बिहार विधानसभा चुनाव परिणाम : मूल्यांकन इस पहलू से भी देखें

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लोकतंत्र में जब सत्ता की राजनीति हावी होने लगती है तब केवल चुनाव परिणाम ही देखे जाते हैं। गत बिहार विधानसभा चुनाव परिणामों पर प्रतिक्रिया देते समय पूरे मीडिया ने नितीश कुमार और विकास की जीत बतायी वहीं भाजपा के नेता अपनी प्रतिक्रिया देते समय इसे एनडीए की जीत बता रहे थे। सवाल है कि क्या यह एनडीए की जीत है या नीतिश कुमार की जीत है? सच तो यह है कि तमाम बेशर्मी के साथ किसी तरह पीछे लटक कर भाजपा ने हमेशा की तरह भरपूर लाभ उठा लिया है, पर क्या वो अकेले लड़ कर उस जनता का समर्थन पा सकती थी जिसने रथयात्रा के दौरान अपने प्रदेश में लाल कृष्ण आडवाणी को गिरफ्तार किये जाने पर तत्कालीन राज्य सरकार का खुलकर साथ दिया था और बाद में होने वाले चुनावों में अडवाणी को गिरफ्तार करने वालों को भरपूर समर्थन देकर विधानसभा और लोकसभा में भेजा था। यह जीत भाजपा के वैकल्पिक प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी नरेन्द्र मोदी और मुसलमानों के हाथ काटने की घोषणा करने वाले वरुणगान्धी को बिहार में चुनाव प्रचार न करने देकर एक सन्देश देने वालों की जीत है। नितीश कुमार ने तो चुनाव के पहले साफ घोषणा कर दी थी कि अगर गठबन्धन चलाना है तो वह हमारी शर्तों पर चलेगा। सत्ता के लिए किसी भी हद तक गिर जाने के लिए अभंजित रिकार्ड रखने वाली भाजपा ने उनके आदेश को सिर माथे लगा कर स्वीकार कर लिया था। नितीश के ये तेवर तो तब थे जब उनको अकेले दम पर सरकार बनाने के लिए कम से कम बत्तीस सीटें और चाहिए थीं और वे भाजपा के समर्थन पर बुरी तरह निर्भर थे।

ताजा चुनाव परिणामों के अनुसार नितीश को अपनी सरकार बनाने के लिए कुल आठ विधायकों का समर्थन चाहिए जो प्रदेश को भाजपा से मुक्त करने के लिए कोई भी कभी भी दे सकता है। दूसरी ओर भाजपा को अपनी सरकार बनाने के लिए कम से कम तेतीस सीटें चाहिए और उन्हें कोई भी समर्थन नहीं दे सकता। भाजपा को किसी गैर भाजपा दल ने तभी समर्थन दिया है जब वे इतनी कम सीटें जीत पाये कि भाजपा की सरकार बनवाना उनकी मजबूरी रही। किंतु जैसे ही परिस्तिथियां बदलीं वैसे ही ऐसे समर्थकों ने अपना समर्थन वापिस लेने में देर नहीं की। मायावती ने तो भाजपा से कम सीटें होते हुए भी छह छह महीने सरकार चलाने के हास्यास्पद समझौते में पहले सरकार बनाने की शर्त मनवायी थी और बाद में उन्हें समर्थन देने से इंकार कर दिया था, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें व्यापक दलबदल का सहारा लेना पड़ा था और सारे दलबदलुओं को मंत्री बनाने का सौदा भी उन्हीं के खाते में दर्ज है। रोचक यह है कि एक एक विभाग के दो दो तीन मंत्रियों में से दर्जनों का यह कहना रहा कि उन्हें कभी किसी फाइल पर दस्तखत करने का अवसर नहीं आया।

भाजपा के नेता बार बार जिस एनडीए की जीत की दुहाई दे रहे हैं उसका गठबन्धन के रूप में अस्तित्व कहाँ है! एनडीए की अपने किसी साझा कार्यक्रम के रूप में कोई पहचान नहीं है। भाजपा इसका सबसे बड़ा और इकलौता राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त दल है इसलिए इसकी भूमिका भी बड़े भाई की है। पर जिस जिस राज्य में भी उनको पूर्ण बहुमत प्राप्त है वहाँ वहाँ वे एनडीए के दूसरे किसी घटक को घास नहीं डालते। गुजरात, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ, हिमाचल प्रदेश में भूले से भी उनके मुँह से एनडीए का नाम नहीं निकलता। बिहार, पंजाब, उड़ीसा में वे जूनियर पार्टनर और विवशता में बनाये घटक की तरह रहे। उड़ीसा में ईसाइओं के खिलाफ उनकी साम्प्रदायिक हिंसा के कारण बीजू जनतादल को उन्हें हटाना ही पड़ा। उत्तराखण्ड, कर्नाटक, और झारखण्ड में सरकार बनाने की जोड़तोड़ में उन्हें एनडीए याद नहीं आया। केन्द्र में सत्ता होने के दौर में, तृणमूल कांग्रेस, तेलगुदेशम, एआईडीएमके, इंडियन नैशनल लोकदल, नैशनल कांफ्रेंस, आदि को उचित समय पर उनका साथ छोड़ देने में ही अपनी भलाई नजर आयी। ऐसी दशा में जब नितीश के आकर्षक शासन को पूरा श्रेय मिल रहा हो और उनकी निर्भरता भाजपा पर बहुत कम रह गयी हो तब सरकार में भी उनका महत्व कम ही होना तय है।

ताजा चुनाव परिणाम की पिछले विधानसभा चुनाव परिणामों से तुलना करने पर यह भी स्मरण में रखना होगा कि पिछले चुनाव आरजेडी और कांग्रेस आदि ने मिलकर लड़े थे जबकि उक्त चुनावों में ये अलग अलग लड़ रहे थे। भाजपा, जेडीयू को मिले कुल मतों की संख्या उनके विरोध में पड़े कुल मतों की संख्या से कम है जो शासन की लोकप्रियता के बारे में एक सन्देश है। पिछले चुनावों की तुलना में छह चरणों में हुए चुनाव अधिक स्वच्छ, सुरक्षित, हिंसामुक्त हुये हैं और मतदान प्रतिशत में वृद्धि लिये हुए हैं। जातिवाद ने दलों की जगह उम्मीदवारों के स्तर पर काम किया है। लालू प्रसाद को सभी यादवों ने वोट नहीं दिया हो किंतु जिस क्षेत्र से जिस जाति का उम्मीदवार था उसे उस जाति के वोट बटोरने में सहूलियत रही।

उम्मीदवारों द्वारा दाखिल किये गये शपथपत्रों के अनुसार चुने गये 243 विधायकों में से 141 के विरुद्ध आपराधिक मामले दर्ज हैं। इन 141 में से 117 के खिलाफ गम्भीर आपराधिक मामले हैं। इनमें से भी 85 के खिलाफ हत्या या हत्या के प्रयास का मामला दर्ज है।

वीरेन्द्र जैन

5 COMMENTS

  1. वीरेंद्र जी, आपको लग रहा है की राज्य में बीजेपी का अस्तित्व ही नहीं है, नितीश को जो सफलता मिली है वह क्या उनके अकेले दम पर मिली है, बीजेपी कार्यकर्ताओं के खून पसीने का कोई मोल नहीं. खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि आप यह नहीं समझ पाए कि चुनाव नेता नहीं कार्यकर्ता लड़ते हैं. वास्तव में कार्यकर्ता को पता रहता है कि उसके वोट कहाँ हैं, नेता को नहीं. आपका यह लेख बीजेपी के उन कार्यकर्ताओं का अपमान है, जिन्होंने एनडीए के उम्मीदवारों को जिताने के लिए रात दिन एक कर दिया. सादर.

  2. यहाँ पर लेखक बी जे पी के प्रति अपने द्वेष को दर्शा रहे हे, हर राजनितिक पार्टी जहा वो अपने दम पर खड़ी हे वह पर वो अपने ही नाम पर वोट मांगती हे जेसे बी जे पी गुजरात में और कोंग्रस राजस्थान में …. क्योकि वहा किसी दुसरे सहयोगी की जरुरत नहीं हे, व्यव्हार में भी हम तभी सहायता लेते जब जरुरत होती . ये तो मानव स्वाभाव हे तो इसमें बुरा लगाने वाली कोई बात नहीं ….. मुझे लगता हे बिहार के लोग इस तरह नहीं सोचते होंगे जेसा लेखक सोच रहे हे क्योकि उनको वर्षो बाद विकास की बात करने वाले और करके दिखने वाले मिले हे

  3. मेरे जैसों के लिए यह समझना कठिन है की आखिर आप कहना क्या चाहते हैं?यहाँ जेडीयू और बीजेपी ने साझा चुनाव जीता है.चूँकि नितीश इस गठबंधन के नेता माने गए थे अतः उनके कहने पर चलना हरेक का कर्त्तव्य था. यही तो हुआ है.अब इसमे बीजेपी और जेडीयू को अलग अलग करके देखना कहाँ तक लाजमी है?ऐसे लिखने और तर्क करने के लिए कुछ तो मसाला तैयार करना पड़ता है. उस लिहाज से देखा जाये तो आपका मसाला भी चल ही जाएगा ,क्यों पक्ष और विपक्ष में वहस करने के लिए इसमे बहुत कुछ है,पर आज ऐसे अनावश्यक तर्क की आवश्यकता है क्या?मेरेविचार से तो आज जरुरत है की इस चुनाव को आगे के लिए दिशा निर्देश के रूप में लिया जाये और इसमे कही खामियां दिख रही हो तो उसको दूर करने के लिए सुझाव दिए जाएँ.

  4. वीरेन्द्र जी का आलेख तथ्यपरक और राजनेतिक धुर्वीकरण की दूरंदेशी से परिपूर्ण है .किन्तु नितीश जी बाकई चतुर हैं ,वे भाजपा को नहीं सवर्णों को साध रहे हैं .सुशील मोदी को वरुण गाँधी या नरेन्द्र मोदी के अश्लील उत्तेजक भाषणों की जरुरत नहीं …नितीश और शरद ने धर्मनिरपेक्षता को नहीं छोड़ा .वे जार्ज .मुलायम या लालू जैसे शाब्दिक समाजवादी नहीं हैं . वे दलित ,महादलित ,पिछड़ा ,अति पिछड़ा से लेकर मुस्लिम और सवर्णों को सन्देश दे चुके हैं की वे जनता के साथ हैं ..

  5. *बिहार विधानसभा चुनाव परिणाम : मूल्यांकन इस पहलू से भी देखें – by – वीरेंदर जैन

    जैन साहब का यह सवाल है कि क्या यह एनडीए की जीत है या नीतिश कुमार की जीत है ?

    मेरा इस प्रश्न पर पूछना है कि क्या नीतीश कुमार जी एन.डी.ए से अलग थे या इसका अंग थे ?

    क्या जद (यु) और भाजपा एक साथ थे या अलग-अलग थे ?

    जवाब यह है कि यह दोनों साथ-साथ हैं और यह एनडीए की जीत की हैं.

    ……………….. अब वापिस वीरेंदर जैन जी के प्रश्न पर आते हैं ………………..

    वास्तव में जैन साहिब का कहना है कि नीतीश कुमार जी का चुनाव जीतने में योग दान बहुत अधिक है और भाजपा ने बेशर्मी से नीतीश जी का खून चूसा है.

    सभी स्वीकार करते हैं कि मतदान caste based नहीं था. मत performance पर पड़े हैं.

    भाजपा के पास cadre है और इस संगठन ने चुनाव में काम किया. नारा नीतीश जी के नाम पर काम का था.

    केंद्र में UPA – II सरकार की पछले ६-मास की बदनामी का भी बिहार की जीत में पर्याप्त योग दान रहा है.

    चुनाव उपरांत बिहार जनता की expectations बहुत अधिक हो गई हैं.

    ……………….. अब असल प्रश्न यह है कि ………………..

    – क्या NDA ( JD U और BJP ) २०१० बिहार-II — केंद्र की २००९ UPA – II की तरह बेकार सिद्ध होगा या अब पुनर्जनम के बाद अधिक काम कर चमकेगा ?

    – अनिल सहगल –

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