बिहार चुनाव बाद बढ़ीं भाजपा की चुनौतियां

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मोदी-शाह की रणनीतिक विफलता ने विपक्ष को किया एकजुट

-संजय द्विवेदी

बिहार चुनाव के परिणामों से सारे देश की राजनीति में एक उबाल आ गया है। इस परिणाम ने जहां पस्तहाल विपक्ष को संजीवनी दी है वहीं भाजपा को आत्मचिंतन और आत्मावलोकन का एक अवसर बहुत जल्दी उपलब्ध करा दिया है। दिल्ली में भाजपा के अश्वमेघ को जहां अरविंद केजरीवाल ने रोक लिया था तब उस चुनाव के परिणाम को एक स्थानीय कारण मानकर छोड़ दिया गया था। किंतु कुछ तो है कि बिहार के परिणाम को देश का फैसला माना जा रहा है। इसका एक कारण तो यह है कि दिल्ली में किरण बेदी को चेहरा बनाकर भाजपा के आत्मघात को एक बड़ा कारण माना गया था। जबकि बिहार चुनाव में चेहरा ही नरेंद्र मोदी और अमित शाह थे। किसी भी राज्य के चुनाव में शायद यह अजूबा ही था कि पोस्टरों पर प्रमुख रूप से मोदी और शाह छाए रहे हों।

बिहार का चुनाव परिणाम एक साथ ढेर सारी सूचनाएं और चेतावनियां देने वाला भी है। एक तो यह कि सुशासन बाबू के निर्विध्न राज पर अब लालू प्रसाद यादव और उनके बेटों की सहभागिता रहेगी। दूसरा सबसे बड़ा दल होने के नाते राजद का इकबाल भी बुलंद है। विकास और सुशासन की नारेबाजियां करने वाले जनता दल (यू) और भाजपा दोनों को लालू की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल से कम सीटें मिली हैं। जाहिर तौर पर यह परिणाम एक साथ कई बातें बताते हैं।

ये जाति है बड़ीः बिहार में वैसे भी जातीय राजनीति की एक गहरी परंपरा और सैद्धांतिक आधार भी है। यहां सबसे बड़ा संगठन और विचार जाति ही है। जातीय गोलबंदी करके चुनाव जीतना कोई नई बात नहीं है और लालू यादव इसमें सफल रहे हैं। शायद इसीलिए चुनाव में जंगलराज पार्ट टू कहे जाने पर अपनी आलोचना पर उन्होंने यह कहा था कि ‘जंगलराज पार्ट टू’ नहीं यह ‘मंडलराज पार्ट टू’ है। यह बताता है कि किस तरह उन्होंने अपने वोटबैंक को साधने की कोशिश की थी। ऐसे में यह भ्रम होना स्वाभाविक है कि इस जीत को विकास की जीत माना जाए या जातीय गोलबंदी की। नीतीश कुमार के विकासवादी चेहरे के बावजूद लालू प्रसाद यादव के दल को मिली सफलता, वंशवाद और जातीय राजनीति ज्यादा महत्व पाती हुई दिखती है। सामाजिक समीकरणों को साधकर बिहार का मैदान जिस तरह जीता गया वह बताता है कि अभी भी भारतीय राजनीति में जाति एक बड़ी ताकत है।

भाजपा के लिए आत्मचिंतन का समयः बिहार में भाजपा की पराजय बिखरे परिवार को एक न कर पाने का उदाहरण है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे पर चुनाव लड़ती हुई भाजपा यहां पहले दिन से बिखरी-बिखरी दिखी। भाजपा स्थानीय नेतृत्व कहीं दिखा नहीं, तो शत्रुध्न सिन्हा, आर के सिंह जैसे सांसद अपनी नाराजगी को सार्वजनिक करते नजर आए। गठबंधन दलों को हैसियत से ज्यादा सीटें देना भी भारी पड़ा। रामविलास पासवान, जीतनराम मांझी, उपेंद्र कुशवाहा आदि के दलों को गहरा झटका लगा। इस सदमे से उबरने और संभलने में भाजपा को वक्त लगेगा। सही मायने में इस चुनाव ने भाजपा को यह अवसर दिया है कि वह अपने अतिआत्मविश्वास और शक्ति का विश्लेषण करे। बार-बार हर मैदान में एक ही हथियार कारगर नहीं होता यह भी साबित हो चुका है। ऐसे में यह देखना रोचक है कि भाजपा इस हार से क्या सबक लेती है और भविष्य के लिए क्या कदम उठाती है। किंतु इतना तो तय है कि भाजपा ने बिहार की पराजय से उत्तर प्रदेश का मार्ग अपने लिए कठिन बना लिया है। राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की कुशल रणनीतिकार की छवि भी दिल्ली और बिहार की पराजय से सवालों के घेरे में है। भाजपा के तूफानी अभियान ने इन दोनों राज्यों में कोई असर नहीं छोड़ा और सीटें उम्मीद से कम आयीं। यह बात बताती है कि किस तरह भाजपा को अपनी कार्यशैली पर काम करने की जरूरत है। बिहार के सांसदों शत्रुध्न सिन्हा, आरके सिंह, भोला सिंह, हुकुमदेव नारायण यादव, अश्विनी चौबे आदि के बयानों का विश्लेषण करें तो असंतोष की गहराई का पता चलता है। सांसदों में गुस्से का यह स्तर है तो सामान्य जनों की बात समझी जा सकती है। सांसदों का यह असंतोष केवल बिहार के स्तर पर नहीं है। ज्यादातर को समस्या संवादहीनता की है और संवाद के तल पर भाजपा की विफलता हर जगह रेखांकित की जा रही है। यह संकट अचानक पैदा हुआ है या यह बात फैलाई जा रही कहना कठिन है किंतु भाजपा को इस संकट का समाधान खोजना होगा इसमें दो राय नहीं है। भाजपा अगर ऐसा नहीं कर पायी तो आने वाला समय उसके लिए संकट का कारण होगा।

लालू की वापसी के मायनेः बिहार में लालू प्रसाद यादव की वापसी एक चमत्कार जैसी ही है। इस चुनाव के वास्तविक हीरो और विजेता दरअसल लालू प्रसाद यादव ही हैं जिन्होंने न सिर्फ खुद को फिर से मैदान में खड़ा कर लिया बल्कि देश की राजनीति में हस्तक्षेप की क्षमता से लैस हैं। अपने दोनों पुत्रों को राजनीति में स्थापित कर और सर्वाधिक विधानसभा सीटें जीतकर जो चमत्कार उन्होंने किया है उससे नीतिश कुमार की आभा भी मंद पड़ गयी है। यह देखना भी रोचक होगा कि आने वाले समय में सरकार की दशा और दिशा क्या होती है। लालू यादव के बेटे-बेटियों का आश्वासन तो यही है कि वे विकास और सुशासन की परंपरा को आगे बढ़ाकर नीतिश कुमार के मार्गदर्शन में आगे बढ़ेंगें। राजग के कैडर और संगठन के आधार का परिणाम ही है कि वे हर चुनाव में अपना वोट बैंक बनाए और बचाए रख पाने में सफल रहे हैं। अब लालू का दावा है कि वे देश में घूमकर भाजपा की राजनीति के खिलाफ अलख जगाएंगें। किंतु बिहार की सरकार को उनके हस्तक्षेप से मुक्त कर पाना कठिन होगा।

देश की राजनीति पर असर डालेंगें ये चुनावः बिहार चुनाव ने जहां विपक्ष को ताकत दी है, वहीं नरेंद्र मोदी का आभामंडल भी दरका है। विपक्ष की एकजुटता को भाजपा की हरकतों ने ही हवा दी है। इसके चलते संसद के अंदर-बाहर विपक्ष अब भाजपा की सरकार पर हावी दिखते हैं। आने वाले समय में भी भाजपा के लिए बहुत अच्छी खबरों की संभावना नहीं है। प.बंगाल वैसे भी भाजपा के लिए बहुत अनूकूल राज्य नहीं है। ममता बनर्जी और वाममोर्चा के बीच वहां का मैदान बंटा हुआ है। ऐसे में भाजपा वहां कुछ कर पाएगी इसकी संभावना नहीं दिखती। राज्य में अपनी उपस्थिति बनाने के लिए उसे लंबा इंतजार करना होगा। असम में भाजपा जरूर काफी आशान्वित है। कांग्रेस के तमाम नेता दलबदल कर भाजपा में आ रहे हैं। असम एक ऐसा राज्य है जहां भाजपा आजतक सत्ता में नहीं आ सकी है। इस बार चमत्कार की उम्मीद भाजपा कर रही है। इसके साथ ही तमिलनाडु और केरल तो भाजपा के मिजाज से मेल नहीं खाते। यहां भाजपा को अभी प्रमुख विपक्ष बनने के लिए भी एक लंबी यात्रा करनी है, सत्ता तो दूर की कौड़ी है। इसी तरह आने वाले समय में उप्र की एक बड़ी लड़ाई भी भाजपा को लड़नी है। लोकसभा चुनाव में राजग ने 73 सीटें जीतकर जो कमाल किया था, उसे दोहराना एक कठिन चुनौती है। उप्र का राजनीतिक मैदान अभी भी सपा और बसपा के बीच में बंटा हुआ है। कांग्रेस और अन्य भाजपा विरोधी दलों में गठबंधन होने पर भाजपा की राह और कठिन हो सकती है। बिहार ने जो झटका दिया है उसके साइड इफेक्ट उप्र में दिखने तय हैं। पंजाब में अकाली दल और भाजपा के रिश्ते सहज नहीं हैं। सत्ता के खिलाफ असंतोष है तो कैप्टन अमरिंदर सिंह को पंजाब कांग्रेस का अध्यक्ष बनाए जाने के बाद कांग्रेस जोश में है। भाजपा के दिग्गज अरूण जेटली को हराकर अमरिंदर सिंह वैसे भी लाइम लाइट में हैं। भाजपा और अकाली दल के लिए कांग्रेस के साथ-साथ आम आदमी पार्टी भी एक बड़ी चुनौती की तरह उभर रही है। इस त्रिकोणीय संघर्ष का फायदा किसे मिलेगा कहा नहीं जा सकता। उत्तरांचल और हिमाचल में जरूर भाजपा सीधी लड़ाई में है और उसे वहां कुछ लाभ मिल सकता है। किंतु तबतक क्या हवा बनेगी कहा नहीं जा सकता। इतना तो तय है कि केंद्र में सत्ता में होने का असर भाजपा को हर राज्य के चुनाव में उठाना पड़ेगा। आर्थिक नीतियों से प्रभावित होते लोगों और बढ़ती महंगाई के आरोपों से भाजपा बच नहीं सकती। जिन हथियारों से उसने कांग्रेस को चोटिल किया था वे सारे हथियार अब कांग्रेस और विपक्ष के पास हैं। अकेले प्रधानमंत्री की सक्रियता के बजाए वित्त मंत्री की उदारता का भी देश की जनता को इंतजार है। इसके साथ ही एक सामूहिक नेतृत्व, संवाद और अहंकारहीनता तो चाहिए ही। बिहार ने भाजपा को क्या सिखाया है इसके लिए थोड़ा इंतजार करना चाहिए।

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  1. दिल्ली में भाजपा की गलती अभी भी दिल्ली को पंजाब के लोगो का समझाना है जबके वह पिछड़ेपन से ऊबे मिथिला, भोजपुर के लोगों की हो चुकी है ,जहां अरविंद केजरीवाल ने इसे समझा भाजपा अनबुझ रही बिहार की जीत जातीय गोलबंदी की ही है विकास के इनही पर भाजपा का यह समझना की वह अपने को इछ्दी जातिबलुल बनावे गलत था , उसे भाजपा के सस्यों का रहना था दल्बदुओं का नहीं ।
    भारतीय राजनीति में जाति एक बड़ी ताकत है और भाजपा को इसके लिए अपने साढ़े सच्चे कार्यकर्ताओं का साथ लेना होगा जो पद के लिए नहीं आये हों , इनमे शत्रुध्न सिन्हा, आर के सिंह हुकुमदेव नारायण यादव , कीर्ति आजाद, बिनोद नारायण झा जैसे अनेक चेहरे है , जिनकी समाज में कोई खास पकड़ है भे नहीं . रामविलास पासवान, जीतनराम मांझी, उपेंद्र कुशवाहा आदि के दलों का साथ लेना भाजपा के सिद्धांत और व्यहार दोनों की नाकामी है . यदि भाजपा ने बिहार की पराजय से सीख लिया तो उत्तर प्रदेश का मार्ग अपने लिए कठिन नहीं होगा ।
    राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह भे एगुजारत से हे एयः गलत सन्देश देता है उन्हे मंत्री बना दे पर भाजपा का अध्यक्ष किसी विद्वान, साफ़ चरित्र के स्वयमसेवक से राजनीती में आये व्यक्ति को होना चाहिए और निश्चय दो प्रान्त ही नहीं दो क्षेत्रों से प्रमुख दोनों होने चाहिए- भूमि और जीत या वर्ण की दृष्टि से भी और यह हर प्रान्त में होना चाहिए।

    बिहार के सांसदों शत्रुध्न सिन्हा, आरके सिंह, भोला सिंह, हुकुमदेव नारायण यादव, को अश्विनी चौबे को अब समाज सेवा के दुसरे खेत्रों में जाने कहे – अश्विनी चौबे मेरे मित्र स्वयमसेवक हैं ओअर बेटे को टिकट दिला वे भी हुकुमदेव यादव समाजवादी के श्रेणी में चले गए , भोला सिंह साम्यवादी रहे है- नौकरशाह आर के सिंहजाति बहुल सूदूर आरा से चुने गए अपने घर मिथिला से नहीं- दिल्ली से वे क्यों नहीं लादे- उन्होंने सही बात कहे एहोगी पर उनका राजनीतिक आधार भी सही नाहे एही- सिने कलाकार शत्रुघ्न सिन्हा का जातीय आधार बहुत छोटा मत के आकर का है और वे राजनीती में जहाँ तक पहुंचे वही बहुत हो गया
    लालू की वापसी के मायनेःकोई चमत्कार नाहे एही – २०१४ में उन्हें २०१० के एबजय २ % अधिक मत मिला था और जातीय मत उन्हें मिलता रहेगा- जिसका जबाब केवल एक है- मिथिला प्रांत का गठन – ताकि वे और नीतीश मगध- भोजपुर तक ही जातीय विषाक्तता को रखे- फिर उनसे, उनमे लड़ाई से उन भागों को मुक्त किया जा सकेगे.. बंगाल की बहुत चिंता न करें – अस्स्म में दल्बद्लूँ के भरोसे जा आकार भाजपा गलती दोहराएगी- उसे नए कांग्रेस से आये को टिकट नहीं देना चाहिए बिहार ने जो झटका दिया है उसके साइड इफेक्ट उप्र में होगा अपर आम चुनाव तक अपने कार्य के आधार पर यदि वोट मांगे जाए तो स्थिति बदल सकती है भाजपा को भाजपा अकी तरह रहना चाहिए कांग्रेस की तरह नहीं और वही इसके मर्ज की दावा है – नक़ल करने के लिए अकाल चाहिए नहीं तो शक्ल बिगड़ जाती है- वाजपेयी जी का पाठ वह याद रखे :

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