भारत में लोकतंत्र और मनुवाद का समन्वय

MAYAWATIभाजपा ने बसपा सुप्रीमो कुमारी मायावती के विरूद्घ अभद्र टिप्पणी करने वाले अपने पार्टी नेता दयाशंकर सिंह को पार्टी से निकाल दिया है। पर उसके उपरांत भी बसपा कार्यकर्ताओं ने अपने प्रदर्शनों में अशोभनीय और अभद्र भाषा का प्रयोग निरंतर जारी रखा हुआ है। ऐसे में प्रश्न है कि दयाशंकर सिंह पर तो कार्यवाही हो गयी पर उनके बयान की प्रतिक्रिया में जो कुछ हो रहा है, उस पर कौन कार्यवाही करेगा? सामाजिक समरसता की भावना को भंग करने में यदि दयाशंकर ने अपनी भूमिका निभाई है तो जो लोग समूह में सडक़ों पर उतरकर या अपने पार्टी नेताओं की उपस्थिति में दयाशंकरसिंह की बहन-बेटी के विरूद्घ अभद्रता कर रहे हैं, निश्चित रूप से दोषी वे भी हैं।
हमारे लोकतंत्र की विशेषता यह है कि ये ‘अलोकतांत्रिक शक्ति समूह’ को नमन करता है। आपके पास संप्रदाय, वर्ग, जाति या किसी समुदाय को किसी एक मुद्दे पर एकत्र करने की शक्ति होनी चाहिए, आपके सामने हमारा लोकतंत्र स्वयं ही झुक जाएगा। ऐसे अलोकतांत्रिक शक्ति प्राप्त समूहों ने देश में एक बार नही कितनी ही बार देश की हजारों करोड़ की सार्वजनिक संपत्ति को और देश के सामाजिक मूल्यों को उजाडऩे या नष्ट करने में कोई कमी नही छोड़ी है। हमने जाट आंदोलन के सामने अभी कुछ समय पहले ही अपने लोकतंत्र को झुकते देखा है।

हमारी स्पष्ट मान्यता है कि दयाशंकर सिंह का वक्तव्य नारी गरिमा और लोकतंत्र की उच्च परम्पराओं के विरूद्घ था जिस पर भाजपा ने अपना निर्णय लिया और उन्हें पार्टी तक से निष्कासित कर दिया। अब कानून अपना काम करेगा। दयाशंकर सिंह गिरफ्तार होंगे तो फिर बसपा का उग्र और अलोकतांत्रिक प्रदर्शन क्यों हो रहा है ?

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ध्यान रहे कि ऐसे उग्र आंदोलनों को वे लोग हवा देते रहे हैं जो इस देश का एक बार पुन: संप्रदाय के नाम पर विभाजन करने की तैयारी कर रहे हैं। उन्हें इस देश की सामाजिक एकता को छिन्न-भिन्न करने का इससे अच्छा उपाय कोई नही दिखाई देता कि देश के हिंदू समाज में व्याप्त जातिवाद को बढ़ावा दिया जाए। वह हर स्थिति-परिस्थिति में देश में जातिवाद की खाई को और भी अधिक चौड़ा करने के उपायों को खोजते रहते हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि हम इन षडय़ंत्रों का शिकार होते रहते हैं। ऐसे में कु. मायावती को ध्यान रखना चाहिए कि वह राजनीति चाहे जितनी करें

, करती रहें-पर ऐसा कोई कार्य न करेें जिससे मातृभूमि की प्रतिष्ठा पर आंच आने की संभावना हो। भाजपा सहित अन्य दलों को भी समझना होगा कि अपने पार्टी कार्यकर्ताओं को कोई दायित्व सौंपने से पूर्व यह भली प्रकार सुनिश्चित कर लें कि उसका आचरण और कार्यशैली सामाजिक समरसता की भावना को नष्ट करने वाले तो नही हैं? डा. अंबेडकर जी के नाम पर उग्र होते लोगों को तनिक उस महापुरूष के अपने विचारों पर भी ध्यान देना चाहिए। जैसा कि लेखक कृष्ण गोपाल एवं श्री प्रकाश अपनी पुस्तक ”राष्ट्रपुरूष बाबा साहेब डा. भीमराव अंबेडकर” के पृष्ठ 50 पर लिखते हैं:-
”मैं यह स्वीकार करता हूं कि कुछ बातों को लेकर सवर्ण हिंदुओं के साथ मेरा विवाद है, परंतु मैं आपके समक्ष यह प्रतिज्ञा करता हूं कि मैं अपनी मातृभूमि की रक्षार्थ अपना जीवन बलिदान कर दूंगा।”

डा. अंबेडकर हिंदू समाज की ऊंच-नीच छुआछूत या अस्पृश्यता की घृणास्पद व्यवस्था के विरोधी थे और उसे मिटाना उनका अंतिम लक्ष्य था। जो लोग यह मानते हैं कि डा. अंबेडकर ने बौद्घधर्म स्वीकार करके हमें हिंदुत्व से खुला विद्रोह करने की छूट दी, उन्होंने डा. अंबेडकर को समझा नही है। उन्हें ज्ञात होना चाहिए कि डा. अंबेडकर ने बौद्घधर्म को इसलिए चुना था कि वह हिंदुत्व का ही एक अंग है और महात्मा बुद्घ अपने आप में एक वैदिक विद्वान और वेदधर्म के पुनरूद्घारक थे। वेद के नाम पर किसी प्रकार का पाखण्ड या हिंसा उन्हें पसंद नही थी। इसलिए बौद्घमत अपने आप में एक आंदोलन था जो उसी प्रकार हिंदू समाज की रूढिय़ों का विरोध कर रहा था जैसे कैथोलिक ईसाईयों का प्रोटैस्टेंट्स ने विरोध किया था। दोनों का मूल एक है-पर शाखा दो या अधिक हैं। आप अपने बैठने के लिए जिस शाखा को चुन लें, यह आपको छूट है। पर मूल को नमन करना पड़ेगा अर्थात मातृभूमि (हिंदी, हिंदू, हिन्दुस्थान) को प्रणाम करना ही पड़ेगा।

डा. अंबेडकर अपने जीवन में मुस्लिम लीग और मुस्लिम साम्प्रदायिकता के विरोधी रहे। क्योंकि उन्हें ज्ञात था कि यदि इस बुराई का समर्थन किया तो परिणाम क्या होगा? मैं व्यक्तिगत रूप से कु. मायावती का इस बात के लिए प्रशंसक हूं कि वह भाजपा या कांग्रेस या सपा में से किसी की भी अपेक्षा मुस्लिम तुष्टिकरण पर सबसे कम ध्यान देती हैं। रामजन्मभूमि का निर्णय उन्हीं के शासनकाल में आया था। तब उन्होंने प्रदेश में ऐसी चाक चौबंद व्यवस्था की थी कि कहीं भी साम्प्रदायिक दंगा नही भडक़ने दिया था। इसका अभिप्राय है कि अनुचित तुष्टिकरण उन्हें भी पसंद नही है।

एक बात और भी ध्यान देने की है। एक काल्पनिक कहानी गढ़ी गयी है कि कभी देश में शूद्र राजा या ब्राह्मण राजा रहे और उनके परस्पर विवाद रहे। डा. भीमराव अंबेडकर ही लिखते हैं कि-‘शूद्र राजाओं और ब्राह्मणों में बराबर झगड़ा रहा जिसके कारण ब्राह्मणों पर बहुत अत्याचार हुआ। शूद्रों के अत्याचारों के कारण ब्राह्मण लोग उनसे घृणा करने लगे और उनका उपनयन करना बंद कर दिया। उपनयन न होने के कारण उनका पतन हुआ।’ (डा. के.वी. पालीवाल जी की पुस्तक ‘मनुस्मृति और डा. अंबेडकर’) इसका अभिप्राय है कि ब्राह्मणवादी क्रूर व्यवस्था का जन्म शूद्र राजाओं का उनके प्रति अत्याचारी भाव होने के कारण हुआ। जिसे क्रिया की प्रतिक्रिया कहा जा सकता है। अब हमें ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न करनी चाहिए कि प्रत्येक प्रकार की क्रिया की प्रतिक्रिया से बचना चाहिए, अन्यथा हम फिर एक क्रूर व्यवस्था को जन्म देने का ‘पाप’ कर बैठेंगे। इसलिए आवश्यकता ‘दयाशंकर’ को भूल जाने की है। पढ़ा लिखा वर्ग जातीय विद्वेष को छोडक़र दलितों को साथ लगा रहा है और उनके समान अधिकारों का समर्थक है। इस सकारात्मक सोच को आगे बढ़ाने की आवश्यकता है। यही मनुवाद है और यही लोकतंत्र का प्राणाधार है। लोकतंत्र को मनुवाद के साथ समन्वय करना सीखना ही पड़ेगा।

 

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राकेश कुमार आर्य
उगता भारत’ साप्ताहिक / दैनिक समाचारपत्र के संपादक; बी.ए. ,एलएल.बी. तक की शिक्षा, पेशे से अधिवक्ता। राकेश आर्य जी कई वर्षों से देश के विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। अब तक चालीस से अधिक पुस्तकों का लेखन कर चुके हैं। वर्तमान में ' 'राष्ट्रीय प्रेस महासंघ ' के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं । उत्कृष्ट लेखन के लिए राजस्थान के राज्यपाल श्री कल्याण सिंह जी सहित कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित किए जा चुके हैं । सामाजिक रूप से सक्रिय राकेश जी अखिल भारत हिन्दू महासभा के वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और अखिल भारतीय मानवाधिकार निगरानी समिति के राष्ट्रीय सलाहकार भी हैं। ग्रेटर नोएडा , जनपद गौतमबुध नगर दादरी, उ.प्र. के निवासी हैं।

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