बीएचयू में हिंदुत्व का बैरियर, संस्कृत का कॉपीराइट ।

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देश की दो प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय आजकल मीडिया से लेकर आम जनता के बीच चर्चाओं में हैं। एक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU) जिसकी स्थापना 22 अप्रैल 1969 को हुई थी .दूसरा काशी हिंदू विश्वविद्यालय या बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (BHU)जिसकी स्थापना सन 1916 में पंडित मदन मोहन मालवीय तथा उनकी सहयोगी एनी बेसेंट द्वारा की गई थी. जेएनयू में तो आए दिन कुछ न कुछ बवाल और घटनाक्रम होते रहते हैं ।आजकल छात्र फीस वृद्धि के विरोध में आंदोलन कर रहे हैं ।यह आर्थिक समस्या के कारण उत्पन्न विवाद माना जा सकता है ।दूसरी तरफ बीएचयू का अचानक चर्चा में आ जाना न तो आर्थिक कारण है और नहीं राजनितिक। बीएचयू में यह उबाल धार्मिक कट्टरता से पैदा हुआ माना जा सकता है ।जिसकी जड़ें हिंदुस्तान में शायद बहुत गहरी हैं।धर्म चाहे हिन्दू हो या इस्लाम या और कोई धर्म हमेसा बैरियर ही लगाता है।

    विवाद का कारण —

           बनारस हिंदू विश्वविद्यालय एशिया का सबसे बड़ा विश्वविद्यालय है ।यहां भारत सहित  48 देशों के विद्यार्थी अध्ययन करते हैं। और इस संस्था में सन 2017 के आंकड़ों के अनुसार 6 प्रकार के विभिन्न संस्थान है। जिसमें 14 संकाय तथा 140 विभाग हैं इन्हीं में से एक  संकाय ‘स्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय’ में डॉक्टर फिरोज खान असिस्टेंट प्रोफेसर नियुक्त होकर आए। यहां से धर्म युद्ध की शुरुआत संकाय के कुछ हिंदू छात्रों द्वारा शुरू होता है। छात्रों का तर्क था कि एक अनार्य या विधर्मी, गैर हिंदू, मुसलमान हमको हमारे धर्म और मंत्रों की शिक्षा कैसे दे सकता है ?देश के ख्याति प्राप्त विश्वविद्यालय के छात्र संस्कृत को भी धर्म से जोड़ कर देखने लगे हैं,तो भाषा तो संवाद और अभिव्यक्ति का माध्यम होती है, फिर छात्रों को ज्ञान अर्जित करने से मतलब होना चाहिए था आर्य ,अनार्य ,हिंदू मुसलमान के फेर में क्यों पड़ गए? छात्रों को आम  खाने थे या गुठलियां गिन्नी थी?

  कितनी पनपी है संस्कृत ।

जिस  संस्कृत भाषा के लिए आज  बीएचयू में हंगामा हो रहा है  वह अंग्रेजी और अन्य भाषाओं से कैसे पिछड़ गई? वैदिक भाषा के विकास और उत्थान के लिए धर्म  और मन्त्र विज्ञानियों ने क्या योगदान दिया ?संस्कृत को देव भाषा कहा गया और उसको समाज के कुछ लोगों तक ही सीमित रखा गया। इतिहासकार रोमिला थापर भारत का इतिहास पुस्तक के पेज 41 में लिखती हैं-“शिक्षा का अधिकार केवल ब्राह्मणों के पास था महिला और शूद्र को शिक्षा से वंचित रखा गया संस्कृत शिक्षित उच्च वणों की भाषा बन गई ।इस भाषा को समाज के अन्य प्रकार तथा महत्वपूर्ण वर्गों से पृथक रखा गया। इसलिए आगे चलकर इसकी ख्याति कम हो गई “

      बचपन से ही पढ़ते आ रहे हैं और सुनते आ रहे हैं कि भारत विश्व गुरु था और पुनः विश्व गुरु बनेगा. हम क्या-क्या धरोहर बचा पाए वेद, पुराण, उपनिषद, ब्राह्मण ग्रंथ जिन पर भारत का वैदिक संस्कृति प्रतिबिंबित है. संस्कृत ग्रंथों की भाषा रही है यहां तक की संस्कृत भाषा को भारत की अन्य भाषाओं की जननी माना जाता है। आज अपनी पहचान के लिए तरस रही है ।और  प्रोफेसर फिरोजखान अपने धर्म की भाषा उर्दू को छोड़कर हमारे वैदिक कालीन भाषा को आगे बढ़ाने आते हैं तो हिंदुत्व का बैरियर उस को आगे नहीं बढ़ने देता है।

       चीन, जापान ,थाईलैंड, कोरिया आदि देश विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में भारत से आगे हैं. भारत की धरती से पैदा हुआ बुद्ध और बौद्ध धर्म को अपनाकर हम से आगे निकल गए ।और हम सिर्फ अपने अतीत पर गर्व करते रहे ।और आपस में ही   उलझते रहे हैं। जिसका परिणाम यह हुआ कि न ही संस्कृत बच पाई और नहीं बुद्धत्व। बस बचा पाए तो सिर्फ वर्ण व्यवस्था, जाति और आडंबर। अंग्रेजी आज विश्व की भाषा कैसे बन पाई? भारत के संसद की, न्यायालय की भाषा भी न हिंदी न हीं संस्कृत  बन सकी। इतनी प्राचीन संस्कृति, सनातन धर्म और विश्व गुरु भारत में अंग्रेजी तो शिखर पर पहुंच गई और संस्कृत सिर्फ मंत्रोच्चारण तक सिमट कर रह गई।

हिंदुत्व का बैरियर-और प्रतिभाओं का तिरस्कार।

देश में   प्रतिभा और विद्वानों की कदर नहीं है।डॉ0 फिरोज खान   अकेले विद्वान और प्रतिभाशाली व्यक्ति नहीं है जिनके साथ हिंदुत्व का प्रतिरोध लगा है।प्रतिरोध वैधुत धारा को आगे बढ़ने का विरोध करता है ,और  हिन्दुत्व का प्रतिरोध विचारधारा और प्रतिभा को आगे बढ़ने का विरोध करता है। हैरानी तो तब होती है जब हिंदुत्व ने अपने ही स्वधर्मी प्रतिभाओं को आगे बढ़ने से रोका है, बल्कि उनको शिष्य बनाने से भी रोका है। महाभारत जो महाकाव्य है उसमें गुरु द्रोणाचार्य ने एकलव्य को धनुष विद्या सिखाने से इसलिए मना कर दिया था कि वह जाति का शुद्र था।  वही महाभारत वर्णन करता है कि एकलव्य ने बिना गुरु के भी अर्जुन से ज्यादा महारथ धनुर्विद्या में हासिल कर ली ।

डॉ0 अंबेडकर को  संस्कृत न पढ़ पाने का मलाल-बैरियर ने रोका!

यह एक तरह से विडंबना ही कही जाएगी कि आनंद राव व भीमराव दोनों ही  द्वितीय भाषा के रूप में संस्कृत पढ़ना चाहते थे। किंतु उनकी इस मंशा पर पानी सिर्फ इसलिए फिर गया कि संस्कृत के अध्यापक ने उन्हें संस्कृत पढ़ाने से यह कहकर इंकार कर दिया कि वह अछूत बालकों को संस्कृत नहीं पढ़ाएंगे। दोनों भाई मन मसोसकर रह गए तब द्वितीय भाषा के रूप में उन्हें संस्कृत की बजाय फारसी विषय का चुनाव करना पड़ा था। किंतु भीमराव ने अपनी दिलचस्पी बरकरार बनाए रखी और आगे चलकर स्वाध्याय से संस्कृत का ज्ञान अर्जित किया, जितना वह अपने आप से कोशिश करके कर सकते थे। किंतु अपनी पीड़ा को आगे चलकर उन्होंने इस तरह व्यक्त किया ,”मुझे संस्कृत भाषा पर अत्यंत अभिमान है और मैं चाहता था कि संस्कृत का अच्छा विद्वान बनूं, परंतु ब्राह्मण अध्यापक के संकुचित दृष्टिकोण से मुझे संस्कृत भाषा से वंचित रह जाना पड़ा।”

वास्तव में ये विडम्बना ही कही जाएगी कि किसी को संस्कृत पढ़ने न दिया गया और किसी को पढ़ाने से रोका जा रहा है।ये धर्म का बैरियर नहीं तो और क्या है?

आज भी वही खड़ी है काशी जहाँ 40 वर्ष पूर्व थी-

बीएचयू का आदर्श वाक्य है।”Knowledge imparts immortality “ज्ञान अमरता प्रदान करता है”लेकिन हकीकत कुछ और बयाां करती है ।आज भारत ने कई क्षेत्रों में दिन दुगनी रात चौगुनी प्रगति की है।मगर शिक्षा के क्षेत्र वो  क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं हो पाया है ,जिसके द्वारा देश के साथ समाज के लोगों का तन,और मन भी मैल मुक्त हो सकें।काशी को जहाँ ज्ञान और मुक्ति का स्थान माना जाता है,जहाँ से कई समाज सुधारक और विद्वान पैदा हुए हैं।मंदिर,मस्जिद के नाम पर तो धर्म की तलवारें खिंची हुई  ही हैं मगर विद्या और ज्ञान के शिखर संस्थान पर जाति और धर्म की लकीरें नव भारत के भविष्य के लिए अच्छे संकेत नहीं दिखते।

आज से 40 साल पहले भी कुछ ऐसी ही घटना काशी में घटित हुई थी।

   इनके योगदान को भी करें याद-

1-अब्दुल रहीम  खान-ए-खाना–रहीम के नाम से विख्यात कवि थे।जन्म से मुसलमान होते हुए भी हिन्दू जीवन के अंतर्मन में बैक कर रहीम ने विशाल ह्र्दयता का परिचय देकर हिन्दू देवी-देवताओं,पर्वों, धार्मिक मान्यताओं और परम्पराओं का पुरजोर लेखन किया।जीवन भर हिंन्दू जीवन को  भारतीय जीवन का यथार्त मानते रहे।इनके काव्य में रामायण,महाभारत,पुराण तथा गीता का ही गुणगान और व्याख्यान रहा।

2-रसखान

इनके बचपन का नाम सैयद इब्राहिम था।मक्का मदीना ,कुरान,

मुहम्मद साहब के गुणगान से हटकर इन्होंने अपने आप को कृष्ण भक्ति में लीन कर दिया।रसखान विट्ठलनाथ के शिष्य थे ।एवं वल्लभ सम्प्रदाय के सदस्य थे ।रसखान की इन चार पंक्तियों से उनकी हिन्दू धर्म और कृष्ण भक्ति का अंदाजा लगाया जा सकता है।

“”मानुस हौं तो वही रसखान, बसौं मिलि गोकुल गाँव के ग्वारन।

जो पसु हौं तो कहा बस मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥

पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धर्यो कर छत्र पुरंदर धारन।

जो खग हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदीकूल कदम्ब की डारन॥”

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने जिन मुस्लिम हरिभक्तों के लिए कहा था-

“इन मुसलमान हरिजनन पर कोटिन हिन्दू वारिये”उनमें रसखान का स्थान सर्वोपरि है।

यंत्रों पर सभी का हक तो मन्त्रों पर क्यों नहीं।

आज के वैज्ञानिक युग में इंसान यंत्रों के सहारे ही आगे बढ़ रहा है।और यंत्र ही प्रगति के मानक बन चुके हैं।आज मोबाइल फोन को ही ले लीजिए यह आज जीवन की महत्वपूर्ण आवश्यक्ताओं में से एक है।जब हम मोबाइल,या कंप्यूटर का प्रयोग कर रहे होते हैं तब हम यह नहीं पूछते किसी से कि ये किसने खोजे हैं या किस धर्म के इंसान ने बनाये हैं।इसलिए यह कहना अनुचित नहीं होगा कि धर्म ने तोड़ा है और विज्ञान ने विश्व को जोड़ा है।बेहतर होता कि बीएचयू के संस्कृत संस्थान के छात्रों को प्रोफेसर खान का स्वागत करना चाहिए था, इसलिए कि संस्कृत और भारतीय मंत्रविद्या से प्रभावित होकर एक मुसलमान ने संस्कृत  और मन्त्र विद्या को चुना।इससे हिन्दू धर्म की व्यापकता का ही प्रचार -प्रसार होता और धर्म को बैरियर कहने वाले चुप हो जाते।मगर ये हो न सका और हिन्दुत्व का बैरियर विश्वविद्यालय तक जा पहुँचा।

क्या कहता है  भारत का संविधान?

लोकतांत्रिक देश के नागरिक होने के नाते भारतीय संविधान के अनुरूप आचरण करना भी हमारा कर्तव्य है।कोई भी व्यक्ति कितना ही बड़ा हो या छोटा क्यों न हो, कानून और संविधान की दृष्टि में समान हैं।भारतीय संविधान धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की वकालत करता है।साथ ही धर्म,लिंग,जाति के आधार पर भेद भाव गैर कानूनी है।और व्यक्ति की गरिमा की भी वकालत करता है।बीएचयू के छात्रों ने संविधान की मर्यादा का भी पालन नहीं किया जो खेदजनक कदम माना जाना चाहिए।इस बैरियर को शिक्षा और शस्त्रों से नहीं हटाया जा सकता है बल्कि  सिर्फ सोच बदलकर ही हटाया जासकता है।

आई0 पी0 ह्यूमन

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