भाषा विषयक ऐतिहासिक भूलें ?

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culture_historyडॉ. मधुसूदन
(एक) सारांश::

***जापान संसार की ५-६ उन्नत भाषाओं के शोधपत्रों का जापानी अनुवाद अपने संशोधकों को उपलब्ध
कराता है। और आगे बढता है।***
***अफ्रिका के ४६ देश परदेशी माध्यमों (फ्रान्सीसी, अंग्रेज़ी,पुर्तगाली और स्पेनी) में, सीखते हैं? और सारे के सारे पिछडे हैं। क्या इसमें हमारे लिए भी, कोई पाठ छिपा है?****
****हिन्दी माध्यम से शालेय शिक्षा के ३ से ५ वर्ष बचते हैं। चौधरी मुख्तार सिंह ने यह ७-८ वर्षों के प्रत्यक्ष प्रयोग से पढाकर, ऐसा प्रमाणित किया है। ***

(दो) शीर्षक की आक्रामकता:

क्या आलेख का शीर्षक लेखक सोच समझकर दे रहा है?जी हाँ। आप भी ऐतिहासिक सच्चाइयों की
निम्न सामग्री पढकर अपना निष्कर्श निकालें। शायद ही आप असहमत होंगे। मैंने आलेख को, पहले, *भाषा विषयक ऐतिहासिक मूर्खता* शीर्षक दिया था। कुछ आक्रामक लगने पर, बदलकर *भाषा विषयक
ऐतिहासिक भूलें* चुना। साथ, प्रश्न चिह्न से भी उसे सौम्य बना दिया।

सारांश:

मैं स्वयं चकित था, जब जाना कि, हमने कैसी कैसी ऐतिहासिक सच्चाइयों की उपेक्षा की। किसके हितों
की राजनीति के कारण हम राष्ट्रहित की उपेक्षा करते आए? मेरा उद्देश्य है; कि आपको पहले सच्चाइयाँ
दिखाऊं। इन सच्चाइयों का पता क्या हमारे नेतृत्व को नहीं था ? पर मुझे संदेह है।उन्हें काफी विद्वानों की
सहायता तो उपलब्ध थी ही; जिन्हे वें नियुक्त कर काम में लगा सकते थे।
नेतृत्व के निर्णय का फल सारे देश को भुगतना पडता हैं। देश की उन्नति-अवनति ऐसे निर्णयों पर निर्भर करती है।

(तीन) आवश्यक सुधार:

आज हडबडी में सुधार भी ना किया जाए। किसी भी भूल सुधार में विशेष सावधानी बरतनी पडती है।
जब आप मार्ग भूल जाते हैं, तो हडबडी में उसे सुधारना बिलकुल काम नहीं आता। हडबडी से और ही उलझ जाते हैं। वास्तव में उसी समय शान्त चित्तसे सोचकर सुधारपर पर्याप्त विचार किया जाए।आज आलेख में केवल भूलों की चर्चा करना चाहता है।
(चार) उदाहरण, उदाहरण ही होता है।
पर सूचना: कोई भी उदाहरण, उदाहरण होता है। समग्रता में शायद ही लागू होता
है। पर प्रत्येक से सामान्य बोध (कॉमन सेन्स)और चतुराई से काम लेना होता है।
भूलें सुधारने में भी दूरदृष्टि से, सुधार की योजना बनाकर काम लिया जाना चाहिए।
निम्न भूलें आप को दिखाना चाहता हूँ। पहले जापान की ऐतिहासिक उन्नति का रहस्य जानते हैं।
(पाँच ) जापान की ऐतिहासिक उन्नति का रहस्य:
जापान संसार के ५-६ उन्नतिप्राप्त देशों के प्रकाशित शोधपत्रों का जापानी मे अनुवाद करवाता है।
उसने अपने विद्वानों को हजारों की संख्या में अन्यान्य देशों से शिक्षित करवाया। जब वापस आए तो
अनुवाद के काम में लगाया। वे जर्मन, फ्रांसीसी, (रूसी?), अंग्रेज़ी, और डच भाषाओं से शोधपत्रों का
जापानी में अनुवाद करवाते है। और ऐसे अनुवादों को संपादित कर, जापानी भाषा में मात्र ३ सप्ताह में प्रकाशित किया जाता है। एक एक आलेख का अनुवाद एक-दो विद्वान करते हैं। पुस्तकों के, प्रकरण और शोधपत्र अलग (फाड) कर विद्वानों को वितरित किए जाते हैं। और फिर अनुवाद छापकर जापानी शोधकों को मूल कीमत से भी सस्ते मूल्य पर बेचे जाते हैं। और आश्चर्य: यह काम ३ सप्ताह में किया जाता है।

(पाँच क) कठिन जापानी भाषा
जापानी भाषा हमारी किसी भी भाषा से अनेक गुना कठिन है। भाव चित्रों वाली भाषा है।
हमारे लिए तो हिन्दी में अनुवाद करना बडा आसान है। सर्वोच्च और सर्वोत्तम और शीघ्रगति वाली
देवनागरी हमारे पास है। संस्कृत का अतुल्य समृद्ध शब्दरचना शास्त्र हमारे पास है। जब जापान ने अपनी कठिन भाषा से भी उन्नति कर दिखाई है, तो,—-
हमारे लिए निश्चित ही बडा सरल है।इस वाक्य को हृदयंगम कर के रखिए।

(छः) अफ्रिका के ४६ पिछडे देशों का उदाहरण:
और निम्न ऐतिहासिक सच्चाई कैसे अनदेखी की जा सकती है? जब, अफ्रिका के ४६ देश परदेशी माध्यमों मे सीखते हैं। सारे के सारे पिछडे हुए माने जाते हैं। उनके पिछ्डे रहनेका कारण ही उनका परदेशी माध्यम मे पढाना है।
अफ्रिका के ==>(क) २१ देश फ्रांसीसी में सीखते हैं।
(ख) १८ देश अंग्रेज़ी में सीखते हैं।,
(ग) ५ देश पुर्तगाली में सीखते हैं।,
(घ)और २ देश स्पेनी में सीखते हैं।,
उन देशों के लिए ये सारी परदेशी भाषाएँ हैं। उनपर शासन करनेवालों की गुलामी की भाषाएँ हैं।
आप पूछेंगे, कि, **इनमें से कितने देश आगे बढे हैं?
प्रामाणिक उत्तर: एक भी नहीं।**
इस वाक्य को हृदयंगम कर के रखिए।

(छः-ख) आप कहेंगे; कि भारत की तुलना पिछडे अफ्रिकी देशों से करना अनुचित है।
हमारा भारत तो प्रचुर विद्वानों से सम्पन्न हैं। भारत की संस्कृति भी विकसित है।
भाषाओं में संस्कृत भी पराकोटि की विकसित है। हमारी तुलना अफ्रिकी देशों से करना क्या उचित है?
उत्तर:बिलकुल सही कहा आपने। पर हमने अपनी संस्कृत भाषा की शब्द सामर्थ्य का उपयोग नहीं
किया। उपलब्ध पारिभाषिक शब्दावली की उपेक्षा की। नयी आवश्यक शब्दावली को विकसित करने
प्रयास प्रोत्साहित नहीं किए। उच्च शिक्षा में अंग्रेज़ी माध्यम से कुछ आगे बढे हैं, पर जितने आगे बढ सकते थे, उतने अवश्य नहीं बढ पाए।

(सात) और एक ऐतिहासिक सच्चाई

भारत में हिन्दी माध्यम से विश्वविद्यालय का प्रयोग हुआ था। उसको आगे बढाकर फैलाया नहीं गया।
उसे बंद ही कर दिया गया।

संक्षेप:
मुख्तार सिंह चौधरी नामक शिक्षाविद विद्वान प्राध्यापक ने १९४९-५० के अंतराल में सातवी (हिन्दी फायनल) पास छात्रों को कालेज में प्रवेश देकर, हिन्दी माध्यम में पढाकर, केवल ५ वर्षों में,(कुल १२ वर्षों में ) M Sc की उपाधि से छात्रों को शिक्षित कर दिखाया था। अंग्रेज़ी माध्यम से जिसमें १७ वर्ष लगते थे।
पाँच पाँच वर्ष बचाए थे। इस वाक्य को फिरसे पढिए, और हृदयंगम कर के रखिए।

ठोस उदाहरण:
यह, घटा हुआ ऐतिहासिक उदाहरण है। चौधरी मुख्तार सिंह एक देशभक्त हिन्दीसेवी एवं शिक्षाविद थे। १९४६ में वायसराय कौंसिल के सदस्य मुख्तार सिंह ने जापान और जर्मनी की यात्रा के बाद, अनुभव किया था, कि यदि भारत को शीघ्रता से, न्यूनतम समय में, आर्थिक दृष्टि से उन्नत होना है तो जनभाषा में जन वैज्ञानिक बनाने होंगे । उन्होनें मेरठ के पास एक छोटे से देहात में “विज्ञान कला भवन” की स्थापना की। हिन्दी मिड़िल पास छात्रों को उसमें प्रवेश दिया। और हिन्दी माध्यम से मात्र पांच वर्षों में एम एस सी के कोर्स पूरे कराकर “विज्ञान विशारद” (M S c) की उपाधि से विभूषित किया। इस प्रयोग से वे शासन को दिखा देना चाहते थे; कि जापान की भांति भारत का हर घर भी “लघु उद्योग केन्द्र” हो सकता है।
दुर्भाग्यवश दो स्नातक टोलियां निकलने के बाद ,चौधरी जी की मृत्यु हो गई, और प्रदेश शासन ने “विज्ञान कला भवन” का इंटर कॉलेज बना दिया। इस प्रयोग ने सिद्ध किया ही; कि जनभाषा ही आर्थिक उन्नति का रहस्य है; और जनविज्ञान, विकास की आत्मा है।

जनभाषा ही जनतंत्र की आत्मा को प्रतिबिंबित कर सकती है, यह बात गांधी जी सहित अन्य नेता भी जानते थे। राजाजी कहते थे, ‘हिन्दी का प्रश्न स्वतन्त्रता के प्रश्न से जुड़ा है’। “आज़ाद हिन्द फौज़” की भाषा हिन्दी थी। युवकों को अंग्रेजी स्कूलों से हटा कर, अभिभावकों ने हिन्दी एवं राष्ट्रीय विद्यालयों में भेजा था। लाल बहादुर शास्त्री आदि देशरत्न ऐसे विद्यालयों की उपज थे। हिन्दी परिवर्तन की भाषा थी, क्रान्ति का उद्बोधन थी। {विकिपीडिया से}

बिस्मार्क कहते हैं, कि, मूर्ख अपने अनुभव से सीखते हैं। पर मैं (बिस्मार्क स्वतः) दूसरों के अनुभव से सीखता हूँ। क्या हम अपने सात दशकों के अनुभव से सीखेंगे?

2 COMMENTS

  1. नेहरू एक अंग्रेज भगत व्यक्ति था। उसने अपने जीवन में कई ऐतहासिक भूले की जिसमे भाषा सम्बन्धी भूल भी थी। कई लोगो का मत है के नेहरू की योग्यता इतनी कम थी के बह एक सरकारी नौकरी में एक क्लर्क की भी नौकरी प्राप्त करने की योग्यता नहीं रखना था। डॉ. रघुवीर ने हिंदी को बढ़ावा देने के लिए कई हज़ार नए शब्दों का निर्माण किया किन्तु नेहरू ने उन शब्दों को स्वीकार नहीं किया। कुछ बिस्वविद्यालया ने उच्च शिक्षा हिंदी में आरम्भ की गयी थी, किन्तु नेहरू शाशन काल में हिंदी की उच्च शिक्षा बंद कर दी गयी। डॉ. मधुसूदन जी ने अपने लेख में यह स्पष्ट किया के नेतृत्व के निर्णय का भल सारे देश को भुगतना पड़ता हैं। स्वंत्रता के पश्चात भारत को जितने भी प्रधान मंत्री या नेता मिले बह हिंदी विरोधी थे या फिर हिंदी के प्रति उदासीन थे। जो नेता/ लोग हिंदी के समर्थक थे उन्होंने भी हिंदी को बढ़ावा देने के लिए कुछ नहीं किया। डॉ. मधुसूदन जी ने अफ्रीकन देशो का उदहारण देकर बताया के भारतीया भाषा हिंदी की बजाय एक विदेशी भाषा अंग्रेजी को इतना अधिक महत्व देने के कारण भारत को कितनी हानी हो रही हैं। Remember always that “Democracy results in triumph of mediocrity” for the system prefers those who keep pace with slowest march of thought – status quo ante. What does it mean? For over six decades, successive generations of leaders oversaw the resurgence of dynastic inheritance or neo-Maharajahs reappearing everywhere.

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