बिहार को चाहिए 1990 वाला लालू!

-रंजीत रंजन सिंह-
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-नीतीश का लालूकरण -2-

कभी नीतीश कुमार लालू प्रसाद के कर्ताधर्ता थे, बाद में एक-दूसरे के राजनीतिक दुश्मन रहे और अब लालू प्रसाद नीतीश कुमार के खेवनहार बनकर उभरे हैं। इस बीच नीतीश कुमार छवि एक मतलबी, मौकापरस्त और तुष्टीकरण करनेवाले नेता की बन गई है। 1974 के जेपी आंदालन से निकले लालू प्रसाद 1990 में नीतीश के सहयोग से ही अपनी ही पार्टी के रामसुंदर दास को पछाड़कर किसी प्रकार मुख्यमंत्री बन पाए थे। सामंती ताकतों के खिलाफ लगभग सभी पिछड़ी जातियों और मुसलमानों का समर्थन जनता दल को मिला था और लालू गरीबों के मसीहा बनकर उभरे। मगर सत्ता के प्रति लालू के बढ़ते लगाव ने पार्टी को ही तोड़ दिया और नीतीश कुमार ने 1994 में समता पार्टी का गठन कर लिया। इस बीच लालू प्रसाद ने माई समीकरण का इजाद किया और उसी के बदौलत उनकी पार्टी 10 साल और सत्ता पर काबिज रही।

आज नीतीश कुमार की चाल देखिए। अगड़ी जातियां नीतीश कुमार से नाराज हैं। जदयू को अगड़ी जातियों के वोट मिल भी रहे थे तो भाजपा के कारण। ऐसे में श्री कुमार ने लालू प्रसाद के वोट बैंक पर नजर डाला और माई समीकरण को ताड़ने की तरकीब सोची। माई समीकरण तोड़ने का सीधा मतलब है मुसलमानों का समर्थन प्राप्त करना। और मुसलमानों के समर्थन के लिए भाजपा और नरेन्द्र मोदी विरोध से अच्छी चीज कुछ हो ही नहीं सकती थी। पिछले लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी को भाजपा के चुनाव समिति के अध्यक्ष बनाए जाने के बाद जदयू ने भाजपा से नाता तोड़ लिया। अचानक उनके दिल में मुस्लिम प्रेम जग गया। गौरतलब बात यह है कि गोधरा कांड के समय नीतीश कुमार रेलमंत्रीे थे और नैतिकता के आधार पर उन्होंने अपने पद से इस्तीफा देना भी उचित नहीं समझा था। गुजरात सांप्रदायिक हिंसा के बाद एक सरकारी कार्यक्रम में उन्होंने तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की तारीफ भी की थी।

नीतीश जो कर रहे हैं वही काम कभी लालू किया करते थे। कभी भाजपा, कभी आडवाणी, तो कभी सांप्रदायिक हिंसा का डर दिखाकर मुसलमानों का वोट लेते रहे और राजनीतिक रोटियां खूब सेंकी। जिस कांग्रेस को हराकर लालू प्रसाद 1990 में भाजपा के समर्थन से बिहार के मुख्यमंत्री बने, 1996-97 आते-आते उसी कांग्रेस के साथ गलबहियां करने लगे, और भाजपा को नफरत का प्रतीक बना दिया। उसी प्रकार नीतीश कुमार भी 17 साल भाजपा के साथ रहने के बाद आज कांग्रेस की गोद में बैठने की सारी औपचारिकताएं पूरी कर ली हैं और भाजपा को फिर से अछूत बनाने में लगे हैं। यह जानते हुए भी कि लालू की तरह वे भी जेपी आंदोलन की उपज हैं, और जेपी का सपना कांग्रेस मुक्त शासन देना था।

मुस्लिम तुष्टीकरण की बात यहीं नहीं रूकती। नवादा दंगे में भी जदयू सरकार रंगी हाथ पकड़ी गई। नीतीश कुमार ने अपनी धर्मनिरपेक्षता साबित करने के लिए पाकिस्तान तक की यात्रा की। बिहार-नेपाल सीमा क्षेत्र से आतंकवादी अब्दुल करीम टुंडा और मोस्टवांटेड यासिन भटकल की गिरफ्तारी का श्रेय भी बिहार सरकार लेने से बचती रही। सरकार के मंत्रियों के द्वारा गुजरात के मुठभेड़ में मारी गई एक महिला आतंकी को बिहार की बेटी तक कहा गया। बिहार सरकार कश्मीर में आतंकी हमलों में शिकार शहीद हुए बिहार के जवानों को सम्मान देना भी वाजिब नहीं समझी। उल्टे एक मंत्री ने कहा कि सेना में लोग शहीद होने ही जाते हैं, नेहा दुष्कर्म व हत्याकांड के कथित मुस्लिम आरोपितों को गिरफ्तार नहीं किया गया, इसे क्या कहेंगे आप? ये तुष्टीकरण नहीं तो और क्या है जिसे कभी लालू प्रसाद किया करते थे।

खैर… यह राजनीति है जिसे नीतीश कुमार बखूबी समझ रहे हैं। उन्हें इस बात का एहसास है कि दूसरे कार्यकाल में जनता को दिखाने के लिए सरकार के पास कुछ खास उपलब्धि नहीं हैं। ऐसे में नीतीश कुमार के सामने खुद को लालूकरण करने के अलावा कोई चारा भी नहीं था। उनके दिमाग में यह बात रही होगी कि अगर मुसलमानों का एक तबका जदयू से जुड़ जाता है तो मुसलमान, महादलित और दांगी-कोईरी-कुर्मी के वोटों को जोड़ देने से बिहार में सत्ता हासिल की जा सकती है। लेकिन आज की परिस्थितियां वैसी नहीं है जैसी 1990 या 1995 में हुआ करती थीं। तब लालू प्रसाद देश के संभावित परिवर्तनों के अगुआ नेताओं में थे। यह सच है कि अपने 15 साल के शासन के दौरान उन्होंने विकास की ओर ध्यान नहीं दिया लेकिन पिछड़े समाज के लोगों का दबदबा कैसे कायम हो इस पर उन्होंने काम किया। बेशक लालू प्रसाद ने बिहार को 20 साल पहले धकेल दिया था, लेकिन जो सामाजिक परिवर्तन उन्होंने किया उससे पिछड़े-गरीबों का मनोबल बढ़ा। इस दौरान उनकी विश्वसनीयता घटती गई। चारा घोटाले में फंसने के बाद 1997 में जब गद्दी छोड़ने की बारी आई तो सारी लोकतांत्रिक मर्यादाओं को ताक पर रखकर ‘हाउस वाइफ’ राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बना दिया। लालू प्रसाद ने पिछड़ी जातियों, दलितों और मुसलमानों के वोटों का इस्तेमाल तो किया लेकिन विकास के नाम पर इन्हें बिल्कुल भूला दिया। कमोवेश यही काम आज नीतीश कुमार कर रहे हैं। भले ही सुशासन के नाम पर ढ़ोल पूरी दूनिया में पीटा गया हो, लेकिन आम जनता जानती है कि जदयू के राज में एक दरोगा भी इतना मजबूत है कि बिना 500-1000 लिए एक एफआईआर भी दर्ज नहीं होता। प्रखण्ड से लेकर जिला मुख्यालय और सचिवालय तक में खुलेआम रिश्वत मांगी जा रही है। ऐसी स्थिति लालू प्रसाद के समय में तो नहीं थी।

अगले साल बिहार विधान सभा चुनाव होनेवाले हैं। बदले हुए राजनीतिक परिदृश्य में जनता बदले हुए चेहरों को भी गंभीरता से पढ़ने की कोशिश कर रही है और हर एक चेहरे में उस चेहरे को ढूंढ़ने का प्रयास कर रही है जिसे वह गद्दी पर बैठाती है और सिंहासन मिलते ही उसका चेहरा बहरूपए की तरह बदलने लगता है। बदली परिस्थिति में लोगों को 1990 वाला लालू भी याद आ रहे हैं और वे इन चेहरों में 90 वाला लालू को ढूंढ़ने का प्रयास कर रहे हैं, जिसमें सामाजिक परिवर्तन की भूख हो, जातीय द्विवेश न हो और विकास की बाते हों!

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