भींगे सिर सरकारी तेल…!!

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shareतारकेश कुमार ओझा

कॉमर्स का छात्र होने के बावजूद शेयर मार्केट का उतार – चढ़ाव कभी अपने पल्ले नहीं पड़ा। सेंसेक्स में एक उछाल से कैसे किसी कारोबारी को लाखों का फायदा हो सकता है, वहीं गिरावट से नुकसान , यह बात समझ में नहीं आती। अर्थ – व्यवस्था की यह पेचीदगी राजनीति में भी देखने को मिलती है। मसलन जब कोई राजनैतिक दल विपक्ष में होता है तो बार – बार बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी को रोना रोता है, लेकिन सत्ता मिलते ही वहीं यह कह कर हाथ भी खड़े कर देता है कि गरीबी व बेरोजगारी दूर करने की कोई जादू की छड़ी उसके पास नहीं है। यह जब दूर होना होगा, तब होगा। इसमें वे कुछ नहीं कर सकते। सरकारी आयोजनों में एक ही मंच से विकास के दावे और खस्ताहाल आर्थिक स्थिति का रोना सुनना अजीब लगता है। राज्यों के मंत्री व मुख्यमंत्री करोड़ों की योजनाओं की घोषणा करते हुए कहेंगे कि उनके कार्यकाल में किस तरह विकास की गंगा बह निकली है। लेकिन साथ ही बदहाली की शिकायत करते हुए केंद्र को कोसने से भी नहीं चूकेंगे। खास तौर से विरोधी दलों के मुख्यमंत्री अक्सर केंद्र पर पक्षपात और असहयोग का आरोप लगाते हुए कहते सुने जाते हैं कि हम तो प्रदेश में कब का रामराज्य ला चुके होते, लेकिन केंद्र सहयोग ही नहीं कर रहा। उन्हें उनका पैकेज नहीं दिया जा रहा। उलटे कर्ज के एवज में मोटी रकम ब्याज के तौर पर वसूली जा रही है… वगैरह – वगैरह। केंद्र का हाल तो और भी अजीब है। बिल्कुल उन धनी – मानी लोगों की तरह जिनकी समृद्धि के चर्चे गली – कुचों में सुने जाते हैं। लेकिन मुलाकात पर वही कारोबार में हो रहे कथित घाटे और खस्ताहाल माली हालत का रोना लेकर बैठ जाते हैं और सामने वाले को पकाते रहते हैं। ऐसी मुलाकातों में अक्सर सामने वाले को लगता है … यार मैं कहां फंस गया… सोचा था इसके लिए कुछ दान लूंगा लेकिन यहां तो उलटे देने की नौबत न आ जाए। लेकिन फिर कभी उसी के बारे में भारी निवेश और धन – संपति खरीदने की खबरें भी सुनने को मिलती है। अपनी सरकारों का रवैया भी कुछ ऐसा ही अबूझ और रहस्यमय है। अभी हाल में ही तो मंदी और घाटे की अर्थ – व्यवस्था की दलीलें सुन – सुन कर लोग बोर हो रहे थे। तमाम मंत्री कहते सुने जाते थे कि सरकार तो जनता के लिए फलां – फलां काम करना चाहती थी, लेकिन क्या करें, फंड ही नहीं है। हमें खस्ताहाल अर्थ – व्यवस्था मिली है। खुशहाली के लिए जनता को अभी इंतजार करना पड़ेगा… अर्थ – व्यवस्था के पटरी पर आने में वक्त लगेगा। आप को कम से कम इतने साल तो इंतजार करना ही पड़ेगा। लेकिन अब बाबुओं के मामले में सरकार की अकल्पनीय दरियादिली देखने को मिल रही है। यानि सरकार ने भींगे सिर वालों के बालों में और तेल चुपड़ने की पूरी व्यवस्था कर दी है। मोटी तनख्वाह पाने वाले बाबुओं की जेबें अब और भारी होंगी। केवल अर्थ के मामले में ही नहीं, सुख – सुविधाओं के मामले में भी । इस वर्ग को मिलने वाली अनगिनत छुट्टियों पर लोग पहले ही नाक – भौं सिकोड़ते रहते थे। लेकिन अब सरकार बाबुओं को मातृत्व और पितृत्व के एवज में लंबा अवकाश भी देने जा रही है। हो सकता है कि कुछ दिन बाद ऐसी घोषणा भी हो जाए कि काम पर न आने वाले बाबुओं को भी उतना ही वेतन मिलेगा जितना काम पर आने वालों को मिलता है। लेकिन सरकार की इस घोषणा से असंगठित क्षेत्र के श्रमिक व कर्मचारी महंगाई औऱ अमीरी – गरीबी के बीच की खाई के और चौड़ी होने की आशंका व्यक्त करते हुए न जाने कैसी – कैसी अपशकुनी बातें कह रहे हैं। कहा जा रहा है कि चंद हजार में 12 – 12 घंटे और चंद घंटों में लाखों की पगार से देश का माहौल बिगड़ेगा। आखिर सरकार उन बालों में और तेल कैसे डाल सकती है जो पहले ही तेल से लबालब भींगे हुए है।जबकि सरकार की दलील है कि इससे देश के खजाने पर कुछ बोझ तो जरूर बढ़ेगा, लेकिन वह इतना ज्यादा भी नहीं होगा कि गाड़ी चलनी मुश्किल हो जाए। उलटे अर्थ – व्यवस्था को लाभ ही होगा। आप पूछेंगे कैसे तो सुनिए। बाबुओं की तनख्वाह और सुख – सुविधाएं बढ़ेगी तो कार, फ्लैट आदि की मांग में खासी वृद्धि होगी। बाबु खुले दिल से खर्चा करेंगे तो यह धन आखिर भुक्खड़ों के बीच ही तो बंटेगा…। इसलिए मैं तो कहूंगा सरकार की मंशा पर शक करना पाप से कम नहीं…।

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