्रकार गुरु अर्जुन देव जी ने पाँचों गुरुओं , देश भर के भक्तों, भट्टों की वाणी को एक साथ एक ही ग्रन्थ में सम्पादित किया । गुरु ग्रन्थ साहिब के नाम से , कालान्तर में प्रसिद्ध होने वाले इस महान ग्रन्थ ने देश में एक नए उत्साह का संचार करना शुरु कर दिया । उसके बाद देश के इतिहास की धारा ही बदल गई । लेकिन इस का मोल श्री अर्जुनदेव जी को अपनी शहादत से चुकाना पड़ा । ऋषि परम्परा के महापुरुष के इस बलिदान से पूरा राष्ट्र सकते में था । विदेशी सत्ता ने सोचा था कि इससे देश में निराशा आयेगी और लोग इस चेतावनी से भयभीत हो जायेंगे । लेकिन इस शहादत का परिणाम विदेशी सत्ता की सोच के विपरीत हुआ । भक्ति में से शक्ति की अन्तर्धारा बहने लगी । लेकिन इस यज्ञ में नवम गुरु श्री तेगबहादुर जी तक आते आते एक और आत्माहुति हुई । वह स्वयं श्री तेगबहादुर जी की ही थी । उनकी अन्त:स्थल को छू लेने वाली भक्ति रचना और उसी अन्त:स्थल में ज्वालामुखी जगा देनी वाला बलिदान । राष्ट्र की अस्मिता और धर्म की रक्षा के लिए ऋषि परम्परा में यह दूसरा बलिदान था । अब कमान उनके सुपुत्र श्री गोविन्द सिंह जी ने सँभाली । सबसे पहले उन्होंने श्री गुरु ग्रन्थ साहिब का पुनःसम्पादन किया । उसमें श्री तेगबहादुर जी की वाणी को यथास्थान गुम्फित किया ।और इसी के माध्यम से पूरे राष्ट्र की आत्मा या चिति से साक्षात्कार भी । इसी साक्षात्कार से ख़ालसा पंथ प्रकट हुआ । देश की चारों दिशाओं से चार महापुरुषों की आत्मबलिदान हेतु प्रस्तुति और अन्त में केन्द्र भाग से पाँचवें महापुरुष की प्रस्तुति से बलिदान की पंच परम्परा स्थापित हुई । सम्पूर्ण राष्ट्र के ये पाँच मरजीवडे एक नया इतिहास लिखने वाले थे । बहुत लम्बे अरसे बाद शिवालक की उपत्यकाओं में राष्ट्रपुरुष का सदेह साक्षात्कार लोगों ने किया । श्री गोविन्द सिंह जी के दो प्रयोग राष्ट्र के भाल पर अंकित हुए । भक्ति का सागर श्री गुरु ग्रन्थ साहिब , जिसमें देश की सभी दिशाओं से भक्ति धारा समाहित होती है और प्रचण्ड शक्ति को धारण करने वाला ख़ालसा ।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भक्ति धारा को पराजय से उत्पन्न हुई प्रतिक्रिया बताया था । उनका विश्लेषण ठीक हो सकता है । हारे को हरिनाम , की व्याख्या भी ठीक हो सकती है । लेकिन जिन इतिहासकारों को इस बात पर विस्मय होता है कि पराजित जाति भक्ति मार्ग से होती हुई ख़ालसा तक कैसे पहुँच सकती है , उन्हें शायद इस बात का यक़ीन नहीं है कि जो जाति या राष्ट्र हरिनाम की टेक ले लेता है , उसके आगे समर्पण कर देता है, उसका भीतर का भय समाप्त हो जाता है । वह निडर हो जाता है । तब उस भक्ति में से इतनी शक्ति पैदा हो जाती है , जिससे ख़ालसा पैदा होता है और उसी शक्ति के बलबूते गुरु गोविन्द सिंह जी औरंगज़ेब को जफरनामा लिख कर भेजते हैं । जफरनामा यानि विजय का पत्र । लेकिन शर्त एक ही है । भक्ति के साथ कर्मयोग भी रहना चाहिए । अकर्मण्यता से उपजी भक्ति निराशा को जन्म देती है और कर्मशीलता से जुड़ी भक्ति ओज और तेज़ पैदा करती है । मध्यकालीन दश गुरु परम्परा ने भक्ति को कर्म से जोड़ कर नया प्रयोग किया जिसका परिणाम ख़ालसा पंथ था । भक्ति और शक्ति के इस मणि कांचन संयोग ने भारत में अपने रक्त से शौर्य का नया अध्याय लिखा । गुरु ग्रन्थ साहिब भारत के भक्तिकाल का सैद्धान्तिक पक्ष है और ख़ालसा उसका व्यवहारिक पक्ष कहा जा सकता है । भक्ति रस के भीतर से उत्पन्न हुई यह वीर रस धारा राष्ट्र की अक्षुणता की प्रतीक है ।
देश का जो भक्ति साहित्य निराशा का प्रतीक माना जा रहा था , वही साहित्य श्री अर्जुनदेव व श्री गोविन्द सिंह जी के हाथों सम्पादित होकर नई प्रेरणा व नई उर्जा का स्रोत बन गया । विद्वत्ता का भार ढो रहे बहुत से बुद्धिजीवी अभी तक इस प्रसंग की कारण मीमांसा में जुटे हुए हैं । लेकिन रहस्य पकड़ में नहीं आ रहा । वैसे भी ज्ञानयोग से अभिभूत , भक्ति की ताक़त को कितना पहचान या समझ पाते हैं ? द्वन्द्वात्मकवाद भौतिकवाद की खंजडी दिन रात बजाने वाले इस पर भौंचक्के हैं । उनके लिए तो भक्ति और शक्ति में द्वन्द है । भक्ति की समाप्ति पर ही शक्ति के उदय का प्रसंग बनता है । एंटीथीसिस वाला मामला है । लेकिन यहाँ तो भक्ति में से वीर रस की धारा प्रवाहित हो रही है और । वीर रस की यह धारा भक्ति के स्रोत से जुड़ी हुई भी है । अविच्छिन्न धारा । इसी निरन्तरता में देश व धर्म के लिए सर्वस्व अर्पित कर देने वाले गुरु गोविन्द सिंह जी , काल के भी भाल पर भारतीय इतिहास का एक अमिट अध्याय लिखते हैं । भारत के लिए प्रगति के प्रेरणा स्रोत यूरोप व ब्रिटिश के संसर्ग के बाद खुले , गोरी छाया के समीप रह कर ऐसा विश्वास करने वाले भारवाहक बुद्धिजीवी जब इस प्रसंग को समझ नहीं पाते तो अपने ज्ञान की पराजय स्वीकार लेने के स्थान पर उच्च स्वर में गर्दभ राग गाना शुरु कर देते हैं ताकि उसकी आवाज़ में ही यह प्रसंग दब कर रह जाए । इस राग के शोर शराबें में में सत्य अवहेलित होता है और उसी आपाधापी में मनमानी व्याख्याएँ निकल पड़ती हैं । इसलिए आज सबसे बड़ी जरुरत बौद्धिक जगत में से इस गर्दभ राग को बंद कराने की है ।

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