डा. सत्यपाल की एक सराहनीय पहल

bjp-mpsatpal singhराकेश कुमार आर्य

भारत में समग्र क्रांति के अग्रदूत स्वामी दयानंद जी महाराज को लेकर बागपत (उत्तर प्रदेश) के सांसद डा. सत्यपाल सिंह ने एक अच्छी और सराहनीय पहल की है। डा. सिंह का मानना है कि इस बार का ‘भारत रत्न’ स्वामी दयानंद जी महाराज को मिलना चाहिए। यह एक संयोग ही है कि अभी 2 अगस्त को जब मैं भारत की संसद के प्रांगण में या उसके भीतर के किन्हीं पार्क आदि स्थलों में महापुरूषों के लगे चित्रों का अवलोकन अपने साथी श्री रविन्द्र आर्य और श्री देवेन्द्रसिंह आर्य के साथ कर रहा था तो मेरे मन में भी यह विचार आ रहा था कि यहां स्वामी दयानंद जी महाराज की प्रतिमा भी स्थापित होनी चाहिए। बड़ी प्रसन्नता हुई जब यह ज्ञात हुआ कि डा. सत्यपाल सिंह भारत की संसद में महर्षि दयानंद जी की प्रतिमा लगाने और उन्हें भारत रत्न दिलाने का अभियान चला चुके हैं। डा. सत्यपाल सिंह इस अभियान के अंतर्गत अभी तक 151 सांसदों के हस्ताक्षर अपने समर्थन में करा चुके हैं।

डा. सत्यपाल सिंह का मानना है कि महर्षि दयानंद एक ऐसे व्यक्तित्व के धनी थे जिन्होंने भारत को स्वतंत्र कराने में महत्वपूर्ण योगदान दिया और उनकी प्रेरणा से बड़ी संख्या में लोग स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े। ईशभक्ति और देशभक्ति को साथ-साथ चलाने वाले महर्षि दयानंद जी का प्रिय मंत्र था-
ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव:।
यद्र भद्रम् तन्नासुव।।

महर्षि को यह मंत्र ही क्यों प्रिय था? यदि इस प्रश्न पर विचार किया जाए तो महर्षि का जीवनोद्देश्य और स्वतंत्रता के प्रति उनकी निष्ठा स्वयं ही स्पष्ट हो जाएगी। स्वामी जी महाराज ने इस मंत्र में ‘भद्र’ शब्द पर विशेष ध्यान दिया। जिसकी व्याख्या करते हुए उन्होंने लिखा है कि चक्रवर्ती सम्राट होकर मोक्ष की साधना करना ‘भद्र’ की प्राप्ति करना है। इस प्रकार भद्र का अर्थ है कि व्यक्ति इस जीवन में समग्रैश्वर्ययुक्त जीवन की साधना करते हुए मोक्षाभिलाषी बना रहे, अर्थात उसकी प्राप्ति के लिए भी प्रयत्नशील रहे।
इस प्रकार भद्र की साधना बहुत बड़ी साधना है। महर्षि दयानंद ने इस सारे देश को अर्थात भारतवर्ष को ही उस समय भद्र की साधना में समर्पित करने का बीड़ा उठाया था। उन्होंने हर व्यक्ति को ही आर्थिक रूप से समृद्घ कर आत्मिक रूप से बलशाली बनाने के लिए प्रयत्न किया। स्पष्ट है कि महर्षि दयानंद की भद्रोपासना में व्यक्ति को आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक न्याय दिलाने का वह भौतिक पक्ष प्रबलता से उपस्थित था जो व्यक्ति को प्रत्येक प्रकार की दासता से मुक्त कराने के लिए आवश्यक होता है। इसके साथ ही साथ महर्षि दयानंद व्यक्ति के जीवन को इतना पवित्र और व्यवस्थित बनाना चाहते थे कि वह आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक न्याय प्राप्त कर अपनी आत्मोन्नति भी करे। इस आत्मोन्नति के लिए जीवन का कर्मशील और धर्मशील बने रहना आवश्यक है। भद्र की उपासना में व्यक्ति के जीवन का कर्मशील और धर्मशील दोनों प्रकार का रूप समाहित हो जाता है। व्यक्ति की कर्मशीलता व्यक्ति को भौतिक ऐश्वर्य प्राप्त कराती है, उसे चक्रवर्ती सम्राट बनने के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित करती है, जबकि उसकी धर्मशीलता उसे आत्मोन्नति की ओर प्रेरित करती है। बात स्पष्ट है कि महर्षि उस स्वतंत्रता के उपासक थे जिसे ये कथित सभ्य संसार आज तक नही समझ पाया है। वह स्वतंत्रता थी-योगक्षेमकारी स्वाधीनता। इसका अर्थ है कि जो कुछ उपलब्धियां हमने जीवन में प्राप्त कर ली हैं (योग) हमारी स्वाधीनता उनकी सुरक्षा कराने वाली और जो कुछ जीवन में अभी हमें प्राप्त करना है (क्षेम) उसकी प्राप्ति में सहायक हो।

इस संसार ने स्वतंत्रता का अभिप्राय किसी तानाशाही शासन से मुक्ति को माना है। जबकि व्यक्ति का निजी जीवन अनैतिक समाज में कितनी ही बंधनों में जकड़ा रहता है। बंधनों का यह बंधन व्यक्ति की भौतिक और आत्मिक दोनों प्रकार की उन्नतियों में बाधक होता है। इसलिए महर्षि दयानंद एक नैतिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक व्यवस्था के समर्थक थे। वह चाहते थे कि सारा देश ही भद्रोपासना करने वाले लोगों का हो और एक दूसरे को बिना कष्ट पहुंचाये समाज की नैतिक व्यवस्था में सहायक हो। महर्षि की भद्रोपासना का यह जीवनोद्देश्य भारत की स्वाधीनता की रीढ़ कहा जा सकता है और इसी भद्रोपासना को सार्थक करने के लिए महर्षि दयानंद के अनुयायी बड़ी संख्या में स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े थे। महर्षि दयानंद जी महाराज के सपनों के अनुसार यदि स्वाधीनता का स्वागत किया जाता तो देश में अभी तक सामाजिक समरसता को स्थापित करने का हमारा सपना सार्थक हो गया होता। परंतु ‘काले अंग्रेजों’ ने महर्षि दयानंद को भी उसी उपेक्षा की भट्टी में फेंक दिया जिसमें अन्य क्रांतिकारियों को फेंक दिया था।

महर्षि का स्वाधीनता के प्रति साधना भाव मनुष्य की परिभाषा करने में भी व्यक्त हुआ है। वह कहते हैं कि ”मनुष्य उसी को कहना कि जो मननशील होकर स्वात्मवत अन्यों के सुख-दुख और हानि-लाभ को समझे। अन्यायकारी बलवान से भी न डरे और धर्मात्मा निर्बल से भी डरता रहे। इतना ही नही, किंतु अपने सर्वसामथ्र्य से धर्मात्माओं की चाहे वे महा अनाथ, निर्बल और गुण रहित क्यों न हो, उनकी रक्षा, उन्नति, प्रियाचरण और अधर्मी चाहे चक्रवर्ती, सनाथ महाबलवान और गुणवान हो तो भी उसका नाश अवन्न्ति और अप्रियाचरण सदा किया करे। अर्थात जहां तक हो सके वहां तक अन्यायकारियों के बल की हानि और न्यायकारियों के बल की उन्नति सर्वथा किया करे। इस काम में चाहे उनको कितना ही दारूण दुख प्राप्त हो चाहे प्राण भी चले जाएं, परंतु इस मनुष्य रूप धर्म (इसे ही राष्टधर्म कहा जा सकता है) से पृथक (धर्मनिरपेक्ष) कभी न होवे।”

देश के धर्मनिरपेक्ष शासकों से यह अपेक्षा नही की जा सकती थी कि वे महर्षि दयानंद को ‘भारत रत्न’ प्रदान करते। परंतु आजकल देश के प्रधानमंत्री मोदी हैं जो कि देश के मूल्यों का और देश की संस्कृति का सम्मान करना जानते हैं, साथ ही देश के मूल्यों और संस्कृति के लिए समर्पित व्यक्तित्वों का सम्मान करना भी वह जानते हैं। उनसे अपेक्षा की जाती है कि महर्षि दयानंद जी महाराज को न केवल भारत रत्न दिया जाए अपितु महर्षि के उस सनातन विचार प्रवाह को इस देश का मूल विचार प्रवाह (सत्य सनातन वैदिक विचार प्रवाह) बनाने का भी संकल्प लें, जिसके महिमामंडन से हम अपने राष्ट्रधर्म और मनुष्य धर्म को पहचान सकें, और जो विचार प्रवाह न केवल देश में अपितु विश्व में भी शांति स्थापित कराने में सफल हो सके। मनुष्य से लेकर वैश्विक स्तर पर अशांति का एक मात्र कारण यही है कि हमने अपने मनुष्य रूप धर्म को खो दिया है। इस मनुष्य रूप धर्म के अमूल्य हीरे की प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि इसके ‘जौहरी’ को उचित सम्मान दिया जाए।

सचमुच बागपत के सांसद डा. सत्यपालसिंह और उनके अभियान में सम्मिलित 150 सांसद धन्यवाद और बधाई के पात्र हैं, जिन्होंने महर्षि दयानंद को ‘भारत रत्न’ दिलाने और संसद में उनकी प्रतिमा लगाने के महत्वपूर्ण विचार को आगे बढ़ाया है। प्रधानमंत्री मोदी को इन सांसदों की इस सराहनीय और अच्छी पहल को स्वीकार कर देश के कोटिजनों की भावनाओं का सम्मान करना चाहिए।

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