‘बिग बॉस’ की भूमिका में बिहार के नौकरशाह

-आलोक कुमार-   bihar-map_37
पिछले आठ सालों के सुशासनी शासन के दौरान बिहार के मुख्यमंत्री ने कई बार नौकरशाहों को गांवों की तरफ रुख करने के ‘दिखाऊ निर्देश’ दिए लेकिन न प्रमुख सचिव और सचिवों ने गांवों का रुख किया और न ही जिलाधिकारीओं और आयुक्तों ने गांवों के भ्रमण में रुचि दिखाई। मुख्यमंत्री की सेवा और अधिकार यात्राओं में जरूर उच्चाधिकारियों की भागीदारी होती है क्योंकि इन यात्राओं का स्वरूप “पिकनिक” सरीखा होता है और ऐसे भी आजकल ‘ग्रामीण पर्यटन’ को बढ़ावा देने का प्रचलन भी चल पड़ा है। अब स्थिति यह बन चुकी है कि मुख्यमंत्री ने ऐसे निर्देश देना ही बंद कर दिया है। पिछले काफी समय से उन्होंने नौकरशाहों को इस बात की हिदायत देना ही छोड़ दिया है कि वे ग्रामीण बिहार में जाएं।

दरअसल सुशासन बाबू के इन निर्देशों को मानने के लिए नौकरशाही इसलिए भी तैयार नहीं है कि बिहार के नौकरशाहों की मानसिकता ये है कि वे खुद को सरकार के हाथों की कठपुतली नहीं बनने देना चाहते हैं, अपितु  सरकार को अपनी कठपुतली बनाए रखना चाहते हैं। ये मुख्यमंत्री की गलत नीतियों और नौकरशाही को जरूरत से ज्यादा तरजीह देने का परिणाम है जिसका दंश बिहार की जनता को झेलना पड़ रहा है। बिहार के मौजूदा शासक की गलत नीतियों ने नौकरशाही को मजबूत किया है। नौकरशाही शासन पर हावी हो गयी है जिसने भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया है और  आम बिहारी को हाशिए पर ला दिया है।
ये बात अलग है कि लोकतंत्र में राजनीतिक सत्ता ही सर्वोपरि है और कार्यपालिका को उसके अधीन ही काम करना पड़ता है लेकिन बिहार में यह संवैधानिक व्यवस्था किताबों तक सीमित होकर रह गई है। सच्चाई यह है कि वर्तमान बिहार में नौकरशाही सरकार को अपनी सहूलियत के अनुसार “स्विच ऑन” “स्विच ऑफ़” कर रही है। सरकार केवल नौकरशाहों की पोस्टिंग के मामले में ही अपनी ताकत दिखा पाती है लेकिन तिकड़मी नौकरशाह कई बार इस मामले में भी सरकार पर हावी हो जाते हैं। कागजों पर सुशासन के आंकड़े तैयार करने के एवज में, जिसे नौकरशाहों से बखूबी अंजाम दिया है, पूरी नौकरशाही ही सुशासन बाबु और सुशासनी सरकार को अपने ईशारों पर नचा रही है। बिहार में नौकरशाह “बिग बॉस“ की भूमिका में हैं और इस भूमिका को बखूबी निभा भी रहे हैं।
बिहार में बेलगाम नौकरशाही का उद्दंड रूप अचल संपत्ति के ब्यौरे देते वक्त भी लोगों के सामने आया था। इन नौकरशाहों की संपत्ति को उजागर कराने के लिए राज्य सरकार को काफी मशक्कत करनी पड़ी थी। इसके लिए सरकार को बार-बार सर्कुलर जारी कर नौकरशाहों को चेतावनी देनी पड़ी थी। एक दो नहीं पूरे आधा दर्जन सर्कुलर राज्य सरकार ने इस बात के लिए जारी किए थे कि नौकरशाह जल्द से जल्द अपनी संपत्ति का ब्यौरा दें। राज्य के निर्देशों की परवाह तो नौकरशाहों ने नहीं की थी लेकिन केन्द्र सरकार के नए नियमों की भनक लगने के बाद सभी नौकरशाहों ने अपनी संपत्ति का ब्यौरा सरकार के सुपुर्द कर दिया था। केन्द्र ने अपने नए नियमों में चेता दिया था कि जो नौकरशाह तय समय पर अपनी संपत्ति का खुलासा नहीं करेंगे उनके नाम सार्वजनिक किए जाएंगे। ऐसे नौकरशाहों के नाम वरिष्ठ पदों के लिए बनाए जाने वाले पैनल में शामिल नहीं करने की चेतावनी भी दी गयी थी।
न्यायालयों के आदेशों की अवहेलना और दिशा-निर्देशों का उल्लंघन तो बिहार की नौकरशाही का शगल बन चुका है। शायद बिहार की नौकरशाही में यह धारणा घर कर चुकी है कि वे व्यवस्था से ऊपर हैं। बिहार में ग्राम पंचायत से लेकर मुख्यमंत्री सचिवालय तक “बाबु-राज“ कायम है। बेबाकी से कहूं तो अगर नौकरशाही को लोकतंत्र की लगाम थामने की छूट मिल गई तो लोकतंत्र और निष्पक्षता दोनों ही नौकरशाही की मनमानी की भेंट चढ़ जाएंगे और बिहार में इसकी शुरुआत हो चुकी है। प्रदेश में वर्तमान सरकार के पिछले आठ सालों के कार्यकाल के दौरान नौकरशाह ज्यादा स्वछंद और निर्भिक हुए हैं ये साफ़ तौर पे झलकता है।
पिछले आठ सालों में ये देखने को आया है कि मौसम गर्म होते ही आराम पसंद नौकरशाहों पर भी गर्मी हावी हो जाती है। हर साल नौकरशाह अप्रैल की शुरूआत
के साथ ही अपने वातानुकुलित दफ्तरों से निकलना बंद कर देते हैं। पिछले साल भी ऐसा ही हुआ। महीनों से किसी प्रमुख सचिव और सचिव ने ग्रामीण बिहार
में जाने की जहमत नहीं ऊठाई है।
पूर्व की भांति जमीनी हकीकतों को समझे बिना रोज नए-नए निर्देश दिए जा रहे हैं जिन्हें पूरा करना व्यवहारिक रूप से मैदानी अमले के लिए संभव नहीं है। बरसात से पहले तटबंधों की सुरक्षा के लिए अनेकों दिशा-निर्देश जारी किए गए, सचिवालय और कार्यालयों में समीक्षा बैठकों का दौर चला लेकिन कार्यों की समीक्षा हेतु कोई उच्च अधिकारी शायद ही अभी तक वहां पहुंच पाया है। कमोबेश यही हाल शहरों में नाला उड़ाही के संदर्भ में भी है। सड़क निर्माण, नाला निर्माण और जलापूर्ति के नाम पर बरसात के मौसम में बेतरतीब ढ़ंग से खुदाई भी बिहार में सजग नौकरशाही के सरकारी दावों का माखौल ही उड़ाती हैं। वैसे भी पिछले आठ सालों में सुशासन की सरकार में “भोज के समय कोहंड़ा  (सीता-फ़ल) रोपने की कवायद” ही होती आयी है। वर्तमान सरकार के पिछले आठ सालों के कार्यकाल में नौकरशाही की शह पर ठेकेदारों और दलालों का एक संगठित गठजोड़  सरकारी  योजनाओं की लूट में लिप्त है। सुशासन के लाख दावों के बावजूद वर्तमान सरकार नौकरशाही के चरित्र को बदलने में नाकामयाब ही रही है । ऊपर से नीचे तक फैले बाबुओं के तंत्र  के सामने राजनीतिक सत्ता नतमस्तक है । यह तंत्र बेशर्मी से आम जनता का हक छीन रहा है। यह समाज के लिए व्यापक चिंता का विषय है, लेकिन इसकी तरफ आंख उठाकर देखने की भी फुर्सत किसी को नहीं है। बिहार में रीयल-एस्टेट से लेकर अधिकांश वृहत और मध्यम आकार के निवेशों में नौकारशाहों का काला-धन लगा हुआ है। नौकरशाही को सुधारे बगैर और उसमें जड़ें  जमा  चुकी लूट  की संस्कृति पर रोक लगाए बगैर किसी भी शासन का सुशासन में तब्दील मुमकिन नहीं है ।
नौकरशाही की लालफीताशाही के चलते प्रदेश की अनेक लोकहितकारी और विकास संबंधी योजनाएं जमीन पर सही रूप में अमल में नहीं आ पा रही हैं, जबकि इन योजनाओं पर केन्द्र और राज्य शासन का करोड़ों रूपया खर्च भी हो रहा है। नौकरशाही में भ्रष्टाचार का भारी बोलवाला है, फिर भी शासन इस पर रोक
लगाने में असहाय साबित हुआ है। मनरेगा जैसे रोजगार- मूलक और ग्रामीण विकास के कार्यक्रम में करोड़ों रूपयों का भ्रष्टाचार होने की बात तो सभी स्वीकार करते हैं, लेकिन भ्रष्टाचार पर नियंत्रण लगाने में शासन असमर्थ ही बना हुआ है, इसका कारण साफ है कि  या तो राजनीतिक सत्ता में नौकरशाही में व्याप्त भ्रष्टाचार को रोकने की कोई इच्छाशक्ति नहीं है या फिर भ्रष्टाचार में उसकी मिलीभगत है ?
ये सर्वविदित है कि बिहार में नौकरशाहों को शासन का कोई खौफ नहीं है और मंत्रीगण भी नौकरशाहों के रहमो-करम पर ही निर्भर रहते हैं। जल्द ही चुनावी माहौल सरगर्म होने वाला है। ऐसी स्थिति में जनप्रतिनिधि और राजनीतिक कार्यकर्ता अब नौकरशाही पर अपना आक्रोश व्यक्त करने लगे हैं, जिससे यह तथ्य उजागर हो रहा है कि इस सरकार की नौकरशाही पर कोई पकड़ नहीं है। अब तो सरकार  के  मंत्री भी अनौपचारिक मुलाकातों में कहते हैं कि उन्हें जिलों का प्रभार तो मिला है, लेकिन वे जब जिले में जाते हैं, तो उनके आदेशों-निर्देशों को न तो जिलाधिकारी सुनते हैं और न ही पुलिस अधीक्षक। ऐसे में आम कार्यकर्ताओं के सामने उनकी कोई इज्जत नहीं रह जाती है। मंत्रियों और जनप्रतिनिधियों की यह भी शिकायत है कि प्रभार वाले जिलों या उनके प्रतिनिधित्व वाले क्षेत्रों में आला अफसरों की नियुक्ति में उनसे कोई राय नहीं ली जाती है। ऐसे में अफसरों पर मंत्रियों की कोई पकड़ नहीं रहती है।
नौकरशाही के भरोसे विकास की बात सोचना बेमानी है। जब तक आम लोग राजनीतिक सत्ता तक अपनी समस्याओं का आदान-प्रदान नहीं करेंगे तब तक सच्चे विकास की धारणा को मूर्त रूप प्रदान नहीं किया जा सकता। समता मूलक विकास सिर्फ उस शासन व्यवस्था में सम्भव है, जहां जनता की भागीदारी हो। सुशासन बाबु को ये तो भली-भांति समझ में आता ही होगा कि नौकरशाही पर लगाम कसे और सुधारे बगैर सर्वांगीण विकास कहीं से भी संभव नहीं है।

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