एक विचारोत्तेजक बहस की शुरूआत / रवि शंकर

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गत 12 अगस्त रविवार को भोपाल में मीडिया चौपाल का आयोजन हुआ। देश भर से लोग इकट्ठा हुए। गरमा गरम भाषण भी हुए और बहस भी चली परंतु सबसे अधिक बुद्धिशील माने जाने वाले इस न्यू मीडिया के महारथियों को सुनते वक्त थोडी सी निराशा भी हो रही थी। और केवल न्यू मीडिया के मित्रों को ही क्यों दोष दूँ, प्रिंट मीडिया के महारथी तो और भी अधिक निराश कर रहे थे। सवाल था कि न्यू मीडिया की संभावनाएं, समस्याएं और चुनौतियां क्या हैं? परंतु इस पर कोई भी विचार तो तब प्रस्तुत कर पाता जब पहले उसने इस न्यू मीडिया के वास्तविक स्वरूप और आयामों को ठीक से समझा होता, इसकी सीमाओं और रूपरेखा की पहचान की होती, इसके स्वभाव और सामर्थ्य का मूल्यांकन किया होता। उदाहरण के लिए एक वक्ता जब यह कह रहे थे कि न्यू मीडिया का विकास मीडिया का लोकतंत्रीकरण है क्योंकि इसने आम आदमी के हाथ में मीडिया थमा दिया है, तो वे यह भूल रहे थे कि आम आदमी को तो पहले भी यह स्वतंत्रता थी ही और वह इसका उपयोग भी कर ही रहा था। क्या इस देश में किसी को कोई अखबार या पत्रिका छापने पर कोई प्रतिबंध है? क्या छोटे-मोटे लोग हजारों की संख्या में पत्र-पत्रिकाएं नहीं निकाल रहे हैं? क्या ऐसे पत्र-पत्रिकाओं का अभाव है जो किसी सामान्य आदमी के व्यक्तिगत प्रयास से निकल रहे हों? ऐसा नहीं है। इसी प्रकार जब एक और वक्ता यह कह रहे थे कि न्यू मिडिया तो व्यक्तिगत सोच से ग्रसित है, या फिर एक और वरिष्ठ पत्रकार ने कहा कि न्यू मीडिया में सूचनाएं तो हैं पर खबरें नहीं तो वे यह नहीं समझ रहे थे कि प्रिंट मीडिया में भी तो एड मैगजीन, संगठनों के मुखपत्र व स्मारिकाएं आदि छापी ही जाती हैं। तो क्या उनको देख कर यह मान लिया जाए कि प्रिंट मीडिया में खबरें नहीं होतीं? वास्तव में यह सारा भ्रम केवल इस कारण था और है कि कोई भी न्यू या प्रिंट मीडिया के अलग-अलग आयामों को समझने की चेष्टा कर ही नहीं रहा।

एक बात तो ठीक कही गई कि न्यू मीडिया पुराने मीडिया का ही विस्तार है और इसलिए इसमें भी वही सारी कमियां व खूबियां हैं जो पुराने मीडिया में थी और हैं। परंतु यह कहने के बाद भी न्यू मीडिया की अनर्गल आलोचना भी की जाती रही। मसलन इसमें खबर नहीं है, तो भाषा काफी खराब है, देशतोडक ताकतें इसमें सक्रिय हैं, इसके द्वारा नफरत काफी फैलाई जा रही है आदि आदि। परंतु सवाल है कि क्या प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में ये सारी बातें नहीं हो रहीं? क्या देशतोडक ताकतें अपना अखबार और चैनल नहीं चला रही हैं? यदि हाँ तो इस न्यू मीडिया पर ही सारा गुस्सा क्यों? यही एक बात इस आवश्यकता पर जोर देती है कि अब समय आ गया है कि इस न्यू मीडिया का विधिवत नामकरण किया जाए और इसके आयामों को पारिभाषित किया जाए ताकि चीजों को गड्ड-मड्ड करने की बजाय उन्हें सही परिप्रेक्ष्य में समझ सकें और फिर उनका सही उपयोग कर सकें।

एक बात तो ठीक से समझ लेने की है कि न्यू मीडिया कोई एलियन जैसी वस्तु नहीं है। यह भी इसी धरती की है और जैसा कि चौपाल में आए एक वरिष्ठ पत्रकार ने कहा, यह वर्तमान मीडिया का ही एक विस्तार है। अंतर केवल संसाधनों के स्वरूप और लागत का है। प्रिंट मीडिया में एक बडे तंत्र की आवश्यकता होती है जो कि काफी व्ययसाध्य होता है। इसी प्रकार इलेक्ट्रॉनिक चैनल के लिए भी काफी बडे तंत्र और आर्थिक निवेश की आवश्यकता होती है। परंतु इस न्यू मीडिया में ऐसा नहीं है। यहां एक व्यक्ति अकेला भी एक वेबसाइट चला सकता है। इसमें खर्च काफी कम है और तंत्र की आवश्यकता भी न्यूनतम है। परंतु यहां यह भी ध्यान रखने की आवश्यकता है कि यदि अखबार की टक्कर की खबरें देने वाली वेबसाइट चलानी हो तो वह भी बिना किसी तंत्र और आर्थिक निवेश के संभव नहीं है। यह बात वहां हुई चर्चा से भी सिद्ध हो रही थी। चौपाल में आए अनेक प्रतिभागियों का मानना था कि न्यू मीडिया को विकसित करने व संरक्षित करने के लिए एक आर्थिक तंत्र भी विकसित किया जाना चाहिए ताकि मिशनरी भाव से काम करने वालों को संबल मिल सके। हालांकि कई लोग इस मत के भी थे कि इस न्यू मीडिया को व्यावसायिक स्वरूप नहीं दिया जाना चाहिए, अन्यथा इसका भी परंपरागत मीडिया माध्यमों की तरह ही पतन हो जाएगा। फिर भी बहुमत यही था कि यदि सबके लिए न भी सोचें और व्यावसायिक उद्देश्य न भी रखा जाए तो भी कम से कम मिशनरी लोगों के लिए कुछ साधन अवश्य खडा किया जाना चाहिए।

बहरहाल सारी बहस से कुछ बातें तो साफ हो गईं। एक तो यह कि अब इस न्यू मीडिया का कुछ तो नामकरण किया ही जाना चाहिए और इसके आयामों को भी पारिभाषित किया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए ब्लॉग को परंपरागत अर्थों में पत्रकारिता के सांचे में नहीं फिट किया जा सकता। इसी प्रकार फेसबुक और ट्वीटर पर सक्रिय लोगों को पत्रकार मानना भी बहुत उचित नहीं कहा जा सकता। हालांकि ऐसे लोगों को संभावित पत्रकार तो माना ही जा सकता है। इसमें भी एक बडी संख्या वास्तविक पत्रकारों की भी है जो नियमित रूप से ब्लॉग लिखते हैं। फिर उनके ब्लॉग को पत्रकारिता माना जाए नहीं? ऐसे कई सवाल और भी होंगे जिन पर बैठ कर विचार किए जाने की आवश्यकता है। और यह विचार केवल इस न्यू मीडिया के लोग ही करें, यह भी उचित नहीं है। इसमें परंपरागत मीडिया के धुरंधरों को भी बैठाया जाना चाहिए और उनकी राय ली जानी चाहिए। वैसे भी ये सारे धुरंधर भी इस न्यू मीडिया में भी सक्रिय हैं ही, इस नाते भी उसकी भागेदारी बनती ही है।

वैसे चौपाल में जो कुछेक गंभीर मुद्दे उठाए गए, वे पत्रकारों द्वारा नहीं, बल्कि भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग में संचार विभाग के निदेशक वैज्ञानिक डा. मनोज पटोरिया द्वारा उठाए गए। उन्होंने पहले तो मीडिया का वैज्ञानित नामकरण किया परंपरागत मीडिया को एनालॉग मीडिया और न्यू मीडिया को डिजिटल मीडिया का नाम दिया। फिर उन्होंने तीन महत्वपूर्ण बिंदू रखे। पहली बात उन्होंने कही कि अभी भी वेब पर लेसी सामग्री का अभाव है। विदेशी सामग्री तो पर्याप्त है पर देसी नहीं और इस कमी को पूरा करने पर ध्यान दिया जाना चाहिए। दूसरी बात उन्होंने कही कि केवल एक ही भाषा में अधिकांश जानकारियां उपलब्ध हैं। उन्हें भारत की शेष 22 भाषाओं के साथ-साथ जनजातीय भाषोओं में भी उपलब्ध कराने की चुनौती हमारे सामने है। तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात उन्होंने कही कि सोशल नेटवर्किंग के लिए हम अभी तक फेसबुक और लिंक्डइन जैसे विदेशी नेटवर्कों पर आश्रित हैं। इनका देसी विकल्प खडा किया जाना चाहिए। डा. पटोरिया की इन बातों पर आगे भी विचार हुआ, परंतु उतना नहीं जितना कि होना चाहिए था। समय का अभाव भी इसका एक कारण था। बहरहाल चौपाल में आए सभी प्रतिभागियों ने इन विषयों पर सहमति प्रकट की और इस पर कुछ करने का विचार भी मजबूत हुआ।

कुल मिला कर कहा जा सकता है कि मीडिया चौपाल लोगों को आंदोलित करने और एक विचारोत्तेजक बहस को छेडने में कुछ हद तक सफल रही। परंतु यह भी लगा कि इस बहस को अब आगे बढाए जाने की भी आवश्यकता है। ऐसे आयोजन नियमित रूप से हों तो बाकी मुद्दों को भी सुलझाया जाना सरल हो सकता है।

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  1. The New Media or the Digital Media stands for empowerment of people in the right earnest. In the traditional media (print as well as electronic) the freedom of expression, enshrined in our constitution, was subject to the filters in the form of the editors and/or proprietor. In the new media it is unbridled. In fact, the new media is a response to the tyranny of the editor.

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